लॉकडाउन का एक माह गुजर गया, लोगों के मन में घर कर रही बेचैनी और चिंता
कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के प्रयास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से 24 मार्च शाम को देशव्यापी बंद की घोषणा के एक दिन बाद से भारत में लॉकडाउन लागू है।
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तीन मई तक बढ़ाए गए बंद की बेचैनी से कोई भी अछूता नहीं है, न तो शानदार कोठियों में रह रहे रईस कारोबारी, न घरों में बंद मध्यम वर्ग और न ही किराये के छोटे-छोटे घरों में दिहाड़ी मजदूर। भय की यह स्थिति भले ही सबके लिए सामान्य हो लेकिन इनके बीच की असमानताओं का फर्क भी तुरंत देखने को मिला। बंद लागू होते है जहां लाखों लोग अपने घरों में कैद रहने पर मजबूर हो गए वहीं प्रवासी और दिहा़ड़ी मजदूर जो अपने घरों से मीलों दूर फंसे हुए थे, उनका भविष्य अनिश्चितताओं में घिर गया जहां न उनके पास पैसा है, न खाना और न नौकरी। ज्यादातर मध्यम एवं ऊपरी वर्ग के परिवार अपने करीबियों के साथ इतना समय बिताने को एक चुनौती की तरह देख रहे हैं और कई उनके बिना अलग-थलग पड़े अवसाद झेल रहे हैं। जीवन के नये तरीके के अनुकूल ढलना - घरेलू सहायक-सहायिकाओं की मदद के बिना घर का सारा काम करना, घर से बाहर निकलने के लिए तैयार होने की जरूरत से मिली मुक्ति और दिन भर घर के अंदर रहना आम-खास सभी के जिंदगी का हिस्सा बन गया है।
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गुड़गांव के पारस अस्पताल की क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक प्रीति सिंह के मुताबिक, इस लॉकडाउन ने लोगों को जरूरत और इच्छाओं के बीच फर्क करना सिखाया है और उन्हें “अपनी जरूरतों को प्राथमिकता देने’’ में मदद की है। सिंह ने कहा, “इसने लोगों को एहसास कराया है कि कोई भी व्यक्ति अल्पतम जरूरतों के साथ और दुनिया में व्याप्त वस्तुवाद के बिना भी गुजारा कर सकता है।’’ बंद के इन दिनों को लोग जीवन भर याद रखेंगे और इसने सामजिक दूरी बनाए रखने की जरूरत के मद्देनजक सामाजिक संवाद, त्योहारों का जश्न और यहां तक कि शोक मनाने के नये तरीके भी सीखे हैं। कई लोगों ने माना कि यह उनकी ताकतों को फिर से आंकने और कई मामलों में छिपी हुई प्रतिभाओं को सामने लाने का भी अवसर है।
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