UP निकाय चुनावों में बिखरे विपक्ष को देखकर भाजपा गदगद

BJP is happy to see Scattered opposition in UP Civic body elections
अजय कुमार । Nov 16 2017 11:41AM

उत्तर प्रदेश नगर निकाय और पंचायत चुनावों के सुरूर में डूबा हुआ है। पहली दिसंबर को बैलेट मशीन खुलते ही पता चल जायेगा कि हालात पिछले दो चुनावों जैसे ही हैं या फिर जनता ने अपना मूड बदल लिया है।

उत्तर प्रदेश नगर निकाय और पंचायत चुनावों के सुरूर में डूबा हुआ है। पहली दिसंबर को बैलेट मशीन खुलते ही पता चल जायेगा कि हालात पिछले दो चुनावों जैसे ही हैं या फिर जनता ने अपना मूड बदल लिया है। समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, बसपा और बीजेपी कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्या में जनसभा करके निकाय चुनाव का बिगुल फूंका तो बीजेपी की सियासत में हिन्दुत्व का तड़का अपने आप लग गया। योगी को अगले कुछ दिनों में दो दर्जन से अधिक सभाएं करनी हैं। योगी की यह परीक्षा भी है तो बीजेपी इस बात से गद्गद भी है कि विरोधी दलों में बिखराव का उसे भरपूर फायदा मिल सकता है। कांग्रेस, सपा, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल जैसे छोटे−छोटे दलों की 'अलग−अलग ढपली, अलग−अलग राग' ने निकाय चुनाव में पहले भी मजबूत स्थिति में रहने वाली बीजेपी को पंख लगा दिये हैं।

निकाय चुनाव का माहौल काफी बदला हुआ है। बीजेपी जहां पिछले दो चुनावों में मिली जीत से उत्साहित होकर मैदान में ताल ठोक रही है। वहीं कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी सहित तमाम छोटे−छोटे दल लोकसभा और उसके बाद विधान सभा चुनाव में मिली करारी हार की कड़वाहट को भूलकर भविष्य 'मीठा' करने के लिये जोर अजमाइश कर रहे हैं। अबकी बार यह बात भी स्पष्ट तौर पर साबित हो जायेगा कि शहरी मतदाताओं पर किसकी सबसे अच्छी पकड़ है। अभी तक बीजेपी और कांग्रेस ही अपने सिंबल पर चुनाव लड़ते थे, इस बार सपा और खासकर बसपा भी अपने सिम्बल (चुनाव चिह्न) पर मैदान में हैं। बसपा तो पहली बार हाथी चुनाव के साथ मैदान में ताल ठोंक रही है। पूर्व में बसपा और अधिकतर चुनावों में सपा तमाम निर्दलीय प्रत्याशियों को अपनी−अपनी पार्टी का समर्थन देते रहते थे। चार प्रमुख दलों के अपने−अपने सिम्बल के साथ चुनावी मैदान में कूदने से निकाय और क्षेत्रीय पंचायत चुनाव का परिदृश्य काफी बदला−बदला नजर आ रहा है।

कभी−कभी किन्हीं दो चुनावों के नतीजे और मुद्दे भले एक से हों सकते हैं, लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि दो चुनावों के बीच मतदाताओं का मिजाज कभी एक सा नहीं रहता है। ऐसा ही नगर निकाय चुनाव में भी देखने को मिल रहा है। बात 2014 के लोकसभा चुनाव की कि जाये तो उस समय कांग्रेस की दस साल पुरानी गठबंधन सरकार के खिलाफ जनता में जबरदस्त नाराजगी थी, जिसका मोदी ने खूब फायदा उठाया तो इसमें हिन्दुत्व का तड़का लगाकर वोट बैंक को और भी मजबूती प्रदान की। इस बार तो भाजपा ने निकाय चुनाव के लिये संकल्प पत्र भी जारी करा है। भाजपा संकल्प पत्र के माध्यम से न सिर्फ हिंदुत्व के एजेंडे को धार देने की कोशिश में है, बल्कि शहरियों के रोजमर्रा के सरोकारों पर लुभावने वादे करके चुनावी गणित साधने का प्रयास भी किया गया है। विधानसभा चुनाव की तरह निकाय चुनाव में भी मथुरा−वृदांवन, अयोध्या, प्रयाग, विध्ंयाचल, नैमिषारण्य, चित्रकूट, कुशीनगर और वाराणसी को हेलीकॉप्टर सेवा से जोड़ने, बौद्ध सर्किट से संबंधित महत्वपूर्ण जिलों के विकास का वादा किया गया है। सिर्फ धर्मस्थलो को हेलीकॉप्टर सेवा से जोड़ने का वादा ही नहीं दोहराया गया है बल्कि स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के आश्रितों को जल कर से छूट देने का भी संकल्प व्यक्त किया गया है। हालांकि लोकतंत्र सेनानियों के लिए किसी रियायत या सुविधा को शामिल नहीं किया गया।

2014 के लोकसभा चुनाव के समय से ही भाजपा के एजेंडे में दलित, पिछड़े और गरीब रहे हैं। इसलिए इन तबकों के कल्याण और उत्थान के लिए भाजपा की संकल्पबद्धता का संदेश देने वाले कामों को भी संकल्प पत्र में शमिल करके पार्टी ने अपने मूल शहरी वोट को और मजबूती से जोड़ने की कोशिश की है। साथ ही निकायों के अधिशासी अधिकारियों के पद पर उच्च तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त एमबीए स्नातक को तैनाती देने की बात कहकर युवाओं को भी लुभाने का प्रयास किया है। महिलाओं के लिए कई वादे करके इन्हें भी लामबंद करने का प्रयास किया गया है।

बीजेपी के लिये हिदुंत्व का एजेंडा सर्वोपरि है तो इसके उलट सपा−बसपा और कांग्रेस इस बार तुष्टिकरण की सियासत से तौबा करते दिख रहे हैं। वह ऐसा कोई मुद्दा नहीं उठा रहे हैं जिससे उनके ऊपर मुस्लिम परस्त होने का ठप्पा लगे। गैर बीजेपी दलों के बड़े नेता भी गलत बयानी से बच रहे हैं। मायावती का फोकस जरूर दलित सहित मुस्लिम वोटरों पर है। समाजवादी पार्टी यह मान कर चल रही है कि बड़ी संख्या में जीएसटी और नोटबंदी से त्रस्त व्यापारियों और मुसलमानों के पास उनसे अधिक बेहतर विकल्प नहीं है।

बहरहाल, बीजेपी को घेरने के लिये विपक्ष के पास भी कुछ मुद्दे हैं। विपक्ष सवाल उठा रहा है कि बड़े महानगरों में लम्बे समय से भाजपा के ही महापौरों का कब्जा रहा है तो फिर शहरी विकास की तस्वीर दिखती क्यों नहीं है ? जल की समस्या से लेकर साफ−सफाई, सीवर की समस्या, ड्रेनेज सिस्टम का अभाव क्यों है ? वैसे इस अंदेशे से बीजेपी आलाकमान भी अनभिज्ञ नहीं है। इसीलिये उसके नेताओं ने संकल्प पत्र जारी करते समय यह कहकर अपनी स्थिति साफ कर दी कि लंबे समय से प्रदेश में भाजपा की सरकार न होने के चलते पार्टी चाहकर भी अपनी मर्जी के अनुसार शहरों के विकास का काम करा नहीं सकी। अब केंद्र से लेकर प्रदेश तक भाजपा की ही सरकार है। इसलिए एक बार फिर उसे मौका मिलना चाहिए। बीजेपी नेतृत्व कहता है कि बदले माहौल में अगर निकाय चुनावों में भाजपा जीती तो पार्टी के संकल्प पत्र को जमीन पर उतारने में कोई कठिनाई नहीं होगी। विधानसभा चुनाव में श्मशान और कब्रिस्तान जैसे मुद्दों के सहारे हिंदुओं को लामबंद कर चुकी भाजपा ने निकाय चुनाव के संकल्प पत्र में इन शब्दों का इस्तेमाल तो नहीं किया है पर, अंत्येष्टि स्थलों के विकास, वहां पेयजल, शेड, मार्ग और बैठने की व्यवस्था की बात को संकल्प पत्र में जोड़ करके भाजपा ने बिना कुछ कहें हिन्दुत्व एजेंडे को धार देने का काम जरूर कर दिया है।

बीजेपी किसी भी वर्ग को छोड़ना नहीं चाहती है। उसने अपने संकल्प पत्र में गरीबों पर फोकस करते हुए जहां फेरी और पटरी दुकानदरों के लिए फुटपाथ पर स्थान चयन करने, नगरों में फेरी करके या मजदूरी करके, रिक्शा चलाकर या ऐसे ही छोटे−मोटे काम करके जीवन यापन करने वालों के लिए शेल्टर होम्स में निःशुल्क ठहरने और बिस्तर आदि की व्वयस्था करने का भी वादा किया है। मायावती के कोर वोट बैंक वाल्मीकि समाज को बीजेपी के साथ जोड़ने के लिए संकल्प पत्र में सीवर टैंकों की सफाई मशीनों से कराने की व्यवस्था लागू करने की बात कही जा रही है।

लब्बोलुआब यह है कि सभी दलों को पता है कि 2019 के आम चुनाव से पहले उनके पास शक्ति प्रदर्शन का यह आखिरी मौका है, जिसे कोई गंवाना नहीं चाहेगा। यूपी के नगर निकाय और गुजरात, हिमाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव पर बीजेपी ने काफी कुछ दांव पर लगा रखा है। गुजरात, हिमाचल प्रदेश के नतीजे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति को भी मजबूत या ढीला करने का काम करेंगे। 2019 में अगर बीजेपी के खिलाफ कोई मोर्चा तैयार होता है तो इसमें किसकी कितनी भागीदारी रहेगी, यह भी इन चुनावों से तय होगा। सपा में जारी बगावत के बीच अखिलेश के लिये यह चुनाव मील का पत्थर साबित हो सकते हैं तो बसपा की स्थिति में सुधार आने पर मायावती को सियासी ऑक्सीजन मिल सकता है। फिलहाल, बीजेपी को विरोधियों का बिखराव रास आ रहा है।

- अजय कुमार

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