पहले फारूक और अब उमर हुए 'आजाद', रिहा हो भी गए तो अब करेंगे क्या?

jammu and kashmir
अभिनय आकाश । Mar 24 2020 12:37PM

नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला 13 मार्च को नजरबंदी से रिहा हुए थे और उसके 11 दिन बाद उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला की रिहाई जम्मू-कश्मीर के हालात के हिसाब से बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। सूबे के सियासी हालात में सुधार की दिशा में ये रिहाई एक अहम कड़ी साबित हो सकती है।

मंगलवार की सुबह को देश में जब कोरान संकट पर 548 जिलों के लाॅकडाउन कि गए हैं। ऐसे में दो खबर की सुर्खियों में दो घटनाएं भी शामिल हैं। एक है आज रात 8 बजे कोरोना महामारी पर प्रधानमंत्री का दूसरी बार राष्ट्र के नाम संबोधन और दूसरी है उमर अब्दुल्ला की रिहाई। 

नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला 13 मार्च को नजरबंदी से रिहा हुए थे और उसके 11 दिन बाद उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला की रिहाई जम्मू-कश्मीर के हालात के हिसाब से बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। सूबे के सियासी हालात में सुधार की दिशा में ये रिहाई एक अहम कड़ी साबित हो सकती है। 

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रिहाई कैसे और क्यों?

अब्दुल्ला को रिहा करने के लिए दबाव भी बढ़ रहा था औऱ विपक्ष ने जम्मू-कश्मीर के सभी नेताओं खासकर नजरबंद किए गए घाटी के बड़े नेताओं को तुरंत रिहा करने की मांग की। गौर करने वाली बात होगी कि इससे पहले फारुक अब्दुल्ला को नवगठित ‘अपनी पार्टी’ की घोषणा के फौरन बाद रिहा किया गया, जिसके बाद आने वाले दिनों में राजनैतिक घटनाएं नया मोड़ ले सकती हैं। राजनीतिक जानकारों की माने तो अपनी पार्टी का गठन फारुकअब्दुल्ला, उमर और महबूबा को राजनीति में वापस लाने की योजना का हिस्सा है। ऐसी किसी पार्टी के अभाव में सामान्य राजनैतिक प्रक्रिया शुरू करना मुश्किल होता। बता दें कि जम्मू-कश्मीर में  बीते दिनों 8 मार्च को एक नई पार्टी का जन्म हुआ है। इसमें पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और नेशनल कॉन्फ्रेंस (नेकां) के नेता शामिल हुए हैं।

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जम्मू कश्मीर के पूर्व वित्त मंत्री अल्ताफ बुखारी ने के नेतृत्व में इस दल का नाम ‘जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी’ रखा गया। पार्टी के गठन के बाद ही बीजेपी ने इसका स्वागत किया था। जेकएपी के गठन का बीजेपी ने स्वागत किया है। बीजेपी ने इसे बहुत अच्छा कदम बताते हुए कहा था कि इससे कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियों को जारी रखने में मदद मिलेगी। इसके अलावा मामला सुप्रीम कोर्ट में भी चल रहा था। उमर की बहन सारा अब्दुल्ला पायलट ने सुप्रीम कोर्ट में उनकी नजरबंदी के खिलाफ याचिका दायर की थी।  सुनवाई के दौरान, पायलट ने बताया था कि जम्मू कश्मीर प्रशासन के पास अब्दुल्ला को हिरासत में लेने का कोई वास्तविक आधार नहीं था। हालांकि एक अलग धड़े का ये भी मानना है कि अब्दुल्ला पिता-पुत्र कि रिहाई अंतरराष्ट्रीय दवाब की वजह से हुई है। दोनों की रिहाई में अमेरिकी कांग्रेस के हाल के उस प्रस्ताव ने अहम भूमिका निभाई, जिसमें कश्मीर में नजरबंदी खत्म करने को कहा गया था। हालांकि इसकी संभावना को कई जानकार खारिज भी करते हैं कि महज विदेशी दबाव ने सरकार को मजबूर कर दिया। सरकार का अगला कदम इस पर निर्भर करेगा कि अब्दुल्ला कौन-सा रास्ता अपनाते हैं।”

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महबूबा मुफ्ती की रिहाई पर फैसला कब

फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला की रिहाई हो चुकी है। लेकिन महबूबा मुफ्ती की रिहाई पर फैसला अभी नहीं लिया गया है और अभी भी वो पीएसए एक्ट के तहत नजरबंद हैं।  उमर की रिहाई के बाद महबूबा मुफ्ती की बेटी ने ट्वीट करते हुए लिखा कि ऐसा लगता है कि सरकार महिलाओं से सबसे ज्यादा डरती है (क्योंकि उसकी मां अभी तक रिहा नहीं हुई हैं)।

फारुक औऱ उमर तो रिहा हो गए लेकन महबूबा के अभी तक नजरबंद होने की एक बड़ी वजह ये भी है कि सरकार उन्हीं लीडर्स को रिहा कर रही है जिनसे चाहे बात हो रही हो और जिनसे सहयोग मांग रही है। परिस्थितियों को सामान्य करने में अपना सहयोग दें। ये एक पहल है क्योंकि भारत की ऊपर कई तरह के आरोप लग रहे थे और कई देश कह रहे थे कि जम्मू कश्मीर के कुछ नेताओं को भारत ने नजरबंद किया हुआ है। मामला सुप्रीम कोर्ट में था तो जाहिर है अब एक-एक करके सारे बड़े नेता रिहा हो रहे हैं और अब कुछ ही नेता पीएसए के तहत बंद हैं। सरकार ने कुछ दिनों पहले बताया था कि जम्मू-कश्मीर में 451 लोगों को हिरासत में लिए गए और उनमें 396 पर PSA के तहत केस दर्ज हैं। इनमें जो शरारती तत्व हैं और कुछ राजनेता हैं दोनों इसमें शामिल हैं। महबूबा मुफ्ती के अलावा IAS अफसर रहे शाह फैसल भी शामिल हैं जिन पर PSA लगाया गया है। जहां तक बात महबूबा मुफ्ती की है तो कई बार लगातार उनके ट्वीटर से कई ट्वीट किए गए हैं जो कुछ भड़काऊ से रहे हैं। सरकार कोशिश में है कि ऐसे वक्त में कोई ऐसे बयान न हो जो आम कश्मीरियों को भड़काने का काम करे। 

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उमर अब्दुल्ला रिहा हो गए तो अब करेंगे क्या?

घाटी के नजरबंद नेताओं के लिए रिहाई भी किसी सजा से कम नहीं होगी। रिहा होने के बाद यदि वे कोई आंदोलन खड़ा भी करना चाहें तो उनका साथ कौन देगा? दरअसल, धर्मसंकट की स्थिति अब्दुल्ला परिवार के साथ सबसे ज्यादा है। धर्मसंकट के अलावा विश्वसनीयता भी एक बड़ा सवाल है। 1953 में जवाहरलाल नेहरू की मदद से जम्मू-कश्मीर राज्य के वजीर-ए-आजम की कुर्सी पर बैठने वाले शेख अब्दुल्ला इन्हीं उमर अब्दुल्ला के दादा और फारुख अब्दुल्ला के पिता ही तो थे, जिन्हें देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर 11 साल जेल में रखा गया। नेहरू के जमाने में कैद हुए शेख अब्दुल्ला इंदिरा गांधी के जमाने में रिहा हुए। लेकिन बदले में जम्मू-कश्मीर से वजीर-ए-आजम का पद और अलग झंडा छीन लिया गया। इस निजी और राजनैतिक आघात को भूलकर अब्दुल्ला परिवार 2008 में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके राज्य की सत्ता तक पहुंचा और 2009 का लोकसभा चुनाव भी कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा, और यूपीए का हिस्सा बना।

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राज्य का पॉलिटिकल क्लास हो या घाटी का पॉलिटिकल क्लास, या फिरअलगावादी हों वो हमेशा से ‘सत्ता’ के आदी रहे हैं। उनका रिश्ता केंद्र के साथ लव-हेट का रहा है। मोदी सरकार के आने के बाद अलगाववादियों की दुकान तो लगभग बंद ही हो गई थी और धारा 370 के खात्मे ने ताबूत में आखिरी कील का काम किया। अब तो सूरते-हाल ये है कि मुख्यधारा के नेता भी अलगाववादी जैसे नजर आने लगे। ऐसे में यदि इन नेताओं को दोबारा मुख्यधारा में आना है तो श्रीनगर को दिल्ली से बीजेपी की टनल के जरिए ही जोड़ना होगा। बहरहाल, अब जबकि फारुक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला को रिहा कर दिया गया है, देर-सबेर बाकी नेताओं की भी बारी आनी ही है। 

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