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पूरी दुनिया में मिसाल थी इंदिरा गांधी की दबंगता
- योगेश कुमार गोयल
- नवंबर 18, 2020 20:15
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इंदिरा गांधी में बचपन से ही एक अच्छी राजनेता होने के तमाम गुण विद्यमान थे। 21 वर्ष की आयु में वह कांग्रेस में शामिल होकर सक्रिय राजनीति में कूद पड़ी। उसके बाद उन्होंने आजादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
19 नवम्बर 1917 को पं. जवाहरलाल नेहरू के घर जब प्रियदर्शिनी नामक कन्या ने जन्म लिया था तो किसे पता था कि यही कन्या आगे चलकर न केवल इस देश की बागडोर संभालेगी बल्कि इसकी दबंगता पूरी दुनिया में मिसाल बन जाएगी। ऑक्सफोर्ड और स्विट्जरलैंड में उच्च शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् इंदिरा गांधी ने भी उच्च पद पर नौकरी करने या कोई अन्य कार्य करने के बजाय अपना जीवन देशसेवा में ही समर्पित करने का निश्चय किया। देशभक्ति की भावना इंदिरा जी में बचपन से ही कूट-कूटकर भरी थी। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आव्हान से प्रेरित होकर बचपन में ही इन्होंने अपने घर के बाहर अपने कीमती कपड़ों की होली जलाकर न केवल अपनी इसी भावना का परिचय दिया था बल्कि उसके बाद इंदिरा जी से प्रेरणा लेकर इस आन्दोलन ने पूरे देश में जोर पकड़ा था।
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इंदिरा जी के स्कूली दिनों में एक दिन स्कूल में गांधी जी के आमरण अनशन को लेकर एक सभा का आयोजन था, जिसमें बच्चों को भी बोलने का अवसर दिया गया था। जब इंदिरा जी ने बोलना शुरू किया तो सभागार में सन्नाटा छा गया और सभी एकटक इंदिरा को निहारने लगे कि इतनी छोटी बालिका इतनी गूढ़ बातें कैसे कर रही है। उन्होंने कहा, ‘‘आखिर स्वर्ण अपने ही दलित भाईयों को गिरा हुआ, छूत और निकृष्ट क्यों समझते हैं तथा उनके साथ दुर्व्यवहार और अत्याचार क्यों करते हैं? अगर हमने अपनी ही सेवा करने वालों का इस तरह से निरन्तर तिरस्कार न किया होता तो आज अंग्रेजों को इस प्रकार लाभ उठाने का अवसर न मिल रहा होता और न ही बापू को इस तरह से आमरण अनशन कर अपने प्राण दांव पर लगाने पड़ते।’’ इंदिरा जी की इन गूढ़ और तर्कसम्मत बातों से सभी नतमस्तक थे और उनकी सराहना कर रहे थे। इंदिरा में बचपन से ही एक अच्छी राजनेता होने के तमाम गुण विद्यमान थे। 21 वर्ष की आयु में वह कांग्रेस में शामिल होकर सक्रिय राजनीति में कूद पड़ी। उसके बाद उन्होंने आजादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
1942 में उन्होंने फिरोज गांधी से प्रेम विवाह किया किन्तु 1960 में फिरोज गांधी का अकस्मात् निधन हो गया। पिता जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद देश की बागडोर संभालने की जिम्मेदारी इंदिरा के कंधों पर आई तो अपनी दृढ़ता, दबंगता, निडरता और वाकपटुता से उन्होंने दुनियाभर को अपना लोहा मानने को विवश कर दिया। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित एवं प्रभावशाली देशों में भी उनकी तूती बोलती थी। 1966 से 1977 तक उन्होंने देश पर एकछत्र शासन किया और उनकी कार्यशैली तथा देश के प्रति उनका समर्पण भाव देखकर विरोधी भी उनकी सराहना किए बिना नहीं रह पाते थे। हालांकि लालबहादुर शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा को शुरूआती दौर में ‘गूंगी गुडि़या’ की उपाधि दी गई थी किन्तु बहुत ही कम समय में अपने साहसिक निर्णयों से इंदिरा ने साबित कर दिखाया था कि वो एक ‘गूंगी गुडि़या’ नहीं बल्कि ‘लौह महिला’ हैं।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा 1971 के भारत-पाक युद्ध में भारत की शानदार जीत के बाद इंदिरा जी जनमानस की आंखों का तारा बन गई थी किन्तु 1975-77 के इमरजेंसी काल ने उनकी छवि पर ग्रहण लगाने में प्रमुख भूमिका निभाई और इस दौर ने उनकी छवि एक तानाशाह के रूप में स्थापित कर दी। यही वजह रही कि 1977 में इंदिरा को पहली बार हार का सामना करना पड़ा और सत्ता उनके हाथ से छिन गई किन्तु निराश होना तो जैसे उन्होंने सीखा ही नहीं था, इसलिए 1980 में एक बार फिर विशाल बहुमत के साथ वह सत्ता में लौटी। अपने शासनकाल में उन्होंने कभी अलगाववादी व साम्प्रदायिक आग भड़काने वाले तत्वों को नहीं पनपने दिया। ऐसे तत्वों को उन्होंने बेदर्दी से कुचलने में जरा भी देर नहीं लगाई।
1980 में पुनः देश का शासन संभालने के बाद पंजाब में अलगाववादी ताकतों ने खालिस्तान की मांग शुरू की और दूसरे मुल्कों की शह पर अपने नापाक इरादों को कामयाब बनाने के लिए सिख अलगाववादियों ने भयानक नरसंहार का दौर शुरू किया तथा पंजाब में अवैध रूप से हथियारों के जखीरे इकट्ठा करने शुरू कर दिए। देश की जांबाज, निडर एवं साहसी नेता इंदिरा को भला यह कैसे सहन होता, इसलिए जैसे ही उन्हें खबर मिली कि सिख अलगाववादियों ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर जैसी पाक जगह में भी हथियारों का विशाल जखीरा इकट्ठा किया है तो उन्हें देश की एकता और अखंडता कायम रखने तथा अलगाववादियों के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए इस पवित्र धर्मस्थल के भीतर न चाहते हुए भी ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के तहत पुलिस भेजने का सख्त निर्णय लेना पड़ा। हालांकि उस वक्त स्वर्ण मंदिर के भीतर पुलिस बल भेजने के उनके फैसले की बहुत आलोचना हुई किन्तु जब स्वर्ण मंदिर से हथियारों का बहुत बड़ा जखीरा बरामद हुआ और धार्मिक स्थल की आड़ में चल रही इस राष्ट्र विरोधी साजिश का भंडाफोड़ हुआ तो उन्हीं लोगों ने इंदिरा जी की सराहना की। उसके बाद इंदिरा ने जिस दिलेरी और दृढ़ता के साथ अलगाववादियों को रौंदा, वह एक मिसाल बन गया लेकिन अलगाववादियों के विरूद्ध चलाए गए उनके इसी ऑपरेशन की वजह से ही वह उनकी हिट लिस्ट में सबसे ऊपर आ गई और उन्होंने हर हाल में उनकी हत्या कर उन्हें अपने मार्ग से हटाने की ठान ली।
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खुद इंदिरा जी को अपनी मौत का पहले ही आभास हो गया था लेकिन फिर भी वह अपने नेक इरादों से टस से मस न हुई और अलगाववादियों के खिलाफ अपना अभियान पहले से भी तेज कर दिया। 30 अक्तूबर 1984 को भुवनेश्वर की एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए इंदिरा ने अपनी हत्या का पूर्वाभास होने का स्पष्ट संकेत देते हुए कहा था, ‘‘देश की सेवा करते हुए यदि मेरी जान भी चली जाए तो मुझे गर्व होगा। मुझे भरोसा है कि मेरे खून की एक-एक बूंद देश के विकास में योगदान देगी और देश को मजबूत एवं गतिशील बनाएगी।’’
इंदिरा गांधी के इस भाषण के चंद घंटों बाद ही अर्थात् अगले दिन 31 अक्तूबर 1984 को सुबह करीब सवा नौ बजे उनके दो निजी अंगरक्षकों ने ही उन्हें उस वक्त गोलियों से छलनी कर दिया, जब वह अपने आवास से निकलकर विदेशी मीडिया को इंटरव्यू देने जा रही थी। इस हत्याकांड से जहां पूरे देश में शोक की लहर छा गई, वहीं दूसरी ओर इंदिरा जी का शहीदी रक्त रंग लाया और इस नृशंस हत्याकांड के बाद सिख समुदाय की ओर से सिख अलगाववादियों को मदद मिलनी बंद हो गई और इंदिरा जी की शहादत के साथ ही खालिस्तान की मांग भी गहरे दफन हो गई। इंदिरा जी अक्सर कहा करती थी कि उन कायरों और बुजदिलों पर मातम करो, जो दुनिया के जुल्मों से घबराकर इस तरह आंखें बंद कर लेते हैं, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा तीन दशक से अधिक समय से समसामयिक विषयों पर निरन्तर लेखन कर रहे हैं। इनकी इसी वर्ष ‘जीव जंतुओं का अनोखा संसार’ तथा ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।)
भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक थे डॉ होमी जहांगीर भाभा
- इंडिया साइंस वायर
- जनवरी 23, 2021 18:18
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होमी जहांगीर भाभा का जन्म 30 अक्तूबर, 1909 को मुंबई के एक पारसी परिवार में हुआ। उनके पिता जहांगीर भाभा एक जाने-माने वकील थे। होमी भाभा की प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के कैथेड्रल स्कूल से हुई। इसके बाद आगे की शिक्षा जॉन केनन स्कूल में हुई। भाभा शुरू से ही भौतिक विज्ञान और गणित में खास रुचि रखते थे।
भारतीय परमाणु कार्यक्रम विश्व के उन्नत और सफल परमाणु कार्यक्रमों में शुमार किया जाता है। भारत आज सैन्य और असैन्य परमाणु शक्ति-संपन्न राष्ट्रों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा है। यह उस सपने का परिणाम है, जिसे भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक डॉ होमी जहांगीर भाभा ने संजोया था।
डॉ होमी जहांगीर भाभा यानी परमाणु भौतिकी विज्ञान का ऐसा चमकता सितारा, जिसका नाम सुनते ही हर भारतवासी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। डॉ होमी जहांगीर भाभा ही वह शख्स थे, जिन्होंने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की कल्पना की, और भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न तथा वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त किया।
मुट्ठी भर वैज्ञानिकों की सहायता से परमाणु क्षेत्र में अनुसंधान का कार्य शुरू करने वाले डॉ भाभा ने समय से पहले ही परमाणु ऊर्जा की क्षमता और अलग-अलग क्षेत्रों में उसके उपयोग की संभावनाओं की परिकल्पना कर ली थी। तब नाभिकीय ऊर्जा से विद्युत उत्पादन की कल्पना को कोई भी मानने को तैयार नहीं था। यही वजह है कि उन्हें “भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का जनक” कहा जाता है।
होमी जहांगीर भाभा का जन्म 30 अक्तूबर, 1909 को मुंबई के एक पारसी परिवार में हुआ। उनके पिता जहांगीर भाभा एक जाने-माने वकील थे। होमी भाभा की प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के कैथेड्रल स्कूल से हुई। इसके बाद आगे की शिक्षा जॉन केनन स्कूल में हुई। भाभा शुरू से ही भौतिक विज्ञान और गणित में खास रुचि रखते थे। 12वीं की पढ़ाई एल्फिस्टन कॉलेज, मुबंई से करने के बाद उन्होंने रॉयल इस्टीट्यूट ऑफ साइंस से बीएससी की परीक्षा पास की। साल 1927 में होमी भाभा आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए और वहां उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। साल 1934 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की।
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भाभा ने जर्मनी में कॉस्मिक किरणों का अध्ययन किया और उन पर अनेक प्रयोग भी किए। वर्ष 1933 में डॉक्टरेट कि उपाधि मिलने से पहले भाभा ने अपना रिसर्च पेपर “द अब्जॉर्वेशन ऑफ कॉस्मिक रेडिएशन” शीर्षक से जमा किया। इसमें उन्होंने कॉस्मिक किरणों की अवशोषक और इलेक्ट्रॉन उत्पन्न करने की क्षमताओं को प्रदर्शित किया। इस शोध पत्र के लिए उन्हें साल 1934 में ‘आइजैक न्यूटन स्टूडेंटशिप’ भी मिली।
डॉ भाभा अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद साल 1939 में भारत लौट आए। भारत आने के बाद वह बेंगलुरु के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से जुड़ गए, और साल 1940 में रीडर के पद पर नियुक्त हुए। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में उन्होंने कॉस्मिक किरणों की खोज के लिए एक अलग विभाग की स्थापना की। कॉस्मिक किरणों पर उनकी खोज के चलते उन्हें विशेष ख्याति मिली, और उन्हें साल 1941 में रॉयल सोसाइटी का सदस्य चुन लिया गया। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए साल 1944 में मात्र 31 साल की उम्र में उन्हें प्रोफेसर बना दिया गया। बुहमुखी प्रतिभा के धनी डॉ होमी जहांगीर भाभा की शास्त्रीय संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला और नृत्य के क्षेत्र में गहरी रुची और पकड़ थी। वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी.वी. रामन उन्हें ‘भारत का लियोनार्डो डी विंची’ भी कहा करते थे।
भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने के मिशन में प्रथम कदम के तौर पर उन्होंने मार्च, 1944 में सर दोराब जे. टाटा ट्रस्ट को मूलभूत भौतिकी पर शोध के लिए संस्थान बनाने का प्रस्ताव रखा। साल 1948 में डॉ भाभा ने भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की, और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व किया। साल 1955 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित ‘शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा का उपयोग’ के पहले सम्मलेन में डॉ. होमी भाभा को सभापति बनाया गया।
होमी जहांगीर भाभा शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के उपयोग के पक्षधर थे। 60 के दशक में विकसित देशों का तर्क था कि परमाणु ऊर्जा संपन्न होने से पहले विकासशील देशों को दूसरे पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए। डॉक्टर भाभा ने इसका खंडन किया। भाभा विकास कार्यों में परमाणु ऊर्जा के प्रयोग की वकालत करते थे।
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वर्ष 1957 में भारत ने मुंबई के करीब ट्रांबे में पहला परमाणु अनुसंधान केंद्र स्थापित किया। वर्ष 1967 में इसका नाम भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र कर दिया गया। यह होमी भाभा को देश की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि थी। इस संस्थान ने एक विशिष्ट नाभिकीय अनुसंधान संस्थान के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। आज यहाँ नाभिकीय भौतिकी, वर्णक्रमदर्शिकी, ठोस अवस्था भौतिकी, रसायन एवं जीव विज्ञान, रिएक्टर इंजीनियरी, यंत्रीकरण, विकिरण संरक्षा एवं नाभिकीय चिकित्सा आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मूलभूत अनुसंधान हो रहे हैं।
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि हम परमाणु ऊर्जा का दुरुपयोग नहीं करेगें। लेकिन, उनकी मृत्यु के बाद परिदृश्य में आये बदलाव ने भारत की परमाणु नीति को प्रभावित किया। भारत की सुरक्षा को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने भारत को परमाणु हथियार न बनाने की प्रतिबद्धता से मुक्त कर दिया। वर्ष 1964 में चीन ने परमाणु परीक्षण किया, तो भारत का चिंतित होना स्वाभाविक था। वर्ष 1965 में, भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ, तो यह चिंता बढ़ गई। ऐसे में, सामरिक संतुलन के लिहाज से भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने की जरूरत अनुभव की जाने लगी।
18 मई, 1974 को भारत ने पोखरण में पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण किया। ये भारत की परमाणु शक्ति का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन था। 11 मई और 13 मई 1998 को भारत ने पोखरण में ही दूसरा परमाणु परीक्षण किया। वर्ष 2003 की अपनी नई परमाणु नीति में भी भारत ने परमाणु हथियारों का अपनी तरफ से पहले प्रयोग नहीं करने का ऐलान किया। इसके साथ ही, यह भी कहा गया कि परमाणु हमला होने की सूरत में भारत जवाब जरूर देगा।
होमी जहांगीर भाभा ने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने का जो सपना देखा था, वह अपने विस्तृत स्वरूप में आगे बढ़ रहा है। आज भारत के पास रक्षा क्षेत्र में कई परमाणु मिसाइलें हैं, जिनमें अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइलें शामिल हैं। वर्तमान में, भारत में करीब सात परमाणु संयंत्र हैं। वहीं, दूसरी तरफ भारत में परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल कृषि, उद्योग, औषधि निर्माण तथा प्राणिशास्त्र समेत विविध क्षेत्रों में भी हो रहा है। 24 जनवरी, 1966 को एक विमान दुर्घटना में भारत के इस प्रमुख वैज्ञानिक और स्वपनद्रष्टा की मृत्यु हो गई।
- इंडिया साइंस वायर
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भीतर बाल्यकाल से ही देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा था
- अमृता गोस्वामी
- जनवरी 23, 2021 11:30
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सुभाष चन्द्र बोस पढ़ाई में बहुत होशियार थे, सारे विषयों में उनके अच्छे अंक आते थे किन्तु बंगाली भाषा में वह कुछ कमजोर थे। बाकी विषयों की अपेक्षा बंगाली मे उनके अंक कम आते थे। सुभाषचंद्र बोस ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपनी भाषा बंगाली सही तरीके से जरूर सीखेंगे।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई महापुरूषों ने अपना योगदान दिया था जिनमें सुभाष चंद्र बोस का नाम भी अग्रणी है। सुभाष चन्द्र बोस ने भारत के लिए पूर्ण स्वराज का सपना देखा था। भारत को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए किए उनके आंदोलन की वजह से सुभाष को कई बार जेल भी जाना पड़ा। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को तेज करने के लिए आजाद हिन्द फौज का गठन किया था।
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सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकी नाथ बोस था जो उस समय के प्रख्यात वकील थे। इनकी माता का नाम प्रभावती था। बचपन से ही सुभाष चन्द्र बोस पढ़ाई में बहुत होनहार थे। देशभक्ति का जज्बा उनके अंदर कूट-कूट कर भरा था, भारतीयों पर अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अन्याय और अत्याचार के वह सख्त खिलाफ थे। कई यातनाएं सहकर भी उन्होंने भारतीयों पर अंगे्रजों के जुल्मों का विरोध किया। भारत वासियों को राष्ट्र प्रेम के लिए प्रेरित करने वाले नारे ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा’ और ‘जय हिन्द’ सुभाषचन्द्र बोस ने ही दिए।
आज सुभाषचन्द्र बोस की जयंती पर आइए जानते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ ऐसे प्रसंगों को जो हम सबके लिए भी प्रेरणादायी हैं।
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सुभाष चंद्र बोस के घर के सामने एक भिखारिन रहती थी जिसे दो समय की रोटी भी नसीब नहीं थी। उसकी दयनीय हालत देखकर सुभाष को बहुत दुःख होता था। उस भिखारिन के पास घर भी नहीं था जहां वह खुद को सर्दी, बारिश और धूप से बचा पाती। सुभाष ने प्रण किया कि यदि हमारे समाज में एक भी व्यक्ति ऐसा है जो अपनी आवश्यकताएं पूरी नहीं कर सकता तो मुझे भी सुखी जीवन जीने का क्या अधिकार है, मैं जैसे भी हो ऐसे लोगों की मदद करूंगा। इसके बाद सुभाष ने कॉलेज जाने के लिए मिलने वाले जेब खर्च व किराए को बचाकर उस भिखारिन की मदद शुरू की। सुभाष का कॉलेज उनके घर से 3 कि.मी. दूर था जहां तक पैदल जाकर सुभाष वहां तक का किराया और जेब खर्च बचाकर भिखारिन की मदद करते थे।
सुभाष चन्द्र बोस पढ़ाई में बहुत होशियार थे, सारे विषयों में उनके अच्छे अंक आते थे किन्तु बंगाली भाषा में वह कुछ कमजोर थे। बाकी विषयों की अपेक्षा बंगाली मे उनके अंक कम आते थे। सुभाषचंद्र बोस ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपनी भाषा बंगाली सही तरीके से जरूर सीखेंगे। इसके लिए कड़ी मेहनत कर कुछ ही समय में उन्होंने बंगाली भाषा में महारथ हासिल कर ली। इस बार परीक्षा में वे सिर्फ कक्षा में ही प्रथम नहीं आये बल्कि बंगाली भाषा में भी उन्होंने सबसे अधिक अंक प्राप्त किये। जब सुभाष से उनके शिक्षक ने पूछा कि यह कैसे संभव हुआ? तब सुभाष बोले-यदि मन लगाकर एकाग्रता से मेहनत की जाए तो इंसान कुछ भी हासिल कर सकता है।
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बात सुभाषचन्द्र के बचपन की है जब वे कटक के प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। इस स्कूल में अंगे्रज विद्यार्थी भी थे जिनसे भारतीय बच्चे डरे हुए थे। एक दिन स्कूल के मध्यावकाश में अंग्रेज विद्यार्थी मैदान में खेल रहे थे, वहीं स्वदेशी विद्यार्थी एक पेड़ के नीचे बैठे थे। सुभाष चन्द्र बोस ने स्वदेशी विद्यार्थियों से पूछा-तुम क्यों नहीं खेल रहे। स्वदेशी विद्यार्थियों ने कहा-अंग्रेज बच्चे हमें मारते हैं, खेलने नहीं देते। सुभाष चन्द्र ने कहा-क्या तुम्हारे पास हाथ नहीं हैं, निकालो गेंद और उछालो मैदान में। सभी बच्चे डरे-सहमे थे किन्तु सुभाष के साथ वे सभी खेलने के लिए मैदान में दौड़ पड़े। तब अंग्रेज विद्यार्थियों और भारतीय विद्यार्थियों में काफी झगड़ा हुआ। स्कूल प्रशासन को जब पता चला यह सब सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में हो रहा है तो स्कूल प्राचार्य ने सुभाष के पिता को पत्र लिखा कि आपका पुत्र पढ़ाई में अच्छा है किन्तु गुटबाजी कर स्कूल के बच्चों के साथ झगड़ा करता है] उसे समझाइए। पिताजी ने जब सुभाष से पूछा तो सुभाष ने कहा- पिताजी, ऐसा कीजिए आप भी प्राचार्य को एक पत्र लिख दें कि वह अंग्रेज बच्चों को समझाएं कि यदि बिना वजह अंग्रेज विद्यार्थी हम भारतीय विद्यार्थियों से लड़ाई करेंगे, मारेंगे तो उन्हें इसका करारा जवाब मिलेगा।
तो ऐसे थे भारत की स्वतंत्रता संग्राम के महानायक सुभाष चन्द्र बोस जिनका नाम इतिहास के पन्नों पर अमर है।
अमृता गोस्वामी
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- डॉ. वंदना सेन
- जनवरी 23, 2021 11:15
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सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा प्रांत में कटक में हुआ था। उनके पिता जानकी दास बोस एक प्रसिद्ध वकील थे। प्रारम्भिक शिक्षा कटक में प्राप्त करने के बाद यह कलकता में उच्च शिक्षा के लिये गये। आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करके इन्होंने अपनी योग्यता का परिचय दिया।
'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' यह केवल एक नारा नहीं था। इस नारे ने भारत में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया, जो भारत की स्वतंत्रता का बहुत बड़ा आधार भी बना। इस नारे को भारत में ही नहीं बल्कि समस्त भू मंडल पर प्रवाहित करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस वह नाम है जो शहीद देशभक्तों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। सुभाष चंद्र बोस की वीरता की गाथा भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सुनाई देती है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कथनी और करनी में गजब की समानता थी। वे जो कहते थे, उसे करके भी दिखाते थे। इसी कारण नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कथनों से विश्व के बड़े दिग्गज भी घबराते थे। सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि भारत के लोग उन्हें प्यार से 'नेताजी' कहते थे। उनके व्यक्तित्व एवं वाणी में एक ओज एवं आकर्षण था। उनके हृदय में राष्ट्र के लिये मर मिटने की चाह थी। उन्होंने आम भारतीय के हदय में इसी चाह की अलख जगा दी। नेताजी के हर कदम से अंग्रेज सरकार घबराती थी।
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सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा प्रांत में कटक में हुआ था। उनके पिता जानकी दास बोस एक प्रसिद्ध वकील थे। प्रारम्भिक शिक्षा कटक में प्राप्त करने के बाद यह कलकता में उच्च शिक्षा के लिये गये। आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करके इन्होंने अपनी योग्यता का परिचय दिया। देश के लिये अटूट प्रेम के कारण यह अंग्रेजों की नौकरी नहीं कर सके। बंगाल के देशभक्त चितरंजन दास की प्ररेणा से यह राजनीति में आये। गाँधी जी के साथ असहयोग आन्दोलन में भाग लेकर यह जेल भी गये। 1939 में यह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। लेकिन कांग्रेस और गाँधी जी के अहिंसावादी विचार इनके क्रान्तिकारी विचारों से मेल नहीं खाते थे इसलिए इन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। तत्पश्चात सुभाष जी ने फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की। उन्होंने पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य रखा। उनका नारा था 'जय हिन्द'। पूर्ण स्वराज का आशय भारतीय संस्कारों से आप्लावित राज्य। आज भी हमें पूर्ण स्वराज की तलाश है।
सन् 1942 में नेता सुभाष चन्द्र बोस जर्मनी से जापान गये। वहाँ उन्होंने 'आजाद हिन्द फौज' का गठन किया। इनकी फौज ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया। कम पैसों और सीमित संख्या में सैनिक होने पर भी नेताजी ने जो किया, वह प्रशंसनीय है। नेताजी भारत को एक महान विश्व शक्ति बनाना चाहते थे। उनकी नजर में भारत भूमि वीर सपूतों की भूमि थी, इसी भाव को वह हर हृदय में फिर से स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने अंडमान निकोबार को भारत से पहले ही स्वतंत्र करा दिया।
बंगाल के बाघ कहे जाने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 'अग्रणी' स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। उनके नारों 'दिल्ली चलो' और 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' से युवा वर्ग में एक नये उत्साह का प्रवाह हुआ था। पूरे देश में नेताजी के इस नारे को सुनकर राष्ट्रभक्ति की अलख जगी। जो यह कहते हैं कि शांति और अहिंसा के रास्ते से भारत को आजादी मिली, उन्हें एक बार नेताजी के जीवन चरित्र का अध्ययन करना चाहिए।
कहा जाता है कि वीर पुरुष एक ही बार मृत्यु का वरण करते हैं, लेकिन वे अमर हो जाते हैं। उनके यश और नाम को मृत्यु मिटा नहीं पाती है। सुभाष चन्द्र बोस जी ने स्वतंत्रता के लिए जिस रास्ते को अपनाया था वह सबसे अलग था। सुभाषचन्द्र बोस जी के मन में छात्र काल से ही क्रांति का सूत्रपात हो गया था। जब कॉलेज के समय में एक अंग्रेजी के अध्यापक ने हिंदी के छात्रों के खिलाफ नफरत से भरे शब्दों का प्रयोग किया तो उन्होंने उसे थप्पड़ मार दिया। वहीं से उनके विचार क्रांतिकारी बन गए थे।
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उनके तीव्र क्रांतिकारी विचारों और कार्यों से त्रस्त होकर अंग्रेजी सरकार ने उन्हें जेल भेज दिया। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल कर दी जिसकी वजह से देश में अशांति फ़ैल गयी थी। जिसके फलस्वरूप उनको उनके घर पर ही नजरबंद रखा गया था। बोस जी ने 26 जनवरी , 1942 को पुलिस और जासूसों को चकमा दिया था।
बोस जी ने देखा कि शक्तिशाली संगठन के बिना स्वाधीनता मिलना मुश्किल है। वे जर्मनी से टोकियो गए और वहां पर उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज की स्थापना की। उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी का नेतृत्व किया था। यह अंग्रेजों के खिलाफ लडकर भारत को स्वाधीन करने के लिए बनाई गई थी। आजाद हिन्द ने यह फैसला किया कि वे लड़ते हुए दिल्ली पहुंचकर अपने देश की आजादी की घोषणा करेंगे या वीरगति को प्राप्त होंगे। जब नेताजी विमान से बैंकाक से टोकियो जा रहे थे तो मार्ग में विमान में आग लग जाने की वजह से उनका स्वर्गवास हो गया था। लेकिन नेताजी के शव या कोई चिन्ह न मिलने की वजह से बहुत से लोगों को नेताजी की मौत पर संदेह हो रहा है।
नेताजी भारत के ऐसे सपूत थे जिन्होंने भारतवासियों को सिखाया कि झुकना नहीं बल्कि शेर की तरह दहाडऩा चाहिए। खून देना एक वीर पुरुष का ही काम होता है। नेताजी ने जो आह्वान किया वह सिर्फ आजादी प्राप्त तक ही सीमित नहीं था बल्कि भारतीय जन-जन को युग-युग तक के लिए वीर बनाना था। आजादी मिलने के बाद एक वीर पुरुष ही अपनी आजादी की रक्षा कर सकता है। आजादी को पाने से ज्यादा आजादी की रक्षा करना उसका कर्तव्य होता है। ऐसे वीर पुरुष को भारत इतिहास में बहुत ही श्रद्धा से याद किया जायेगा। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जी की याद में हर साल 23 जनवरी को देश प्रेम दिवस के रूप में मनाया जाता है।
- डॉ. वंदना सेन
(लेखिका सहायक प्राध्यापक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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