गुरु अर्जुन देव जी महाराज ने धर्म की रक्षा हेतु स्वयं को कुर्बान कर दिया था

guru arjan dev
सुखी भारती । May 26 2021 2:59PM

श्री गुरू अर्जुन देव जी को ‘यासा व सियासत’ कानून के तहत लोहे की गर्म तवी पर बिठाकर शहीद किया गया। इस कानून के अनुसार शहीद का खून बहाए बिना उसे अमानवीय यातनाएँ व कष्ट देकर शहीद किया जाता है।

शहादत की महान परंपरा पंजाब के इतिहास की शान रही है। पंजाब की धरती बेशुमार कुर्बानियों व शहीदियों की प्रत्यक्ष गवाह बनी है। इस धरती पर धर्म व सत्य की नींव पक्की करने हेतु महापुरुष जंज़ीरों में जकड़े गए, दुखियों मज़लूमों के अश्रु पोंछने के लिए आरों से चीरे गए, रंबियों से अपनी खोपडि़याँ उतरवा दीं। संक्षिप्त में कहे तो पंजाब का इतिहास अपनी गोद में, ऐसी अनेकों बेमिसाल गाथाओं को समेटे बैठा है। शहीद, शहीदी, शहादत शब्द आम तौर पर जुबानी या कलामी तौर पर उपयोग किए जाते हैं। शहीद शब्द अरबी भाषा से लिया गया है। जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘चशमदीद गवाह’ या ‘गवाही’। कभी न डोलने वाले गवाही या गवाह को ‘शाहद’ कहते हैं। अरबी, ऊर्दू व फारसी में शहीद के बारे में कई मुहावरे मिलते हैं, जैसे शहादत तलबीदन, शहादत रसीदन, कलमा-ए-शहादत, शहादत गाह, शहादत हजूरी इत्यादि। 

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अंग्रेजी भाषा का शब्द ‘मार्टर’ भी लैटिन एवं ग्रीक भाषा के ‘मार्टरस’ से निकला है, जिसका अर्थ होता है चशमदीद गवाह। भाव मैं अपनी गवाही, अपनी जान देकर खुद देता हूँ। ‘सूरत-अल-फातिहा’ के अनुसार शहीद वह बेगुनाह मानव या महापुरुष होता है, जो सत्य के रास्ते पर चलते हुए शहीद कर दिया जाता है। परंतु उल्लूओं का इकट्ठे होकर सूर्य का विरोध करने से उसे उदय होने से नहीं रोका जा सकता। हमारे विद्वजनों का भी कथन है कि शहीद की शहादत, कभी व्यर्थ नहीं जाती। अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन का कथन है-अगर आप जिंदा रहना चाहते हैं तो मरने की कला सीख, अगर तू अमन चाहता है तो लड़ाई के लिए तैयार हो जा, मृत्यु से जीवन व लड़ाई से ही अमन पैदा होता है। जब तक लड़ने वाला अपना सब कुछ कुर्बान करने को तैयार नहीं हो जाता, तब तक वो फतह हासिल नहीं कर सकता। 

सचमुच इन शहादतों ने हिंद के इतिहाास में कभी न मिटने वाला असर छोड़ा है। अगर हम गहराई से चिंतन करेंगे, तो पाएँगे कि कुर्बानियों की इस रीति के सिरताज कोई और नहीं अपितु श्री गुरू अर्जुन देव जी महाराज थे। जिन्होंने धर्म की रक्षा हेतु स्वयं को कुर्बान कर दिया। उस समय के कट्टर मुगल बादशाह जहाँगीर की ज़ालिम नीतियों ने श्री गुरू अर्जुन देव जी पर बेहद कहर बरपाया। बेशक दीवान चंदू व पृथी चंद का भी श्री गुरूदेव जी को शहीद करवाने में बड़ा हाथ था। परंतु ज्यादा दोष जहाँगीर का ही प्रकट होता है। क्योंकि संसार में गुरू घर की महिमा का प्रचार-प्रसार होता देख, जहाँगीर के अंदर ईर्ष्या की लपटें पैदा हो गईं थीं। जिनसे वो अंदर से बुरी तरह जल उठा। उसने अपने नापाक मनसूबे सिद्ध करने हेतु, एक महान व पवित्र आत्मा को शरेआम बेरहमी से शहीद किया। वो इस बात से अनभिज्ञ था, कि शहीद प्रत्येक कौम की अमूल्य धरोहर हुआ करते हैं। क्योंकि जब इस धरा की गोद में शहीदों का खून गिरता है तो कौमें और ज्यादा बलवान बनती हैं। और शहीद सदैव ही जिंदा रहते हैं। अज्ञानी व अहंकारी लोग सोचते हैं कि हमने उन्हें समाप्त कर दिया है। यद्यपि श्हादत अत्याचार के विरुद्ध एक लड़ाई है, यह अमानवीयता के खिलाफ सहनशीलता की जीत है। शहीदी किसी मजबूरी का नाम नहीं अपितु यह तो किसी के सिदक व सबूरी की परीक्षा होती है। ईश्वर के प्रति उसकी दृढ़ता की कसौटी की परख होती है। 

श्री गुरू अर्जुन देव जी को ‘यासा व सियासत’ कानून के तहत लोहे की गर्म तवी पर बिठाकर शहीद किया गया। इस कानून के अनुसार शहीद का खून बहाए बिना उसे अमानवीय यातनाएँ व कष्ट देकर शहीद किया जाता है। अहंकारी जालिमों द्वारा श्री गुरूदेव जी को तवी पर बिठाकर उसके नीचे भीषण अग्नि जलाई गई। जब उनके पावन शीश मंडल पर उबलती रेत डाली गई, तो उनके नाक से खून बह निकला। यह देख जालिमों ने उन्हें उबलते पानी की देग में बिठा दिया गया।

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जब सांई मियां मीर जी को इस दुखद घटना के बारे में पता चला तो वे गुरू जी के पास दौडे़ आए एवं कहने लगे कि मैं देख रहा हूँ कि धरती, आकाश व त्रिलोकी का नाथ तपती तवी पर बैठा है। सच्चे पातशाह मेरे पास जुल्म की यह इंहतिहा देखने की शक्ति नहीं है कि मेरा सर्व समर्थ पिता यह अमानवीय कष्ट सहन करे। आप मुझे एक बार आज्ञा दें, मैं दिल्ली व लाहौर की ईंट से ईंट बजा दूँगा। आप जैसी परम पवित्र आत्मा पर यह अत्याचार मैं नहीं सहार पाऊँगा। सच्चे पातशाह मेरा कलेजा फट रहा है, मेरा मन विद्रोही हो रहा है। 

गुरू जी ने सांई मियां मीर जी से कहा कि हे पुत्र! यह जलती हुई अग्नि मेरे हृदय को नहीं तपा सकती। प्रभु की रज़ा को मीठा कर मानने वाला हृदय बाह्य अग्नि से तप नहीं सकता। इनका कोई भी जुल्म परमात्मा की शक्ति से बड़ा नहीं हो सकता। और सांई जी फिर प्रेम का तो शर्त ही है-

जऊ तऊ प्रेम खेलण का चाऊ।।

सिरु धरि तली गली मेरी आओ।।

इतु मारगि पैरु धरीजै।। 

सिरु दीजै काणि न कीजै।।

सांई जी ने रोते हुए कहा-आप को यूं अमानवीय कष्ट देकर किस आदर्श की पूर्ति होती है? जिस दिव्य देह से आपने इस दीन-दुनिया का कल्याण करना है, उसकी इतनी बेअदबी क्यों? कृपया आप अपने सामर्थ्य से सृष्टि के नियमों को भंग कर दें। गुरूदेव! इन पापियों को सज़ा दें, या फिर हमें भी मृत्यु दे दो। हमसे आपकी यह हालत देखी नहीं जाएगी। हमें आप यह दृश्य दिखाकर आप कौन से कर्मों की सज़ा दे रहे हैं? 

गुरू जी ने सांई मियां मीर को समझाते हुए कहा-जिस प्रकार एक पौधे को कलम करने से ही वह बढ़ता फूलता है। इसी प्रकार से कुर्बानियों से ही कौमें बढ़ती फूलती हैं। पवित्र उद्देश्य के लिए की गई कुर्बानी कभी व्यर्थ नहीं जाती, यह अपना असर जरूर दिखाती है। एवं आप उस इंकलाब को अपनी आँखों से घटते अवश्य देखेंगे। शहादत अत्याचार के खिलाफ एक लड़ाई है, शहीदी किसी मजबूरी का नाम नहीं। अपितु इस समय इसकी महती आवश्यकता है। 

जब गुरू जी की दिव्य पावन देह आग से बुरी तरह झुलस गई तो उसे जालिम दरिंदों द्वारा रावी दरिया में स्नान हेतु भेजा गया। जहाँ पाँच दिनों तक गुरू जी पर, मानवता को शर्मसार करने वाले अमानवीय अत्याचार किए गए। छठे दिन गुरू जी का दिव्य शरीर रावी में ही अलोप हो गया। आगे चलकर श्री गुरू अर्जुन देव जी की इस शहीदी ने धर्म की नींव को पक्का कर दिया। वे इतने अमानवीय कष्ट सहकर भी तेरा कीया मीठा लागे पर दृढ रहे। वे सच्चे धर्म रक्षक, परोपकार इत्यादि दैविक गुणों से परिपूर्ण थे। आप जी महान लोक नायक हैं, आप जी द्वारा रचित वाणी दुख निवृति से लेकर आनंद प्राप्ति तक की यात्र करवाती है। आप जी का व्यक्तित्व एक ऐसा विशाल सागर है जिसका किनारा ढूंढना मुश्किल ही नहीं असंभव है। और भारत देश सदैव आप पर गर्व करता रहेगा।

- सुखी भारती

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