प्रकृति प्रेम के कवि थे सुमित्रानंदन पंत, मानवीय भावनाओं से अपने कविताओं को अद्भुत तरीके से सजाया

Sumitranandan Pant
Prabhasakshi
अंकित सिंह । May 20 2022 11:31AM

सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति से बहुत लगाव था। उन्होंने प्रकृति को लेकर कई कविताओं और रचनाओं को लिखा भी है। उनकी कविता 'ग्रामश्री' प्राकृतिक प्रेम और ग्रामीण जीवन को दर्शाती है। इनकी लेखनी में तुकबंदिओ का खूब इस्तेमाल होता था।

हिंदी में छायावाद के चार स्तंभ माने जाते हैं। इनमें जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा का नाम आता है। आज हम बात प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत की करेंगे। सुमित्रानंदन पंत के बगैर आधुनिक हिंदी काव्य की कल्पना करना बेमानी होगी। सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 को अल्मोड़ा जिले के कौसानी गांव में हुआ था। वर्तमान में अल्मोड़ा उत्तराखंड में स्थित है। इनके पिता जी का नाम गंगा दत्त पन्त और माताजी का नाम सर सरस्वती देवी था। सुमित्रानंदन पंत का असली नाम गोसाई दत्त था। वह अपने माता पिता की आठवीं संतान थे। हालांकि जन्म के 6 घंटे के भीतर ही उनकी मां का निधन हो गया था। सुमित्रानंदन पंत का लालन-पालन उनकी दादी ने किया था। हालांकि, सुमित्रानंदन पंत के परिवार ने उनकी पढ़ाई लिखाई में पूरा सहयोग दिया। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए सुमित्रानंदन पंत 1910 में ही अल्मोड़ा चले गए थे। यहीं उन्होंने अपना नाम गोसाईं तक से बदलकर सुमित्रानंदन पंत कर लिया था।

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बाद में आगे की पढ़ाई के लिए सुमित्रानंदन पंत इलाहाबाद चले गए थे। हालांकि असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के आह्वान के बाद उन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया तथा हिंदी, संस्कृत, बंगला, और अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करने लगे। इस दौरान सुमित्रानंदन पंत और उनके परिवार को आर्थिक संकट का लगातार सामना करना पड़ा। कर्ज की वजह से पिता की मृत्यु हो गई। आलम यह था कि कर्ज चुकाने के लिए उन्हें अपना घर विवेचना पड़ा। इसी के बाद सुमित्रानंदन पंत का झुकाव मार्क्सवाद की तरफ हुआ। सुमित्रानंदन पंत के बारे में दिलचस्प बात यह है कि जब वे 7 वर्ष के थे और चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तभी से उन्होंने कविता लिखनी शुरू कर दी थी। 1918 के आसपास उन्होंने हिंदी काव्य जगत में अपनी अलग पहचान बनाने की शुरुआत कर दी थी। 1926 में उनका प्रसिद्ध काव्य संकलन 'पल्लव' प्रकाशित हुआ था। 

सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति से बहुत लगाव था। उन्होंने प्रकृति को लेकर कई कविताओं और रचनाओं को लिखा भी है। उनकी कविता 'ग्रामश्री' प्राकृतिक प्रेम और ग्रामीण जीवन को दर्शाती है। इनकी लेखनी में तुकबंदिओ का खूब इस्तेमाल होता था। उन्होंने अपने काव्य में प्रकृति के कोमल भाव तथा मानवीय भावनाओं को अद्भुत तरीके से वर्णन किया। उनके लेखन शैली में सरलता और मधुरता दिखती है। वह सौंदर्य के उपासक थे। 1938 में इन्होंने प्रगतिशील मासिक पत्रिका रूपाभ का भी संपादन किया। श्री अरविंद के आश्रम में रहकर इनके अंदर आध्यात्मिक चेतना का विकास हुआ और यही कारण था कि वह आजीवन अविवाहित रहे। 1950 से लेकर 1957 तक आकाशवाणी में परामर्शदाता रहे। 1960 में 'कला और बूढ़ा चांद' काव्य संग्रह के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1961 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया।

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हिंदी के जानकार मानते हैं कि सुमित्रानंदन पंत के साहित्य की यात्रा में तीन अहम पड़ाव आए हैं। प्रथम- छायावादी, दूसरा- समाजवादी और तीसरा- अरविंद दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी। तीनों ही शैलियों में सुमित्रानंदन पंत ने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है। उनका संपूर्ण जीवन सत्यम शिवम सुंदरम के आदर्शों से प्रभावित रहा। बावजूद इसके उनमें कई बदलाव देखे गए। सुमित्रानंदन पंत ने उच्छवास, पल्लव, वीणा, ग्रंथि, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, युगांतर, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चांद, लोकायतन, सत्यकाम, सौंदण, पतझड़, ज्योत्सना जैसे प्रसिद्ध काव्य संग्रहों को लिखा है। इसके साथ ही उनके कई लेख भी प्रकाशित हुए हैं। सुमित्रानंदन पंत की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे परंपरावादी आलोचकों और प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी आलोचकों के सामने कभी नहीं चुके। अपनी कविताओं में उन्होंने पूर्व मान्यताओं को कभी नकारा नहीं। सुमित्रानंदन पंत का निधन 28 दिसंबर 1977 को 77 वर्ष की उम्र में इलाहाबाद में निधन हो गया। आज भी उनकी कविताओं को पाठ्यपुस्तक में पढ़ाया जाता है। उनके नाम पर कई पुरस्कार दिए जाते हैं तथा व्याख्यानमाला का आयोजन होता है। 

- अंकित सिंह

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