टैक्सों के झूले में झूलता ग़म (व्यंग्य)

मेरे मोहल्ले में शर्मा जी हैं– आठ फ्लैट, चार गाड़ियाँ और एक पालतू डॉग जिसका नाम है– “इनकम टैक्स।” जब पूछो– “कुत्ते का नाम टैक्स क्यों?” तो कहते हैं– “क्योंकि जब-जब काटता है, जेब खाली हो जाती है।” उनकी हँसी देख के लगता है जैसे सरकार और पेट्रोल पंप ने मिलकर ठहाका लगाया हो।
बचपन में जब माँ कहती थी— बेटा, पढ़ ले, वरना ज़िंदगी में झाड़ू ही लगाना पड़ेगा— तब हमने सोचा था कि पढ़-लिखकर हम भी उन लोगों की जमात में शामिल हो जाएँगे, जिनके नाम के आगे 'श्रीमान' लिखा जाता है और जिनके पीछे लोग पान थूकने से भी डरते हैं। पर अब जब नाम के आगे 'करदाता' लग गया है, तो लगता है झाड़ूवाले ज़्यादा सुखी थे। कम से कम टैक्स की बीमारी तो नहीं थी उन्हें! इस बीमारी में न सिर में दर्द होता है, न बुखार चढ़ता है, पर जेब हल्की होते-होते आत्मा तक वजनहीन हो जाती है। आयकर विभाग की चिट्ठी देखकर ऐसा लगता है मानो अस्पताल से मौत की तारीख़ भेजी गई हो– "आपका केस टैक्सेबल है, कृपया आत्मा को शांति पहुँचाइए।" और जब कोई कहता है– “भाई साहब, टैक्स का बोझ बढ़ गया,” तो लगता है कंधे पर सरकार ने खुद आकर बैठ गई है।
दफ्तर के बाहर की चाय की दुकान पर बैठे बब्बन काका बोले– “तू भी टैक्स भरता है? अच्छा खासा दिखता है फिर भी मरा-मरा घूमता है!” मैं मुस्कराया– “काका, जो आदमी टैक्स भरता है, वो जीते जी मुर्दा हो जाता है।” काका चुप हो गए। बोले– “सही कह रहा है बेटा, हम तो लोन में मरते हैं, तुम लोग टैक्स में।” अब बताइए, यह कैसा युग है जहाँ दुख की तुलना भी ब्रैकेट में की जाती है– ‘(लोन वाले), (टैक्स वाले), (भुखमरी वाले)।’ इस देश में दुख भी वर्गीकृत हो चुका है। हमारा दुख इतना डेमोक्रेटिक है कि अमीर से गरीब तक सबको सम भाव से मिलता है, बस किस्म बदला रहता है। किसी को टैक्स का दुख, किसी को ट्रैफिक का। किसी को ब्रेड की चिंता, किसी को ब्रांड की।
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मेरे मोहल्ले में शर्मा जी हैं– आठ फ्लैट, चार गाड़ियाँ और एक पालतू डॉग जिसका नाम है– “इनकम टैक्स।” जब पूछो– “कुत्ते का नाम टैक्स क्यों?” तो कहते हैं– “क्योंकि जब-जब काटता है, जेब खाली हो जाती है।” उनकी हँसी देख के लगता है जैसे सरकार और पेट्रोल पंप ने मिलकर ठहाका लगाया हो। लेकिन दर्द तो तब शुरू हुआ जब उनकी बीवी बोली– “हमारे शर्मा जी तो इतने टैक्स देते हैं कि मुए पड़ोसी भी फॉर्म 16 मांगने लगे।” और जब मैं चंदा माँगने पहुँचा, तो शर्मा जी ने अपनी जेब टटोली, फिर आँखें हमारी शर्ट की तरफ टिका दीं– “हमें टैक्स की बीमारी है, माफ करो।” मैंने कहा– “सर, बीमारी बाँट लीजिए थोड़ा।” पर बीमारी भी अब क्लास-कॉनशस हो गई है। गरीब को डेंगू मिलता है, अमीर को टैक्स।
गुप्ता जी की कहानी तो और दिल झिंझोड़ देने वाली है। एक दिन मिल गए– बोले “आज बड़ा भारी दिन है।” हम बोले– “बैंक लोन पास हो गया क्या?” बोले– “नहीं, टैक्स की रिकवरी आईटी डिपार्टमेंट ने बंद कर दी है।” हमने कहा– “तो खुश हो जाओ!” बोले– “नहीं, अब हमारे टैक्स की बीमारी वैलिड नहीं रही। हम बीमार नहीं रहे। हमारा ओहदा घट गया।” ऐसे लोग टैक्स को बीमारी नहीं, 'स्टेटस सिंबल' समझते हैं। जैसे मुहल्ले में कहा जाए– “अरे वो शर्मा जी? वही जिनकी सैलरी से साल में तीन बार टैक्स कटता है?” वहाँ लोग बीमारी को ‘बेनिफिट’ मानते हैं। जैसे कैंसर न सही, पर कैंसर वाली दवाई के खर्चे दिखाकर टैक्स में छूट तो मिलती है।
एक दिन बैठे थे कि एक सज्जन ने टाई बाँधते हुए कहा– “हमारे पास दो गाड़ियाँ हैं, चार इन्श्योरेंस हैं, और पांच टैक्स फॉर्म।” मैंने पूछा– “राशन कार्ड है?” बोले– “राशन कार्ड गरीबों के लिए होता है, हमारे पास ‘सीए’ है।” और जब उनसे चंदा माँगा, तो बोले– “भाई, आजकल तो आईटीआर भरना भी भीख माँगने जैसा हो गया है– कभी कुछ मिल जाता है, कभी केवल नोटिस।” वह बोले– “हमारा तो ये हाल है कि पत्नी रोटी खिलाने से पहले पूछती है– रोटी पर जीएसटी जोड़ दूँ क्या?” मैंने कहा– “सर, इतनी ईमानदारी कहाँ से लाते हो?” बोले– “ईमानदारी नहीं, हिसाबदारी है। ईमानदार तो हम तभी बनते हैं जब रिटर्न भरते समय भगवान से कहते हैं– हे प्रभु, जो बताया है वही कमाया है।”
बाजू वाले त्रिपाठी जी रोज कहते हैं– “हमें नींद नहीं आती।” मैं समझा– “चिंता है आपको?” बोले– “नहीं, इनकम टैक्स वाले सपनों में आ जाते हैं। एक बार तो सपने में रिटर्न भरते-भरते सुबह हो गई।” मैंने पूछा– “सर, तबियत कैसी रहती है?” बोले– “दिल से तो स्वस्थ हैं, लेकिन जेब से बहुत कमजोर हैं। डॉक्टर ने कहा– हार्ट बीपी सब ठीक है, पर जेब की अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट में साफ दिख रहा है– टैक्स का कैंसर।” अब भला बताइए, टैक्स अगर कैंसर हो जाए तो इलाज कौन करेगा? देश में जितने अस्पताल हैं, वो भी टैक्स से ही बनते हैं। और जो डॉक्टर हैं, वे खुद टैक्स की दवा लेने विदेश जाते हैं।
मेरे एक दोस्त ने घर में नया टीवी लिया। टीवी देखकर माँ बोली– “अब क्या मोदी जी का भाषण ही देखोगे या इनकम टैक्स का नोटिस भी स्क्रीन पर आएगा?” मैंने कहा– “टीवी नहीं, टैक्स का ट्रॉमा सेंटर है ये।” दो दिन बाद फ्रिज लिया, तो फ्रिज के अंदर भी सरकार बैठी मिली– बोतल में जीएसटी, डिब्बे में सेस। सब्जीवालों ने भी चिल्लाना शुरू कर दिया– “भैया, आलू तो 20 रुपये किलो है, पर अगर डिजिटल पेमेंट करोगे तो सीजीएसटी+एसजीएसटी लगेगा।” और दुकानदार बोले– “प्याज तो फ्री है, पर आंसुओं का इन्वॉइस हम नहीं बनाते।”
कभी-कभी सोचता हूँ, टैक्स की बीमारी हो ही जाए तो अच्छा है। कम से कम लोगों की नज़रों में इज़्ज़त तो होगी। जैसे किसी ने पूछा– “आप क्या करते हैं?” तो उत्तर हो– “टैक्स भरते हैं।” फिर वो सामने वाला खुद उठकर पानी लाएगा– “बैठिए न सर, आप तो देश के विकास के स्रोत हैं।” और कभी मरें भी तो यही शोक-संदेश जाए– “दुःखद है कि फलाँ व्यक्ति जिनकी वार्षिक आय पर सरकार निर्भर थी, अब टैक्स भरने के लायक नहीं रहे।” जब चंदा माँगते हैं तो यही सुनने को मिलता है– “हम टैक्स दे-देकर थक चुके हैं।” जैसे यह कोई तपस्या है और वे अब मोक्ष की ओर अग्रसर हैं।
आज की रात फिर वही चिंता– बिजली का बिल, मोबाइल की रिचार्ज डेट, और दाल के दाम। मन करता है उन टैक्स वालों के पैरों में पड़ जाऊँ– “भैया, एक आध किश्त हमारी ओर से भी भर दो।” मगर नहीं, इस देश में टैक्स सिर्फ उन्हीं को लगता है, जिन्हें बीमारी पसंद है। जिन्हें अपना दुख दिखाना अच्छा लगता है। हम तो बस चंदा माँगते हैं और तिरस्कार पाते हैं। टैक्स वालों के दुख में सहभागी बनने की हमारी औकात ही कहाँ? एक दिन सचमुच मेरी आत्मा बोल उठी– “हे प्रभु, मुझे भी वह रोग दे दो जिससे लोग मरते नहीं, मगर गर्व से जीते हैं– टैक्स की बीमारी।” पर उत्तर आया– “बेटा, उसके लिए प्रापर्टी चाहिए, तुझ जैसे के लिए तो मुफ्त की हवा भी टैक्स लगाकर रोकी जा चुकी है।”
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
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