कभी रहा शिवसेना का गढ़, आज है AIMIM का मजबूत किला, दिलचस्प हुआ औरंगाबाद का सियासी खेल, उद्धव और शिंदे में आमने-सामने की लड़ाई

Aurangabad
Prabhasakshi
अभिनय आकाश । Apr 29 2024 1:42PM

औरंगाबाद का नाम बदलकर छत्रपति संभाजीनगर किए जाने के बाद इस सीट पर 13 मई को होने वाला पहला लोकसभा चुनाव होगा। सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील इस शहर में शिवसेना के दोनों धड़े चाहे नो सत्तारूढ़ गठबंधन के साथ वाला शिंदे गुट हो या महाविकास अघाड़ी (एमवीए) के साथ वाली उद्धव सेना दोनों ही नाम बदलने की क्रेडिट वाली लड़ाई में शामिल है।

औरंगाबाद का निर्माण 1610 में निजामशाही वंश के मलिक अंबर ने करवाया था। मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसका नाम बदलकर औरंगाबाद कर दिया जब उन्होंने इसे अपनी राजधानी बनाया। शिवसेना के दो प्रतिद्वंद्वी गुट राजनीतिक रूप से बढ़त बनाने की लड़ाई में फंस गए हैं और एआईएमआईएम सीट बरकरार रखने की कोशिश कर रही है। ऐसे में औरंगाबाद लोकसभा चुनाव में दिलचस्प मुकाबला होने जा रहा है। ऐसा राज्य जिसने पिछले पांच वर्षों में काफी राजनीतिक उथल-पुथल देखी है। औरंगाबाद का नाम बदलकर छत्रपति संभाजीनगर किए जाने के बाद इस सीट पर 13 मई को होने वाला पहला लोकसभा चुनाव होगा। सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील इस शहर में शिवसेना के दोनों धड़े चाहे नो सत्तारूढ़ गठबंधन के साथ वाला शिंदे गुट हो या महाविकास अघाड़ी (एमवीए) के साथ वाली उद्धव सेना दोनों ही नाम बदलने की क्रेडिट वाली लड़ाई में शामिल है। संभाजीनगर लोकसभा सीट पर कांग्रेस और एनसीपी (शरदचंद्र पवार) की सहयोगी सेना (यूबीटी) ने चार बार के सांसद चंद्रकांत खैरे पर भरोसा जताया है। खैरे 2019 में एआईएमआईएम के इम्तियाज जलील से सिर्फ 4,492 वोटों से हार गए थे। शिंदे सेना ने कैबिनेट मंत्री संदीपनराव भूमरे को मैदान में उतारा है, जो पैठण से विधायक हैं। पैठण पड़ोसी जालना जिले में पड़ता है।

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मराठा वोट किस ओर जाएगा? 

औरंगाबाद हवाई अड्डे के बाहर एक फूड स्टॉल चलाने वाली सुजाता बिराद का मानना है कि हर कोई भ्रमित है। इतनी सारी पार्टियाँ और उम्मीदवार हैं और कोई गारंटी नहीं है कि बाद में कौन किसके साथ रहेगा। स्टॉल पर ब्रेड पकोड़ा खा रहे गजानन लांडगे ने अंग्रेजी बेवसाइट इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए कहा कि मराठवाड़ा में इस चुनाव के एक और सत्य की ओर इशारा करते हैं। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि मराठा और ओबीसी किस तरह वोट करते हैं। मराठा आरक्षण विरोध, राज्य सरकार की उन्हें रियायत और ओबीसी को कोटा लाभ में अपना हिस्सा खोने का डर है, जिससे दोनों समुदायों के बीच दरार पैदा हो गई है, जो मराठवाड़ा क्षेत्र में एक प्रमुख मुद्दा होने की उम्मीद है।

उद्धव को मिलेगा सहानभूति का फायदा?

एआईएमआईएम के लिए यह एक प्रतिष्ठा की लड़ाई है। औरंगाबाद सीट हैदराबाद के बाहर उसकी पहली चुनावी जीत में से एक रही है। वहीं इस सीट पर दोनों सेनाओं (उद्धव-शिंदे) के लिए भी बहुत कुछ दांव पर है। मुंबई के बाहर बाल ठाकरे के पैर जमाने वाले क्षेत्र में शिवसेना विभाजन के बाद संबंधित गुटों की पहली चुनावी परीक्षा है। शिंदे सेना के उम्मीदवार भुमरे की शुरुआत इस नुकसान से हुई कि उन्हें औरंगाबाद से नहीं होने के कारण बाहरी व्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। इसके अलावा, माना जाता है कि राज्य के अन्य हिस्सों की तरह, यहां भी जमीन पर मौजूद सेना कार्यकर्ता या सैनिक उद्धव ठाकरे के साथ हैं। शिंदे द्वारा उद्धव के पिता बाल ठाकरे द्वारा स्थापित पार्टी को विभाजित करने और सेना के 56 में से 40 विधायकों और 19 में से 13 सांसदों के साथ चले जाने के प्रति सहानुभूति है।

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शिंदे ने लगाया जोर

खैरे वादा कर रहे हैं कि अगर वह जीते तो बड़े उद्योग लाएंगे और रोजगार पैदा करेंगे। औरंगाबाद के महत्व को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने भाजपा के साथ बातचीत में सीट पाने के लिए लंबी और कड़ी मेहनत की। अब उन्होंने नामांकन दाखिल करने के दिन यहां एक रैली को संबोधित करते हुए शिंदे ने आरक्षण मुद्दे पर अपनी सरकार के प्रति मराठों के गुस्से को शांत करने के लिए भूमरे के लिए समर्थन जुटाने के लिए मराठा नेता विनोद पाटिल से भी मुलाकात की। संयोगवश, पाटिल औरंगाबाद लोकसभा सीट के लिए महायुति का टिकट पाने के इच्छुक थे।

ओवैसी की पार्टी क्या करेगी

एआईएमआईएम ओबीसी के भीतर दलित और पिछड़े वर्गों के समर्थन को बनाए रखने के लिए भी कड़ी मेहनत कर रही है। ये वोट उसे पिछली बार प्रकाश अंबेडकर के विकास बहुजन अगाड़ी (वीबीए) के साथ गठबंधन के कारण मिला था। इस बार दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं, साथ ही वीबीए की एमवीए के साथ गठजोड़ की योजना भी विफल हो रही है। शहर के क्रांति चौक पर एक निजी कंपनी में काम करने वाले विश्वजीत मस्के कहते हैं कि उन्हें डर है कि वोट अंततः सांप्रदायिक आधार पर किया जाएगा।  दशकों से जल संकट से जूझ रहे हैं, स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्री लेकर बिना किसी काम के बेकार बैठे हैं। जब वोट देने की बात आती है, तो लोग अपनी जाति और समुदाय की ओर रुख करते हैं।

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