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गाँव-गाँव में पार्टी की मजबूती के लिए भाजपा ने बनाया मेगा प्लान
- अजय कुमार
- जनवरी 18, 2021 13:44
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2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जलाई की शहर से लेकर गाँव तक में मोदी-मोदी होने लगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि बीजेपी ने गाँव-देहात में अपने संगठन को मजबूत कर लिया था। बीजेपी पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा था।
भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। 1980 में गठन के बाद 1984 के लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीतने वाली बीजेपी के आज तीन सौ से अधिक सांसद हैं। कई राज्यों में उसकी सरकारें हैं, लेकिन बीजेपी आज भी सर्वमान्य पार्टी नहीं बन पाई है। दक्षिण के राज्यों में उसकी पकड़ नहीं के बराबर है। कर्नाटक को छोड़ दें तो दक्षिण के राज्यों- आन्ध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना में आज भी बीजेपी ज्यादातर मुकाबले में नजर नहीं आती है। इसी के चलते बीजेपी पर पूरे देश की बजाए उत्तर भारतीयों की पार्टी होने का ठप्पा चस्पा रहता है। उत्तर भारत में भी बीजेपी को लेकर बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों की अलग-अलग धारणा है। कभी बीजेपी को बनिया (व्यापारियों) और ब्राह्मणों की पार्टी कहा जाता था, तो ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं थी जो बीजेपी को शहरी पार्टी बताया करते थे। इस अभिशाप को मिटाने के लिए बीजेपी को काफी पापड़ बेलने पड़े तो प्रभु राम ने उसका (बीजेपी) बेड़ा पार किया।
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अयोध्या में भगवान राम की जन्मस्थली के पांच सौ वर्ष पुराने विवाद में ‘कूद’ कर बीजेपी ने ऐसा रामनामी चोला ओढ़ा कि वह बनिया-ब्राह्मण की जगह हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की लम्बरदार बन बैठी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की राजनैतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी ने वर्षों से अलग-अलग अपनी ढपली बजाने वाले हिन्दुओं को भगवान राम के नाम पर एकजुट करके उसे बीजेपी का वोट बैंक भी बना दिया, लेकिन फिर भी बीजेपी के ऊपर शहरी पार्टी होने का ठप्पा तो लगा ही रहा। यह वह दौर था जब बीजेपी को छोड़कर कांग्रेस सहित अन्य तमाम गैर-भाजपाई दल मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत में लगे हुए थे। वहीं हिन्दुओं के वोट बंटे रहें, इसके लिए साजिशन हिन्दुओं के बीच जातिवाद घोलकर उनके वोटों में बिखराव पैदा किया गया। यादवों के रहनुमा मुलायम बन गए और मायावती दलितों को साधने में सफल रहीं। हिन्दुओं के वोट बैंक में बिखराव के सहारे ही बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने वर्षों तक सत्ता हासिल करने में कामयाबी हासिल की। बसपा सुप्रीम मायावती ने भी कई बार दलित-मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाबी हासिल की। यह सब तब तक चलता रहा जब तक कि भारतीय जनता पार्टी में मोदी युग का श्रीगणेश नहीं हुआ था।
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जलाई की शहर से लेकर गाँव तक में मोदी-मोदी होने लगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि बीजेपी ने गाँव-देहात में अपने संगठन को मजबूत कर लिया था। बीजेपी पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा था। इस ठप्पे को हटाने के लिए ही मोदी सरकार ने तमाम विकास योजनाओं का रूख गांव-देहात और अन्नदाताओं की तरफ मोड़ दिया। फसल बीमा योजना, कृषि में मशीनीकरण, जैविक खेती, सॉइल हेल्थ कार्ड और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना ऐसी प्रमुख योजनाएं हैं जो केंद्र सरकार के द्वारा चलाई जा रही हैं। किसानों से लगातार संवाद किया जा रहा है। किसानों की माली हालत सुधारने के लिए कई राहत पैकजों की भी घोषणा की गई। नया कृषि कानून भी इसका हिस्सा है जिसको लेकर आजकल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा भी खोल रखा है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने नये कृषि कानून पर अंतरिम रोक लगा कर एक कमेटी भी गठित कर दी है।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों को लेकर कई कदम उठा रहे हैं तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की योगी सरकार भी केन्द्र सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुए कई किसान योजनाएं लेकर आई है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में सिंचन क्षमता में वृद्धि तथा सिंचाई लागत में कमी लाकर कृषकों की आय में वृद्धि करने के उद्देश्य से स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। 50 लाख किसान ड्रिप स्प्रिंकलर सिंचाई योजना से लाभान्वित हुए। योजना में लघु एवं सीमांत कृषकों को 90 प्रतिशत एवं सामान्य कृषकों को 80 फीसदी का अनुदान मिला है। लघु, सीमांत, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कृषक समूह के लिए मिनी ग्रीन ट्यूबवेल योजना की भी शुरुआत की गई है। योजना के तहत नलकूप के सबमर्सिबल पम्प का संचालन सौर ऊर्जा के माध्यम से किया जाएगा।
योगी सरकार खेतों की मुफ्त में जुताई और बुवाई का भी कार्यक्रम लेकर आई है। पहले चरण में ये योजना यूपी के लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर समेत 16 जिलों में लागू की गई। इसके तहत लघु और सीमांत किसानों को राहत देने के लिए योगी सरकार ने ट्रैक्टरों से मुफ्त में खेतों की जुताई और बुवाई कराने जैसी बड़ी सुविधा दी गई है। मुख्यमंत्री कृषक योजना के तहत 500 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। हाल ही में किसान सम्मान निधि योजना के तहत 2.13 करोड़ किसानों के बैंक खातों में 28,443 करोड़ रुपये हस्तांतरित किये गये। देश के किसानों के लिए यह सब योजनाएं केन्द्र की मोदी सरकार लाई है तो यूपी की योगी सरकार अपने प्रदेश के किसानों की माली हालत सुधारने में लगी है।
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बात सरकार से अलग संगठन की कि जाए तो भारतीय जनता पार्टी इसमें भी अपनी पूरी ताकत झोंके हुए है। शहर के चौक-चौराहों से निकलकर बीजेपी गाँव-देहात में चौपालों तक दस्तक देने लगी है। इसीलिए भारतीय जनता पार्टी पंचायत चुनावों में भी ताल ठोंकने लगी है। कई राज्यों के पंचायत चुनाव में बीजेपी अपनी ताकत दिखा भी चुकी है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनता पार्टी ने गांव की सरकार के चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। भाजपा पंचायत चुनाव को लेकर बेहद गंभीर है। अबकी बार बीजेपी अपने चुनाव चिन्ह कमल के निशान पर पंचायत चुनाव लड़ने जा रही है ताकि भविष्य में बीजेपी ताल ठोक कर कह सके कि उसकी पहुंच गाँव-गाँव तक है।
दरअसल, पार्टी अभी तक त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव (जिला पंचायत, क्षेत्र पंचायत और ग्राम पंचायत) में अपने उम्मीदवारों को सिर्फ समर्थन देती थी, सिंबल नहीं दिया जाता था। प्रत्याशी को बीजेपी समर्थित कहा जाता था, लेकिन मौजूदा बीजेपी नेतृत्व का मानना है कि हर राजनीतिक दल को खुद का कर्तव्य मानकर हर चुनाव में उम्मीदवार उतारने चाहिए क्योंकि चुनाव के दौरान सियासी दलों को अपनी नीतियां और योजनाओं को आमजन के सामने रखने का खास अवसर मिलता है। चुनाव सियासी दलों की परीक्षा समान हैं।
-अजय कुमार
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- अजय कुमार
- मार्च 4, 2021 12:12
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सियासत में टाइमिंग का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा उत्तर भारतीयों पर दिए गए बयान पर कहीं कोई खास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिल रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि राहुल का बयान ‘नेपथ्य’ में चला गया है।
राजनीति में टाइमिंग का बेहद महत्व होता है। कब कहां क्या बोलना है और कब किसी मुद्दे या विषय पर चुप्पी साध लेना बेहतर रहता है। इस बात का अहसास नेताओं को भली प्रकार से होता है, जो नेता यह बात जितने सलीके से समझ लेता है, वह सियासत की दुनिया में उतना सफल रहता है और आगे तक जाता है। मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस मामले में अव्वल हैं तो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं है कि कब कहां, क्या बोलना सही रहता है। यही वजह है कि सियासत की दुनिया में मोदी नये मुकाम हासिल कर रहे हैं, वहीं राहुल गांधी हाशिये पर पड़े हुए हैं। राहुल की बातों को सुनकर लगता ही नहीं है कि उन्हें सियासत की गहराई पता है जबकि उन्होंने जन्म से ही घर में सियासी माहौल देखा था। राहुल गांधी से पूर्व नेहरू-गांधी परिवार ने जनता की नब्ज को पहचानने में महारथ रखने के चलते ही वर्षों तक देश पर राज किया था।
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पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू हों या फिर इंदिरा गांधी या पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, यह सभी यह बात जानते-समझते थे कि कैसे जनता से संवाद स्थापित किया जाता है। राजीव गांधी ही की तरह सोनिया गांधी को भी तमाम लोग एक सफल राजनेत्री मानते थे, लेकिन राहुल-प्रियंका इस मामले में कांग्रेस की सबसे कमजोर कड़ी साबित हो रहे हैं, लेकिन अब कांग्रेस के पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है। राहुल गांधी की असफलता के बाद कांग्रेस प्रियंका वाड्रा को ‘ट्रम्प कार्ड’ के रूप में लेकर आगे आई थी, लेकिन अब प्रियंका की भी सियासी समझ पर सवाल उठने लगे हैं। सियासत का एक दस्तूर होता है, यहां हड़बड़ी से काम नहीं चलता है। बल्कि पहले मुद्दों को समझना होता है फिर सियासी दांवपेंच चले जाते हैं।
यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि जनता की नब्ज पहचानने की कूवत जमीन और जनता से जुड़े नेताओं में समय के साथ स्वतः ही विकसित होती रहती है। इसके लिए कोई पैमाना नहीं बना है। इसी खूबी के चलते ही तो बाबा साहब अंबेडकर, डॉ. राम मनोहर लोहिया, सरदार पटेल, जयप्रकाश नारायण, चौधरी चरण सिंह, देवीलाल, जगजीवन लाल, अटल बिहारी वाजपेयी, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, सुश्री मायावती, ममता बनर्जी, नीतिश कुमार, अरविंद केजरीवाल जैसे तमाम नेताओं को आम जनता ने फर्श से उठाकर अर्श पर बैठा दिया। यह सब नेता जनता की नब्ज और परेशानियों को अच्छी तरह से जानते-समझते थे। जनता के साथ रिश्ते बनाने की कला इनको खूब आती थी। उक्त तमाम नेता जन-आंदोलन से निकले थे। राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, चिराण पासवान की तरह उक्त नेताओं को अपने पिता या परिवार से किसी तरह की कोई सियासी विरासत नहीं मिली थी। किसी तरह की सियासी विरासत का नहीं मिलना ही, उक्त नेताओं की राजनैतिक कामयाबी का मूलमंत्र था।
बहरहाल, सियासत में टाइमिंग का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा उत्तर भारतीयों पर दिए गए बयान पर कहीं कोई खास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिल रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि राहुल का बयान ‘नेपथ्य’ में चला गया है। बीजेपी नेता यदि राहुल पर हमलावर नहीं हैं तो इसकी वजह है दक्षिण के राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनाव। बीजेपी उत्तर भारतीयों पर दिए राहुल गांधी के बयान पर हो-हल्ला करके दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा में होने वाले चुनाव में कांग्रेस को कोई सियासी फायदा नहीं पहुंचाना चाहती है, लेकिन अगले वर्ष जब उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव होंगे तब जरूर बीजेपी राहुल गांधी के बयान को बड़ा मुद्दा बनाएगी और निश्चित ही इसका प्रभाव भी देखने को मिलेगा। बीजेपी नेताओं को तो वैसे भी इसमें महारथ हासिल है।
खासकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव के समय ही विपक्ष के खिलाफ मुखर होते हैं, तब वह विरोधियों के अतीत में दिए गए बयानों की खूब धज्जियां उड़ाते हैं। सोनिया गांधी के गुजरात में मोदी पर दिए गए बयान ‘खून का सौदागार’ को कौन भूल सकता है, जिसके बल पर मोदी ने गुजरात की सियासी बिसात पर कांग्रेस को खूब पटखनी दी थी। इसी प्रकार कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व जब मीडिया से रूबरू होते हुए यह कहा कि एक चाय वाला भारत का प्रधानमंत्री नहीं हो सकता है तो इसी एक बयान के सहारे मोदी ने लोकसभा चुनाव की बिसात ही पलट दी। मोदी ने मणिशंकर अय्यर के बयान को खूब हवा दी।
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दरअसल, जनवरी 2014 में मणिशंकर अय्यर ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था, '21वीं सदी में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन पाएं, ऐसा मुमकिन नहीं है। मगर, वह कांग्रेस के सम्मेलन में आकर चाय बेचना चाहें, तो हम उनके लिए जगह बना सकते हैं।’ इस बयान पर ऐसा बवाल हुआ था कि कांग्रेस को जवाब देते नहीं बन रहा था। कांग्रेस की सहयोगी पार्टियां भी अय्यर के इस बयान के खिलाफ खड़ी हो गई थीं और कहा था कि मोदी को चाय वाला कहना गलत है।
इसी प्रकार 2014 के लोकसभा चुनाव के समय ही एक जनसभा में भाषण देते हुए प्रियंका वाड्रा ने मोदी को नीच कह दिया था। प्रियंका गांधी ने मोदी की राजनीति को नीच बताया था। तब मामला नीच जाति तक पहुंच गया था। हुआ यूं कि अमेठी में नरेंद्र मोदी ने स्व. राजीव गांधी पर सीधा हमला बोला था, जिसके बाद उनकी बेटी प्रियंका गांधी ने कहा था कि मोदी की ‘नीच राजनीति’ का जवाब अमेठी की जनता देगी। मोदी ने प्रियंका के इस बयान को नीच राजनीति से निचली जाति पर खींच लिया और बवंडर खड़ा कर दिया। मोदी ने तब प्रियंका की नीच राजनीति वाले बयान पर कहा था कि सामाजिक रूप से निचले वर्ग से आया हूं, इसलिए मेरी राजनीति उन लोगों के लिये ‘नीच राजनीति’ ही होगी। हो सकता है कुछ लोगों को यह नजर नहीं आता हो, पर निचली जातियों के त्याग, बलिदान और पुरुषार्थ की देश को इस ऊंचाई पर पहुंचाने में अहम भूमिका है। प्रियंका के बयान पर कांग्रेस सफाई देते-देते परेशान हो गई, लेकिन इससे उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ और इसका खामियाजा कांग्रेस को सबसे बड़ी हार के रूप में भुगतना पड़ा।
लब्बोलुआब यह है कि राजनीति में कभी कोई मुद्दा या बयान ठंडा नहीं पड़ता है। आज भले ही बीजेपी के बड़े नेता राहुल गांधी के उत्तर भारतीयों पर दिए गए बयान को लेकर शांत दिख रहे हों, लेकिन राहुल के बयान के खिलाफ चिंगारी तो सुलग ही रही है। वायनाड से पहले अमेठी से सांसद रहे राहुल गांधी का केरल में उत्तर भारतीयों को लेकर दिया गया बयान न उनके पूर्व चुनाव क्षेत्र अमेठी के लोगों को रास आ रहा है न ही कांग्रेस के गढ़ रहे रायबरेली के लोगों को। लोगों का कहना है कि रायबरेली और अमेठी के लोगों ने गांधी परिवार को अपना नेता माना था और यह (अमेठी) उत्तर भारत में ही है। ऐसे में उनकी टिप्पणी उचित नहीं है। ऐसा बोल कर उन्होंने अपनों को पीड़ा पहुंचाई है। अमेठी से वह चुनाव जरूर हारे, लेकिन रायबरेली का प्रतिनिधित्व उनकी मां सोनिया गांधी के हाथ में है।
-अजय कुमार
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- संजय सक्सेना
- मार्च 3, 2021 13:29
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अखिलेश साल की शुरुआत में लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय में अयोध्या से आए महंत और मौलवियों से मिले। उन्होंने इस मौके पर ऐलान किया था कि अगर यूपी में एसपी की सरकार बनती है तो भगवान श्रीराम की नगरी में मठ-मंदिर, मस्जिद-गुरुद्वारा, गिरजाघर और आश्रम पर कोई टैक्स नहीं लगेगा।
2017 में सत्ता गंवाने के बाद पिछले चार वर्षों से सक्रिय राजनीति से दूर सोशल मीडिया पर ट्विट करके अपनी राजनीति चमका रहे सपा प्रमुख अखिलेश यादव चुनावी वर्ष में काफी सक्रिय हो गए हैं। अखिलेश घर से बाहर निकल कर लोगों से मिल रहे हैं। मंदिर जा रहे हैं। महापुरूषों को याद कर रहे हैं। समाजवाद के पुरोधा डॉ. राम मनोहर लोहिया का गुणगान कर रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से अब अखिलेश जहां भी जाते हैं, वहां कई समाजवादी नेताओं के साथ-साथ उन संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का भी चित्र नजर आने लगा है। कहीं इसकी वजह यह तो नहीं कि उन्हें (अखिलेश) लग रहा हो कि बसपा सुप्रीमो मायावती सियासी रूप से कमजोर पड़ती जा रही हैं।
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सपा प्रमुख में इतना ही बदलाव नहीं दिख रहा है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव के लिए अखिलेश दरगाह या मस्जिद की जगह मंदिर-मंदिर घूमते दिख रहे हैं। अभी तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, महासचिव प्रियंका गांधी को ऐसा करते हुए देखा गया था। अब समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव का भी नाम इसमें जुड़ गया है। ऐसा लगता है कि अखिलेश, बीजेपी के हिन्दुत्व की काट निकालने में लगे हों। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव जो अपने पिता की तरह तुष्टिकरण की सियासत के चलते हमेशा हिंदुत्व की राजनीति करने वाले नेताओं के निशाने पर रहते थे, उनमें (अखिलेश) साफ्ट हिन्दुत्व की तरफ झुकाव तब देखने को मिला जब अखिलेश ने मिर्जापुर दौरे के दौरान विंध्यवासिनी देवी के दर्शन किए। अखिलेश ने मंदिर परिसर में समस्त देवी देवताओं की परिक्रमा करते हुए हवन कुंड में भी परिक्रमा की और आशीर्वाद लिया लेकिन यहां से कुछ ही दूरी पर स्थित कंतित शरीफ की दरगाह पर जाना उन्होंने उचित नहीं समझा। हालांकि पार्टी के लोग इसे समय की कमी का नतीजा बता रहे हैं तो वहीं राजनीतिक एक्सपर्ट इसे अखिलेश की बदली हुई रणनीति से जोड़कर देख रहे हैं।
दरअसल, होता यह आया है कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़ अन्य दलों के मिर्जापुर आने वाले नेता धर्मनिरपेक्ष दिखने के लिए विंध्यवासिनी मंदिर में दर्शन के बाद कंतित शरीफ दरगाह में मत्था टेकने जरूर जाते हैं। यहां अखिलेश के चादर चढ़ाने का इंतजार भी होता रहा लेकिन अखिलेश वहां नहीं पहुंचे। इसको लेकर दरगाह के संचालक भी काफी असहज महसूस कर रहे हैं। बताते चलें कि मिर्जापुर पहुंचकर अखिलेश यादव ने स्थानीय सर्किट हाउस में रात्रि विश्राम किया और मां विंध्यवासिनी मंदिर पहुंचे और मां की चुनरी लेकर दर्शन किए। अखिलेश ने विंध्यवासिनी देवी को कुलदेवी बताकर दर्शन किए। इसके बाद सूचना थी कि अखिलेश कंतित शरीफ की हजरत इस्माइल चिश्ती दरगाह पर चादरपोशी के लिए जाएंगे लेकिन वह मिर्जापुर शहर रवाना हो गए। सपा इस पर सफाई दे रही है कि समय की कमी होने के कारण अखिलेश दरगाह नहीं पहुच सके क्योंकि अखिलेश जी को वाराणसी के संत रविदास मंदिर भी जाना था, इस कारण वह दरगाह तक नहीं जा सके। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मिर्जापुर दौरे पर सक्तेशगढ़ आश्रम में भी दर्शन पूजन किया थे।
दरगाह न जाकर अखिलेश माघ पूर्णिमा के अवसर पर वाराणसी स्थित रविदास मंदिर पहुंचे। यहां इससे पहले केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी दर्शन कर चुकी थीं। फिर अखिलेश ने भी यहां पूजा पाठ किया। इसे दलित राजनीति से जोड़कर देखा गया लेकिन समाजवादी पार्टी का कोर वोटबैंक यादव-मुस्लिम के गठजोड़ को माना जाता है। ऐसे में सवाल यही है कि क्या वाकई अखिलेश ने अपनी रणनीति बदल ली है। राजनैतिक पंडित बताते हैं कि अखिलेश यादव की सियासत में यह बदलाव ऐसे ही नहीं आया है।
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गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी की तुष्टिकरण की सियासत के चलते पिछले कुछ चुनावों से सपा का गैर मुस्लिम वोट बैंक खिसकता जा रहा था। यहां तक की यादव जिन्हें समाजवादी पार्टी का कोर वोटर माना जाता है, चुनाव के समय उसका भी झुकाव बीजेपी की तरफ हो गया था। जिस कारण समाजवादी पार्टी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था। तात्पर्य यह है कि सपा को समझ में आ गया है कि जैसे बसपा सुप्रीमो मायावती केवल दलित वोटों के सत्ता की सीढ़ियां नहीं चढ़ पाती थीं, वैसे ही सपा भी सिर्फ मुस्लिम वोटरों के सहारे सरकार नहीं बना सकती है। मायावती ने जब ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ का नारा दिया था, तभी यूपी में उनकी बहुमत के साथ सरकार बनी थी। सपा के पास मुस्लिम-यादव समीकरण था, लेकिन मोदी की हिन्दुत्व वाली सियासत ने सपा के यादव वोट बैंक में सेंधमारी कर दी थी, जिसके चलते ही अखिलेश अर्श से फर्श पर आ गए थे। इसी के बाद पिछले कुछ समय से अखिलेश सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति की ओर बढ़ते नजर आ रहे हैं। इसके पीछे उनकी योजना यही है कि अगर चुनाव में बीजेपी धर्म के कार्ड का इस्तेमाल करे तो वह उसका बखूबी जवाब दे सकें।
इससे पहले अखिलेश साल की शुरुआत में लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय में अयोध्या से आए महंत और मौलवियों से मिले। उन्होंने इस मौके पर ऐलान किया था कि अगर यूपी में एसपी की सरकार बनती है तो भगवान श्रीराम की नगरी में मठ-मंदिर, मस्जिद-गुरुद्वारा, गिरजाघर और आश्रम पर कोई टैक्स नहीं लगेगा। इसी साल 8 जनवरी को अखिलेश चित्रकूट के लक्ष्मण पहाड़ी मंदिर पहुंचे थे और कामदगिरि मंदिर की परिक्रमा करते दिखाई दिए थे। इससे पूर्व 15 दिसंबर 2020 को अखिलेश यादव ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण वाली जगह का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने अपनी पार्टी की ओर किए गए धार्मिक कार्यों को गिनाने की कोशिश की। इसके बाद से अखिलेश लगातार मंदिरों को चक्कर लगा रहे हैं। अखिलेश जहां भी जा रहे हैं वहां के प्रमुख मंदिरों के दर्शन कर रहे हैं। यह बात उनके मुस्लिम वोटरों को कितनी रास आएगी, यह तो समय ही बताएगा।
-संजय सक्सेना
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- अजय कुमार
- मार्च 2, 2021 13:08
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उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार के चार वर्ष पूरे होने की खुशी में 19 मार्च से जिला व प्रदेश स्तर पर कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं ताकि सरकार की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाया जा सके। चुनावी वर्ष में ऐसा करना बेहद जरूरी भी है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार अपना अंतिम पूर्ण बजट पेश करने के साथ ही चुनावी मोड में आ गई है। बजट के जरिए मिशन-2022 को फतह करने की कवायद शुरू हुई थी जिसे योगी सरकार के चार वर्ष पूरे होने की खुशी में पूरे प्रदेश में कार्यक्रम आयोजित करके और आगे बढ़ाया जाएगा। इसी कड़ी में 19 मार्च से योगी सरकार की उपलब्धियों को घर-घर तक पहुंचाने के लिए अभियान चलाया जाएगा। अंतिम बजट पेश करते समय जहां सरकार ने नौजवानों से लेकर किसानों और महिलाओं के साथ-साथ अपने मूल एजेंडे हिंदुत्व और अपने शहरी कोर वोट बैंक को साधे रखने के लिए बजट में पांच बड़े राजनीतिक संदेश देने की कवायद की थी। वहीं चार वर्ष पूरे होने की खुशी में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में किसानों और बेरोजगारी दूर करने के लिए उठाए गए कदमों पर ज्यादा फोकस रहेगा। कोरोना काल में योगी सरकार ने जिस तरह से मजदूरों की मदद की, लोगों के लिए अन्न के भंडार खोले, आर्थिक मदद की और इस दौरान भी विकास कार्योa को जारी रखा, यह योगी सरकार की बड़ी उपलब्धि थी, जिसे योगी सरकार चुनाव के समय भुनाना चाहेगी।
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योगी सरकार के चार वर्ष पूरे होने की खुशी में 19 मार्च से जिला व प्रदेश स्तर पर कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, ताकि सरकार की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाया जा सके। चुनावी वर्ष में ऐसा करना बेहद जरूरी भी है। चुनाव का समय ज्यों जो नजदीक आता जाएगा बीजेपी का मिशन-2022 त्यों त्यों तेजी पकड़ता जाएगा। फिलहाल भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश स्तर के पदाधिकारी/कार्यकर्ता और योगी सरकार के मंत्री ही मिशन-2022 में ‘हवा’ भरते नजर आएंगे, क्योंकि अभी बीजेपी आलाकमान का सारा ध्यान मार्च-अप्रैल में होने वाले पांच राज्यों- तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम, केरल और पुदुचेरी (केन्द्र शासित प्रदेश) चुनाव जीतने पर लगा हुआ। बीजेपी आलाकमान को विश्वास है कि पांच में से तीन राज्यों में बीजेपी की ही सरकार बनेगी। उक्त पांच राज्यों में बीजेपी बेहतर प्रदर्शन करने में कामयाब रही तो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव पर भी इसका असर पड़ना तय है।
बहरहाल, योगी सरकार को सबसे अधिक मेहनत किसानों की नाराजगी दूर करने में लगानी होगी तो बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल और गैस के दामों में बेतहाशा वृद्धि के चलते गृहणियों की एवं बेरोजगारी के कारण नौजवानों की नाराजगी भी भाजपा के मिशन-2022 के लिए बड़ा सियासी खतरा नजर आ रहा है। भाजपा इन मुद्दों से कैसे निपटेगी या फिर वह (भाजपा) विराट हिन्दुत्व की सियासत के सहारे इन मुद्दों को नेपथ्य में डाल देने में कामयाब रहेगी। यह भी देखना होगा।
बात किसानों की कि जाए तो नये कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का गुस्सा केन्द्र की मोदी सरकार के खिलाफ बढ़ता जा रहा है। इसकी तपिश अगले वर्ष होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिल सकती है। अभी तक बीजेपी द्वारा किसान आंदोलन को पश्चिमी यूपी के तीन-चार जिलों तक सीमित बताया जा रहा था, लेकिन अब भारतीय किसान यूनियन के नेता पूरे प्रदेश का भ्रमण करके नये कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों को आंदोलित करने में लग गए हैं, जिसके चलते धीरे-धीरे किसान आंदोलन मध्य और पूर्वांचल के इलाके को अपने जद में लेने लगा है। गौरतलब है कि किसान राज्य की करीब 300 सीटों की दशा और दिशा तय करने में सक्षम हैं। समस्या यह है कि चाहे मोदी सरकार हो या फिर योगी सरकार दोनों किसानों के हित की बड़ी-बड़ी बातें और दावे तो कर रहे हैं, लेकिन किसानों का विश्वास दोनों ही सरकारें नहीं जीत पा रही हैं। किसानों का सरकार से विश्वास उठता जा रहा है।
बात सरकार की कि जाए तो उसने किसानों की आय को साल 2022 तक दोगुना करने का लक्ष्य रखा है। इसके साथ ही मुख्यमंत्री कृषक दुर्घटना कल्याण योजना के अन्तर्गत 600 करोड़ रुपये की व्यवस्था बजट में प्रस्तावित है, जिसमें सरकार किसान का 5 लाख का बीमा कराएगी। योगी सरकार के अंतिम बजट में किसानों को मुफ्त पानी की सुविधा के लिए 700 करोड़ रुपये और रियायती दरों पर किसानों को फसली ऋण उपलब्ध कराए जाने हेतु अनुदान के लिए 400 करोड़ रुपये की व्यवस्था प्रस्तावित है। सरकार ने एक फीसदी ब्याज दर पर किसानों को कर्ज मुहैया कराने का ऐलान भी किया है। वहीं प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान के अन्तर्गत वित्तीय वर्ष 2021-22 में 15 हजार सोलर पम्पों की स्थापना का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके अलावा योगी सरकार ने गन्ना किसानों के चार साल में किए भुगतान का भी जिक्र कर यह बताने की कोशिश की है कि अब तक की सभी सरकारों से ज्यादा बीजेपी के कार्यकाल में भुगतान किए गए हैं। वैसे अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव से पूर्व जल्द ही होने जा रहे पंचायत चुनाव के नतीजों से बीजेपी को काफी कुछ सियासी 'संदेश’ मिल जाएगा। अगर पंचायत चुनाव के नतीजे बीजेपी के मनमाफिक आए तो यह माना जाएगा कि जितना प्रचार किया गया, उतना किसान सरकार से नाराज नहीं है।
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पंचायत चुनाव को योगी सरकार अगले वर्ष होने जा रहे विधानसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास मान रही हैं। पंचायत चुनाव जीतने के लिए भी योगी सरकार ने कम मेहनत नहीं की है। सरकारी खजाने का मुंह गांवों की तरफ मोड़ दिया गया है। पंचायती राज के लिए करीब 712 करोड़ रुपये, प्रत्येक न्याय पंचायत में चंद्रशेखर आजाद ग्रामीण विकास सचिवालय की स्थापना के लिये 10 करोड़ रुपये, इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री पंचायत प्रोत्साहन योजना के अन्तर्गत उत्कृष्टग्राम पंचायतों को प्रोत्साहित किये जाने हेतु 25 करोड़ रुपये, ग्राम पंचायतों में बहुउद्देशीय पंचायत भवनों के निर्माण हेतु 20 करोड़ रुपये की व्यवस्था और राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान योजना के अंतर्गत पंचायतों की क्षमता संवर्धन, प्रशिक्षण एवं पंचायतों में संरचनात्मक ढांचे के निर्माण हेतु 653 करोड़ रुपये की बजट व्यवस्था प्रस्तावित है। योगी सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के अन्तर्गत 7000 करोड़ रुपये की बजट व्यवस्था तो मुख्यमंत्री आवास योजना-ग्रामीण के अंतर्गत 369 करोड़ रुपये का ऐलान किया है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के अन्तर्गत 35 करोड़ मानव दिवस का रोजगार सृजन का लक्ष्य रखा गया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 5548 करोड़ रुपये की बजट व्यवस्था रखी गई है। यह सब करके योगी सरकार ने यूपी के गांवों को साधने का बड़ा दांव चला है।
चुनाव कोई भी और किसी भी स्तर का हो, भाजपा अपने तरकश से हिन्दुत्व का तीर जरूर चलती है। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी इसे खूब धार देगी। वैसे भी योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही हिंदुत्व से जुड़े हुए एजेंडे को खास अहमियत दी जा रही है। सूबे में हिंदू धर्म से जुड़े धार्मिक स्थलों पर सरकार दिल खोलकर पैसा लुटा रही है। गाय, गुरुकुल, गोकुल, सब बीजेपी के चुनावी मिशन का हिस्सा बन गए हैं। जब से योगी सरकार बनी है तब से उसका अयोध्या और काशी पर फोकस बना हुआ है। योगी अक्सर अयोध्या और काशी पहुंच जाते हैं। यानी योगी राज में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का परचम खूब लहराया जा रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार चुनाव के बाद कहा था कि देश की महिलाएं, नारी शक्ति हमारे लिए साइलेंट वोटर हैं। ग्रामीण से शहरी इलाकों तक, महिलाएं हमारे लिए साइलेंट वोटर का सबसे बड़ा समूह बन गई हैं। बिहार चुनाव में भी साफ दिखा था कि महिलाओं ने बड़ी तादाद में बीजेपी के पक्ष में वोट किया था। यही वजह है कि योगी सरकार द्वारा भी महिला मतदाताओं का खास ध्यान रखा जाता रहा है। योगी सरकार के गठन के तुरंत बाद एंटी रोमियो स्कवॉड बनाकर महिलाओं का विश्वास जीतने की कोशिश की गई थी तो चौथे वर्ष में जब प्रदेश में महिलाओं के साथ अपराध की घटनाएं बढ़ी तों महिलाओं के सम्मान और स्वाभिमान के लिए मिशन शक्ति चलाया गया।
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अबकी बजट में महिला सामर्थ्य योजना नाम से दूसरा प्लान योगी सरकार ने शुरू किया है, जिसके लिए बजट में 200 करोड़ रुपए दिए हैं। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए प्रदेश की सरकार मिशन शक्ति चला रही है, जिसके तहत उनको आत्मसुरक्षा और आत्मनिर्भरता दोनों की ट्रेनिंग दी जाती है। महिला शक्ति केंद्रों की स्थापना के लिए 32 करोड़ रुपए दिए हैं। बजट में ऐसी कई घोषणाएं की गई है जिनका फायदा महिलाओं और छात्राओं को मिलेगा। प्रदेश के प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं को पढ़ाई के लिए टैबलेट देने की घोषणा की गई है। रोजगार के लिए जनपदों में काउंसलिंग सेंटर बनाने की बात बजट में है। सामर्थ्य योजना के तहत महिलाओं को स्किल ट्रेनिंग दी जाएगी ताकि वो किसी काम में ट्रेंड हो सकें और उनके लिए रोजगार के अवसर बढ़ें।
-अजय कुमार
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