अदम्य साहस के प्रतीक नाना साहेब की रहस्यमयी मौत से नहीं उठा पर्दा, 1857 में अंग्रेजों पर कहर बनकर टूटे थे

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मराठा शासकों में छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद सबसे ज्यादा प्रभावी शासकों में नाना साहेब का नाम लिया जाता है। शिवाजी महाराज ने जहां मुगलों की गुलामी अस्वीकार की थी वहीं नाना साहेब को अंग्रेजों हस्तक्षेप पसंद नहीं था और उन्होंने उनके खिलाफ मोर्चा तैयार किया था।

1857 में हुए प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध एक सशक्त विद्रोह था। यह विद्रोह 2 सालों तक हिंदुस्तान के अलग-अलग इलाकों में चला। जहां पर अनेक शूरवीरों ने भारत मां की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी। इसी बीच एक पेशवा ने मराठा दुर्ग से दूर कानपुर से क्रांति का बिगुल बजाया था और ब्रिटिश हुकूमत तक की ईंट से ईंट बजा दी थी। लेकिन आज भी इतिहासकार उनकी मौत को लेकर स्पष्ट रुख अख्तियार नहीं कर पाए हैं। नाना साहेब पेशवा की मौत किसी रहस्य से कम नहीं है।

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मराठा शासकों में छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद सबसे ज्यादा प्रभावी शासकों में नाना साहेब का नाम लिया जाता है। शिवाजी महाराज ने जहां मुगलों की गुलामी अस्वीकार की थी वहीं नाना साहेब को अंग्रेजों हस्तक्षेप पसंद नहीं था और उन्होंने उनके खिलाफ मोर्चा तैयार किया था। नाना साहेब पेशवा वंश के थे और उनका शासन महाराष्ट्र के बाहर रहा। 

सच्चाई से नहीं उठ पाया पर्दा

1857 की क्रांति में नाना साहेब की अगुवाई में कानपुर, अवध, दिल्ली जैसे इलाकों में क्रांति को सही मार्ग मिला। नाना साहेब के योद्धाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ जमकर युद्ध लड़ा और उन्हें कानपुर से खदेड़ दिया। लेकिन अंग्रेज पीठ में चाकू घोपे जाने के लिए जाने जाते थे और उनको यह हार स्वीकार भी कैसे होती। ऐसे में अंग्रेजों ने दुगनी ताकत के साथ पलटवार किया। दोनों के बीच कई महीनों तक युद्ध चला और अंतत: अंग्रेजी सैनिकों ने बिठूर पर कब्जा कर लिया।

अंग्रेजों ने पेशवा के महल को जमीदोज कर दिया। हालांकि उनकी मौत का रहस्य आज तक नहीं सुलझ पाया है। इतिहासकारों के बीच में उनकी मौत को लेकर द्वंद्व है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नाना साहेब को मार दिया गया था। जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वो रहस्यमयी अंदाज में गायब हो गए थे लेकिन सच्चाई क्या है यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाई है। 

कौन हैं नाना साहेब ?

नाना साहेब का नाम बड़े ही आदर और सतकार के साथ लिया जाता है। उनका साम्राज्य महाराष्ट्र के बाहर ही रहा और वो पेशवा वंश के थे। उनका जन्म 1824 में वेणुग्राम में माधव नारायण राव के घर पर हुआ था। हालांकि 1827 में पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट द्वितीय ने उन्हें गोद ले लिया था।

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नाना साहेब के दो भाई थे- रघुनाथराव और जनार्दन। रघुनाथराव ने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया था और मराठा भाईयों को धोखा दिया। जबकि जनार्दन की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई थी। पेशवा बाजीराव के यहां रहते हुए नाना साहेब ने घुड़सवारी, युद्ध कौशल के गुर सीखे। जिसका उन्हें आगे चलकर काफी लाभ भी मिला। यह वो दौर था जब अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के बड़े हिस्से में अपना कब्जा जमा लिया था। इसी बीच 1851 में पेशवा बाजीराव का स्वर्गवास हो गया। 

पेशवा बाजीराव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने नाना साहेब को पेंशन देना बंद कर दिया था। उस वक्त लॉर्ड डलहौजी ने उन्हें दत्तक पुत्र बताते हुए पेंशन देने से इनकार किया था। कहा जाता है कि पेशवा बाजीराव की मृत्यु होने तक अंग्रेजों से 80 हजार डॉलर की पेंशन मिलती थी। ऐसे में नाना साहेब ने अपने सिपेसिलार को पेंशन बहाली की बात करने के लिए लंदन भेजा था। इसके बावजूद अंग्रेजों ने पेंशन बहाली नहीं थी। जिससे नाना साहेब सबसे ज्यादा आह्त हुए थे।

देखते ही देखते वक्त गुजरा और नाना साहेब को खबर मिली की मंगल पांडे के नेतृत्व में मेरठ छावनी के योद्धाओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की शुरुआत की है। ऐसे में नाना साहेब ने भी कानपुर में बिगुल फूंक दिया और तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों की ऐसी दुर्दशा की जो वो कभी नहीं भूल पाए।

- अनुराग गुप्ता

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