तिरंगा झंडा फहरा कर अंग्रेजों को चुनौती दी थी अरुणा ने
अरूणा आसफ अली ने अद्भुत कौशल का परिचय दिया और 9 अगस्त के दिन मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहराकर अंग्रेजों को देश छोड़ने की खुली चुनौती दे डाली।
महात्मा गांधी के आह्वान पर हुए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अरूणा आसफ अली ने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था। इतना ही नहीं जब सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो उन्होंने अद्भुत कौशल का परिचय दिया और 9 अगस्त के दिन मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहराकर अंग्रेजों को देश छोड़ने की खुली चुनौती दे डाली। भारत के स्वाधीनता संग्राम में महान योगदान देने वाली अरूणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) के कालका में हुआ था। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गईं और कोलकाता के गोखले मेमोरियल कालेज में अध्यापन कार्य करने लगीं। इतिहासकार डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार 1928 में स्वतंत्रता सेनानी आसफ अली से शादी करने के बाद अरूणा भी स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं। शादी के बाद उनका नाम अरूणा आसफ अली हो गया। सन 1931 में गांधी इरविन समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया गया लेकिन अरूणा आसफ अली को नहीं छोड़ा गया। इस पर महिला कैदियों ने उनकी रिहाई न होने तक जेल परिसर छोड़ने से इंकार कर दिया। माहौल बिगड़ते देख अंग्रेजों को अरूणा को भी रिहा करना पड़ा।
सन 1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखा गया। वहां उन्होंने राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले बुरे व्यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल की जिसके चलते गोरी हुकूमत को जेल के हालात सुधारने को मजबूर होना पड़ा। रिहाई के बाद राजनीतिक रूप से अरूणा ज्यादा सक्रिय नहीं रहीं लेकिन 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो वह आजादी की लड़ाई में एक नायिका के रूप में उभर कर सामने आईं। गांधी जी के आह्वान पर आठ अगस्त 1942 को कांग्रेस के मुम्बई सत्र में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआ। गोरी हुकूमत ने सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। ऐसे में अरूणा आसफ अली ने गजब की दिलेरी का परिचय दिया। 9 अगस्त 1942 को उन्होंने अंग्रेजों के सभी इंतजामों को धता बताते हुए मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहरा दिया। ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें पकड़वाने वाले को पांच हजार रुपए का इनाम देने की घोषणा की। वह जब बीमार पड़ गईं तो गांधी जी ने उन्हें एक पत्र लिखा कि वह समर्पण कर दें ताकि इनाम की राशि को हरिजनों के कल्याण के लिए इस्तेमाल किया जा सके। उन्होंने समर्पण करने से मना कर दिया। 1946 में गिरफ्तारी वारंट वापस लिए जाने के बाद वह लोगों के सामने आईं।
आजादी के बाद भी अरूणा ने राष्ट्र और समाज के कल्याण के लिए बहुत से काम किए। वर्ष 1958 में वह दिल्ली की प्रथम महापौर चुनी गईं। राष्ट्र निर्माण में जीवन पर्यन्त योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 1964 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार मिला। 29 जुलाई 1996 को उनका निधन हो गया। 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 1998 में उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया गया।
अरूणा आसफ अली की जीवनशैली काफी अलग थी। अपनी उम्र के आठवें दशक में भी उन्होंने सार्वजनिक परिवहन से सफर जारी रखा। कहा जाता है कि एक बार अरूणा दिल्ली में यात्रियों से ठसाठस भरी बस में सवार थीं। कोई सीट खाली नहीं थी। उसी बस में आधुनिक जीवनशैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक आदमी ने युवा महिला की नजरों में चढ़ने के लिए अपनी सीट उसे दे दी लेकिन उस महिला ने अपनी सीट अरूणा को दे दी। इस पर वह व्यक्ति बुरा मान गया और युवा महिला से कहा कि यह सीट मैंने आपके लिए खाली की थी बहन। इसके जवाब में अरूणा आसफ अली तुरंत बोलीं− मां को कभी न भूलो क्योंकि मां का हक बहन से पहले होता है। इस बात को सुनकर वह व्यक्ति काफी शर्मसार हो गया।
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