भारत 1992 के अयोध्या विध्वंस के बाद आगे बढ़ चुका है: हिन्दू संगठनों ने SC से कहा

अयोध्या में विवादित स्थल को लेकर कानून लड़ाई लड़ रहे हिन्दू संगठनों ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद सिर्फ ‘संपत्ति विवाद’ है
नयी दिल्ली। अयोध्या में विवादित स्थल को लेकर कानून लड़ाई लड़ रहे हिन्दू संगठनों ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद सिर्फ ‘संपत्ति विवाद’ है और इसे वृहद पीठ को नहीं सौंपा जाना चाहिए। शीर्ष अदालत से इन संगठनों ने कहा कि इस मामले को वृहद पीठ को सौंपने के लिये ‘राजनीतिक या धार्मिक संवेदनशीलता’ का मुद्दा इसका आधार नहीं हो सकता और 1992 में हुये विध्वंस के बाद भारत आगे बढ़ चुका है।
प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की तीन सदस्यीय विशेष खंडपीठ से मूल वादकारी गोपाल सिंह विशारद की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने कहा कि इस मामले को वृहद पीठ को सौंपने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि तीन सदस्यीय पीठ इस पर पहले से ही विचार कर रही है। विशारद उन लोगों में शामिल थे जिन्होंने 1950 में दीवानी मुकदमा दायर किया था।
साल्वे ने कहा, ‘1992 की घटना के बाद से देश आगे बढ़ चुका है और आज हमारे सामने शुद्ध रूप से भूमि विवाद का मुद्दा ही है। न्यायलाय को उसके समक्ष उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही निर्णय करना होगा। इसका फैसला कानून के अनुरूप ही करना होगा।’ उन्होंने याचिकाकर्ता एम सिद्दीक की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन और राजू रामचन्द्रन द्वारा इसे संवेदनशील मुद्दे के रूप में पेश करने के तरीके पर सवाल उठाये।
गोपाल सिंह विशारद और एम सिद्दीक दोनों ही राम जन्म भूमि - बाबरी मस्जिद मामले में मूल मुद्दई थे ओर दोनों का ही निधन हो चुका है तथा अब उनके कानूनी वारिस उनका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। रामचन्द्रन ने कहा था कि इसके महत्व को देखते हुये इसे वृहद पीठ को सौंप देना चाहिए। उन्होंने कहा था कि सिर्फ कानूनी सवाल की वजह से नहीं बल्कि देश के सामाजिक ताने बाने पर इसके व्यापक असर की वजह से ही उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने इस पर विचार किया था।
इससे पहले, शीर्ष अदालत ने कहा था कि वह इस पर फैसला करेगी कि क्या अयोध्या में विवादित भूमि के अधिग्रहण के मामले में 1994 का पूरा फैसला या इसका एक हिस्सा पुनर्विचार के लिये वृहद पीठ को सौंपा जाये। हालांकि साल्वे ने कहा कि राजनीतिक दृष्टि, धार्मिक दृष्टि से संवेदनशील होने जैसे तथ्यों को न्यायालय के कक्ष से बाहर रखा जाना चाहिए। उन्होने कहा कि यह मालिकाना हक का विवाद है जिसका फैसला इस आधार पर होना चाहिए कि संपत्ति ‘ए’ की है या ‘बी’ की।
शीर्ष अदलात की पंरपराओं का जिक्र करते हुये उन्होंने कहा कि यदि उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ कोई फैसला देती है तो उसके खिलाफ अपील पर उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ही फैसला करती है। साल्वे ने तीन तलाक मामले का भी जिक्र किया जिसकी पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनवाई की थी और कहा कि वृहद पीठ ने इस मामले में निर्णय किया क्योंकि यह लिंग न्याय के महत्वपूर्ण पहलू से संबंधित था।
धवन और रामचन्द्रन के दृष्टिकोण पर सवाल उठाते हुये साल्वे ने कहा कि पांच या सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंपे गये मामलों में बहुत ही गंभीर सवाल उठाये गये थे। राम लला विराजमान की ओर से पूर्व अटार्नी जनरल और वरिष्ठ अधिवक्ता के. पराशरण ने साल्वे की दलीलों का समर्थन किया और कहा कि इस मामले की सुनवाई सिर्फ तीन सदस्यीय पीठ को ही करनी चाहिए।
उन्होंने भी कहा कि न्यायालय को इसे पांच न्यायाधीशों की पीठ को नहीं भेजना चाहिए क्योंकि एक बार फिर अनेक साक्ष्य और दस्तावेजों की जांच करनी होगी और वृहद पीठ को यह नहीं करना चाहिए क्योंकि यह संपत्ति विवाद है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 30 सितंबर, 2010 के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर आज सुनवाई अधूरी रही। अब इस मामले में 15 मई को आगे सुनवाई होगी।
प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली इस तीन सदस्यीय खंडपीठ के पास चार दीवानी वादों में उच्च न्यायालय के बहुमत के फैसले के खिलाफ 14 अपीलें विचारार्थ लंबित हैं। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में विवादित 2.77 एकड़ भूमि को तीन बराबर हिस्सों में सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बांटने का आदेश दिया था।
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