अमरनाथ नहीं तो मणिमहेश चलो

Mani Mahesh

हिमाचल प्रदेश के चंबा नगर से से मात्र 85 किलो मीटर की दूरी पर बसा है मणीमहेश, जिसमें पठानकोट से हड़सर तक बस योग्य सडक़ है आगे की करीब 14 किलो मीटर की यात्रा पैदल तय करनी पड़ती है । चंबा को शिव भूमि के नाम से जाना जाता है, भगवान शिव इन्हीं पहाड़ों में निवास करते हैं ऐसी मान्यता हैं जिनके लिए बहुत सी कहानियां कही जाती हैं

शिमला । हिमाचल प्रदेश के चंबा  नगर से से मात्र 85 किलो मीटर की दूरी पर बसा है मणीमहेश, जिसमें पठानकोट से हड़सर तक बस योग्य सडक़ है आगे की करीब 14 किलो मीटर की यात्रा पैदल तय करनी पड़ती है । चंबा को शिव भूमि के नाम से जाना जाता है, भगवान शिव इन्हीं पहाड़ों में निवास करते हैं ऐसी मान्यता हैं जिनके लिए बहुत सी कहानियां कही जाती हैं मणिमहेश की यात्रा कब आरंभ हुई क्यों आरंभ हुई इसके लिए बहुत सी किवदंतियां प्रचलित हैं ।  

भगवान शिव ने लोगों को किसी न किसी रूप में दर्शन तक दिये हैं इस के उदाहरण चंबा में दिये जाते हैं । मणिमहेश यात्रा के बारे में कहा जाता है कि भरमौर बसने से पहले ही यहां पर लोग आते जाते थे मान्यता क्षेत्र को नहीं मिली थी भरमौर में एक बार चौरासी सिद्ध घुमते घुमते आ गये थे जिन्होंने भरमौर में एक स्थान पर रूक कर अपने धूने जला दिये थे यह स्थान ब्रहामाणी नामक तपस्वी का था जो उस समय कहीं बाहर गई हुई थी जैसे ही उसे अपने क्षेत्र से धुआं उठता दिखा वो घबरा गई और भागी भागी आई वहां पर देखा तो योगी लोग अपनी अपनी पूजा में बैठे थे ऐसे में उसने अपनी शक्ति से देखा कि कौन लोग हैं ? वो हैरान हो गई उसने कहा जाता है कि भगवान शिव से प्रार्थना की कि उसकी मान्यता जो क्षेत्र में है समाप्त हो जायेगी ।  तो भगवान शिव ने उसे आशीर्वाद दिया था, कि बिना तेरे दर्शन करे जो लोग आगे जाएँगे, व चौरासी में तेरे दर्शनों बिना पूज़ा अर्चना करेंगे उनकी पूजा निष्फल जायेगी  कहा जाता है कि तब से ब्रहामाणी देवी भरमौर चौरासी से दो किलोमीटर ऊपर रहती है   जहां लोग जाते हैं दर्शन करते हैं उसके बाद ही आगे की यात्रा करते हैं ।

उसके बाद लोग आकर चौरासी में मणिमहेश मंदिर के बाहर अपनी पारम्परिक वेशभूषा में बैठे चेलों से आर्शीवाद प्राप्त करते हैं व आगे की यात्रा के लिए तैयार हो जाते हैं  भरमौर में सातवीं शताब्दी में बने मंदिर हैं जहां के दर्शनों से ही मनुष्य के पाप धुल जाते हैं । भरमौर से आगे की यात्रा बहुत ही आनंददायक हैं चारों और उंचे उंचे पहाड़ों के बीच से होकर जाना पड़ता है हर मोड़ पर ऐसा लगता है कि इसके आगे रास्ता बंद है ऐसा करते करते यात्री गांव हड़सर में पंहुच जाता है  गांव हड़सर  जो ब्राह्मणों का गांव है वहां पर एक प्राचीन शिव मंदिर है ब्रहामाणी देवी मंदिर के कुंड में स्नान करने के बाद हड़सर में स्नान करने का रिवाज है यहां पर मणिमहेश से आने वाले पानी से स्नान किया जाता है ।

 देखा जाये तो वास्तविक यात्रा यहीं से आरंभ होती है पैदल, आपको यहां पर घोड़े मिल जाते हैं, यहां पर कांगड़ा जिला के एक गांव के लोगों द्वारा छडिय़ों का प्रबंध किया जाता है आगे जाने वाले  छडिय़ों को लेकर चल सकते हैं ।   पहले यात्रा तीन चरणों में होती थी   पहली यात्रा रक्षा बंधन पर होती थी, इसमें साधु संत जाते थे, योगी जाते रहे हैं । दूसरे चरण भगवान श्री कृष्ण जन्माष्मी के अवसर पर किया जाता था जिसमें जम्मू काशमीर के भद्रवाह , भलेस के लोग यात्रा करते थे, जो सैंकड़ों किलो मीटर की यात्रा पैदल ही अपने बच्चों सहित करते थे, अब भी करते हैं ।

तीसरा चरण दूर्वा अष्टमी या राधा अष्टमी को किया जाता है जिसे राजाओं के समय से मान्यता प्राप्त है अब प्रदेष सरकार ने भी इसे ही मान्यता प्रदान की है । मणिमहेश कैलाश की उंचाई  18654 फुट की है जबकि मणिमहेश झील की ऊंचाई 13200 फुट की है लोग मणिमहेश झील में स्नान करने के बाद अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार कैलाश पर्वत को देखते हुए नारियल व अन्य सामान अर्पित करते हैं झील के किनारे बने मंदिर में भी सामान चढ़ाते हैं । झील में स्नान करने का नियम पहले रहता था, कि पर्वी का समय निर्धारित किया जाता था जो प्राचीन विद्वान चेले व पंडित करते थे, महाकाली के डल झील में चेले सबसे पहले कुद कर उसे तोड़ा करते थे, कुछ लोग उसी समय स्नान कर लिया करते थे जबकि दूसरे सुबह सवेरे पर्वी के समय में स्नान करते थे झील में अचानक पानी बढ़ जाता है । उसे ही शाही स्नान कहा जाता है ।

 गांव हड़सर से चलने के बाद यात्रियों को एक स्नान धनछो जल प्रपात में करना चाहिये इसकी कहानी कही जाती है कि जब भस्मासूर भगवान को षिव के सिर पर हाथ रख कर उन्हें भस्म करने के लिए प्रयास कर रहा था उस समय भगवान षिव इस जल प्रपात के अंदर छिप गये थे । व लंबा समय तक वहीं पर रहे लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि ऊपर से पानी के तेज बहाव के साथ पत्थर भी गिरते रहते हैं इसलिए पानी की फुहारों से ही स्नान करें आगे कदापि न जायें ।

 धनछो के आगे दो रास्ते हो जाते हैं बांदर घाटी व भैरो घाटी दोनों ही पर अब चलना आसान हो चुका है लोक निर्माण विभाग ने दोनों ही रास्तों की मुरम्मत करवा दी है ।  इन रास्तों पर कुछ दूर चलने के बाद हवा में आक्सीजन की कमी होनी आरंभ हो जाती है । कमजोर लोगों को बीमार लोगों को इस कारण से उल्टियॉं आने लगती हैं । कईयों को सिर दर्द आरंभ हो जाता है व कुद लोगों को डायरिया का षिकार होना पड़ता है ।  इन बातों से यात्रियों को घबराना नहीं चाहिये आगे डाक्टरों ने सारे प्रबंध कर रखे हैं वहां जाकर आराम करें आक्सीजन सिलेंडर से सांस लें कर अपने आप को तरोताजा कर अगली यात्रा आरंभ करें । इस चढ़ाई में भीम का घराट आता है, चरपट नाथ की कुडड यानी गुफा आती है , बर्फ का ग्लेशियर भी आता है । फिर आता है गौरीकुंड चढ़ाई समाप्त हो जाती है । गौरीकुंड में महिलाएं स्नान करती हैं। गौरी कुंड के बाद षिवकलौत्री नामक स्थान आता है सीधे कैलाश से पानी निकल कर आता है यहां पर भी स्नान करने का विधान है । पानी बर्फ की तरह ठंडा होता है फिर भी श्रद्धालु स्नान करते हैं । गौरी कुंड के बाद पाप पुण्य का पुल आता है अब नहीं है लोक निर्माण विभाग ने नये पुल का निर्माण कर दिया है ; गौरीकुंड से लेकर आगे तक बहुत से लंगर लगे होते हैं यहां पर हजारों यात्रियों के ठहरने का प्रबंध भी रहता है । इसके आगे एक आध घंटे की यात्रा कर यात्री ऊपर मणिमहेश झील पर पहुंच जाते हैं ।

हिमाचल पर्यटन विभाग ने यात्रियों के ठहरने के लिए टेंट लगाने होते हैं कुछ दूरी पर हेलीकॉप्टर के आने जाने का क्रम भी लगा रहता है । बहुत ही सुंदर प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर नजारा देखने को मिलता है। जब यात्री मुख्य झील पर पहुंचते हैं तो वहां का नजारा देखने वाला होता है हर तरफ लोग भगवान शिव के भजनों को गा रहे हैं नाचते हैं अपने अपने सिानों से आये देवी देवताओं के गुर चेले तरह तरह के फरमान जारी करते हैं सब लोगों का ध्यान सामने की चोटी पर ही लगा रहता है कारण वहां पर सारा दिन रात बादल छाये रहते हैं ऐसे में जरा सा ही समय तो मिलता है मौसम साफ होने पर दर्शन करने का । जैसे ही बादल छंटते हैं सारा आकाश व धरती भगवान षिव के विभिन्न नारों से गूंज़ उठती है। इस स्थान पर अब बहुत से लंगर व दुकानें सज़ जाती हैं । हर प्रकार का सामान मिल जाता है।   एक तरफ लोग बकरों की बलि दे रहे होते हैं दूसरी तरफ श्रद्धालु अपनी मन्नतों को पूरा करने में जुटे होते हैं वहीं कुछ डल में स्नान कर रहे हैं । बहुत ही आनंददायक द2ष्य देखने को मिलता है ।  चेलों का जोश भी देखने योग्य होता है उन्हें भी इस बात का ज्ञान रहता है कि जो आज कर लिया सो कर लिया बारी एक वर्ष के बाद ही आयेगी - वो भी अपनी सारी शक्तियों को लगा देते हैं। मणिमहेश कैलाश जब पूरी तरह से दिखता है तो उसमें कुछ चिन्ह दिखाई देते हैं जिनके बारे में अलग अलग कहानियां कहीं जाती हैं एक गडरिया अपनी भेड़ बकरियों के साथ ऊपर जाने का प्रयास करता है वहीं पत्थर हो जाता है । एक नाग को बताया जाता है । 1980 के दशक में जापान के आये ट्रैक्टरों के दल ने कैलाश पर जाने का प्रयास किया था उनके ऊपर पत्थर गिरने लगे वो भी आधे ही रास्ते से वापिस लौट आये थे । मणिमहेश कैलाश की परिक्रमा भी कुछ अत्यंत ही साहसी लोग करते हैं जो लंबा दो दिन का थकान भरा है बाया कुगती होकर इस कैलाश के पीछे से होकर श्रद्धालु आते हैं लेकिन बहुत ही खतरनाक रास्ता है । वापसी में कुछ यात्री कमल कुंड भी जाते हैं जो 16000 फुट की उंचाई पर स्थित है ।

मणिमहेश यात्रा का आयोजन इस बार भी कोविड संक्रमण के दृष्टिगत रस्मी तौर पर ही होगा  29 अगस्त से 12 सितंबर तक आयोजित होने वाली श्री मणिमहेश यात्रा के दौरान धार्मिक रस्मो का निर्वहन सीमित रूप में ही होगा ।

इस दौरान छड़ी यात्रा में 25 सदस्यों से ज्यादा लोग शामिल नहीं हो पाएंगे । सचुँई के शिव चेलों की संख्या भी सीमित रूप में ही रहेगी

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