नीतीश और मनमोहन में फर्क है, यह बात कांग्रेस समझ नहीं पाई

Alliance in Bihar came in old form

सोनिया गांधी व राहुल गांधी उसी अंदाज में बिहार की सरकार चलाना चाहते थे, जिस तरह केंद्र में संप्रग सरकार को चला रहे थे। लेकिन नीतीश और मनमोहन सिंह में बड़ा अंतर था।

बिहार में राजग अपने पुराने रूप में कायम हो गया है। भाजपा और जद (यू) का गठबंधन स्वाभाविक था। बीस महीने बाद के संक्रमण दौर से नीतीश कुमार बाहर निकले। दूसरी तरफ कांग्रेस और राजद का गठबंधन है। यह भी अपनी जगह पर स्वाभाविक है। घोटालों से कांग्रेस को परहेज नहीं रहा। लालू यादव का पूरा कुनबा घोटालों में फंसा है। इस तरह दोनों गठबंधन अपने−अपने मुकाम पर पहुंच चुके हैं।

बिहार का ताजा घटनाक्रम केवल इस प्रांत तक सीमित नहीं है। इसका दूरगामी प्रभाव होगा क्योंकि इस समय देश में विपक्षी दल अपनी एकता के लिये बेकरार हैं। भाजपा के मुकाबले में ये अपने आप को असमर्थ मान रहे हैं। इसमें सबसे खराब स्थिति कांग्रेस की है। वह एकमात्र विपक्षी राष्ट्रीय पार्टी है। ऐसे में भाजपा से सीधे मुकाबले की अपेक्षा उसी से थी। लेकिन कांग्रेस में इस समय प्रभावी नेतृत्व और मुद्दों दोनों का अभाव है। संप्रग सरकार में उसकी जो छवि बनी थी, उससे निकलना उसके लिये मुश्किल हो रहा है।

बिहार में राजग सरकार गठित होने का प्रदेश और देश दोनों की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। प्रदेश की बात करें तो कांग्रेस और राजद दोनों को नुकसान उठाना पड़ा। तात्कालिक नुकसान यह है कि दोनों सत्ता से बेदखल हो गये। कांग्रेस के लोगों को दशकों बाद यहां सत्ता का सुख नसीब हुआ था। लेकिन मात्र बीस महीने में राजयोग चला गया। लालू यादव के लिये स्थिति ज्यादा निराशाजनक रही। राजग ने उन्हें सत्ता से बेदखल किया था। बीस महीने बाद इतिहास ने फिर अपने को दोहराया।

राजद के लिये यह कई प्रकार का नुकसान है। पहली बात यह कि घोटालों के आरोप में उनका पूरा कुनबा जांच के शिकंजे में है। इस समय उन्हें सत्ता की जरूरत थी। शायद इसके माध्यम से कुछ राहत की उम्मीद रहती। लेकिन जब सत्ता की सर्वाधिक जरूरत थी तब वह दगा दे गयी। दूसरी बात यह है कि सत्ता से विदाई किसी राजनीतिक मुद्दे पर नहीं हुई। ऐसा होता तब शायद राजद की छवि को पुनः धक्का न लगता। विदाई घोटालों के कारण हुई। मतलब लालू यादव पर घोटालों के जैसे गहरे दाग थे, वह उनके उत्तराधिकारियों तक पहुंच गये हैं। लालू ने अपने पुत्र तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री व दूसरे पुत्र तेजप्रताप को कैबिनेट मंत्री बनवाया था। कुछ दिन पहले मंत्री पुत्र पर मॉल निर्माण में गड़बड़ी के आरोप लगे थे। उनके निर्माणाधीन मॉल में नियमों के पालन न होने के प्रमाण थे। इसे बिहार का सबसे बड़ा मॉल बताया जा रहा था। यह मसला कुछ शांत हुआ तो उपमुख्यमंत्री के खिलाफ अवैध संपत्ति के मामले खुलने लगे। इनके साथ सरकार चलाने से नीतीश की छवि धूमिल हो रही थी। यदि तेजस्वी इस्तीफा देते तो शायद सरकार कुछ दिन अभी चल सकती थी। लेकिन लालू की चिंता अलग थी। अगर तेजस्वी घोटालों व अवैध संपत्ति की तोहमत से इस्तीफा देते तो उनकी भावी राजनीति पर ग्रहण पड़ता। लालू इसी से बचने का प्रयास कर रहे थे।

लालू कुनबे की इस मुश्किल का फिलहाल अंत नहीं है। अभी तक तेजस्वी, मीसा और उनके पति की बेनामी संपत्ति का खुलासा हो रहा था लेकिन अब अन्य परिजनों के पास भी बेनामी संपत्ति की चर्चा शुरू हुई है। बताया जाता है कि ऐसी कई संपत्तियां जांच के रडार में आ चुकी हैं। इसका मतलब यह है कि लालू यादव की परेशानियां बढ़ेंगी। लालू ने जैसी राजनीति पर अमल किया उसी के परिणाम सामने आ रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे लालू यादव केवल अपने परिवार के कल्याण हेतु राजनीति में आये थे। इसी के लिये उन्होंने जाति−मजहब के समीकरण बनाये थे। धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों का स्थायी रूप से सहारा लिया। अल्पसंख्यकों को भयभीत बनाते रहे। उसी में उनको भयभीत रखा। कहा कि हम कमजोर हुए तो भाजपा आ जायेगी। हमी भाजपा को रोकेंगे। इन बातों को आड़ लेकर वह क्या करते रहे, यह सब जानते हैं।

तेजस्वी मसले पर लालू का साथ देकर कांग्रेस ने अपने ऊपर लगे दागों को गहरा किया है। संप्रग सरकार के समय भी वह घोटालों से घिरी थी। वैसी ही स्थिति बिहार में उत्पन्न की गयी। कांग्रेस के लिये छवि को आंशिक रूप से बदलने का मौका था। वह तेजस्वी के इस्तीफे पर नीतीश का समर्थन कर सकती थी। लेकिन सोनिया गांधी व राहुल गांधी उसी अंदाज में बिहार की सरकार चलाना चाहते थे, जैसी संप्रग सरकार को चला रहे थे। लेकिन नीतीश और मनमोहन सिंह में बड़ा अंतर था। मनमोहन को जनाधार की राजनीति से कोई लेना−देना नहीं था। वह समझौता मंजूर करते रहे। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन रहे। लेकिन नीतीश जनाधिकार की राजनीति से आगे बढ़े हैं। वह ईमानदार हैं। अपनी इस छवि के प्रति सजग भी हैं।

वस्तुतः कांग्रेस और राजद के साथ नीतीश का गठबंधन अस्वाभाविक था। नीतीश का इनके साथ जाना ही गलत था। इससे केवल नीतीश का ही नहीं बिहार का भी नुकसान हुआ। खैर अब इन बातों में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। जद (यू) व भाजपा को मिलकर बिहार के नुकसान की भरपाई करनी होगी। नीतीश के फैसले का राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रभाव पड़ेगा। राजग विरोधी गठबंधन में कांग्रेस, राजद और वामपंथी ही मुख्य किरदार हैं। ये सभी इस समय दिग्भ्रमित हैं। एक तो इनकी छवि भी ठीक नहीं है। दूसरे इन्हें भाजपा से मुकाबले का तरीका समझ नहीं आ रहा है। बिहार की जीत ने इनका हौसला बढ़ाया था। वह ध्वस्त हो गया। महागठबंधन में नीतीश की छवि सबसे ठीक थी। वह अलग हुए। क्या बचा इस पर कांग्रेस, राजद, वामपंथियों को विचार करना होगा।

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

(लेखक स्वतंत्र स्तंभकार हैं।)

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