रीता बहुगुणा के रूप में भाजपा का ''मास्टर स्ट्रोक''

रणनीतिकार के रूप में खुद को बार-बार साबित कर चुके अमित शाह ने कांग्रेस के गुब्बारे में सुई चुभो दी है। सुई नहीं, बल्कि ''सुआ'' कहिये, क्योंकि इस छेद के बाद कांग्रेस की हवा तेजी से निकलेगी।

ब्राह्मण वोटों को लेकर कांग्रेस पार्टी ने क्या नहीं किया, बल्कि क्या-क्या नहीं किया। राहुल गाँधी को कई पोस्टरों में पंडित बताया गया, तो कई बार उनकी पंडित लड़की से शादी की बात भी चलाई गयी, 78 वर्ष की बुजुर्ग शीला दीक्षित को बुढ़ापे में ब्राह्मण के नाम पर मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया गया और न जाने क्या-क्या! पर रणनीतिकार के रूप में खुद को बार-बार साबित कर चुके अमित शाह ने कांग्रेस के गुब्बारे में सुई चुभो दी है। सुई नहीं, बल्कि 'सुआ' कहिये, क्योंकि इस छेद के बाद कांग्रेस की हवा तेजी से निकलेगी। सच कहा जाए तो अपने इस दांव से कई दिनों से पारिवारिक कलह की वजह से चर्चा बटोर रही समाजवादी पार्टी को भी पीछे धकेल दिया है। वैसे भी अखिलेश-शिवपाल विवाद कुछ ज्यादा ही लंबा खिंच गया है और लोगबाग अब बोर से होने लगे थे। जाहिर है, सीमा पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' का चुनावी लाभ लेने की कोशिश में लगी भाजपा ने कांग्रेस पार्टी से रीता बहुगुणा जोशी को निकालकर कांग्रेस (खासकर राहुल गाँधी) पर एक राजनीतिक 'सर्जिकल स्ट्राइक' कर डाला है।

देखा जाए तो इसका थोड़ा ही सही, मगर बहुजन समाज पार्टी पर असर जरूर होगा। ना... ना... बहनजी के दलित वोट की बात नहीं कर रहे हैं यहाँ, बल्कि पिछले कई चुनावों से ब्राह्मणों के अच्छे खासे वोट को अपने पाले में लाकर सोशल इंजीनियरिंग का कमाल दिखा चुकीं मायावती की चिंता इन्हीं ब्राह्मण वोटों को लेकर बढ़ गयी होगी। स्वामी प्रसाद मौर्या के बाद पिछले दिनों बसपा का एक और बड़ा ब्राह्मण चेहरा भाजपा का दामन पकड़ चुका है और अब रीता बहुगुणा से निश्चित रूप से ब्राह्मण वोटों का बड़ा हिस्सा भाजपा के पास लौटने की तैयारी में लग गया होगा। देखा जाए तो चर्चित शख्सियत होने के बावजूद रीता बहुगुणा जोशी की कांग्रेस में कुछ खास उपयोगिता नहीं रह गयी थी, किन्तु भाजपा के लिए वह निश्चित रूप से फायदेमंद साबित होने वालीं हैं। अगर पूरे घटनाक्रम पर नज़र घुमाएं तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सबसे बड़ी नेताओं में शुमार रीता बहुगुणा जोशी ने कांग्रेस को तलाक देकर यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की संभावनाएं बढ़ा दी हैं।

गौरतलब है कि रीता बहुगुणा जोशी ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में बीजेपी का दामन थामा। रीता बहुगुणा जोशी के साथ उनके बेटे मयंक जोशी ने भी बीजेपी का दामन थामा है। जाहिर तौर पर अब जोशी परिवार का पूरा कुनबा ही भाजपाई हो गया है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा में शामिल होने के बाद रीता बहुगुणा सीधे तौर पर राहुल गाँधी के नेतृत्व पर हमलावर दिखीं। वैसे भी एक-एक करके राहुल गाँधी को कांग्रेसी ही कोस चुके हैं। इसी कड़ी में, बीजेपी में शामिल होने के साथ ही रीता बहुगुणा जोशी ने सर्जिकल स्ट्राइक से जुड़े खून की दलाली वाले राहुल गांधी के बयान पर सवाल उठाए और पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की जमकर तारीफ की। हालाँकि, रीता बहुगुणा जोशी के कांग्रेस छोड़ने की अटकलें बीते कुछ दिनों से लगाई जा रही थीं और उस पर मुहर भी लग गई है। ऐसे में, कांग्रेस के लिए ये एक बड़ा झटका है और ऐसे वक़्त में लगा है जब पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता का वनवास खत्म होने के सपने संजो रही है, प्रशांत किशोर जैसे चुनावी रणनीतिकारों के सहारे आस लगाए बैठी है, उस स्थिति में रीता बहुगुणा का जाना निश्चित रूप से कांग्रेस और राहुल गाँधी की टीम के साथ प्रशांत किशोर की टीम के लिए भी किसी सदमे से कम न होगा। देखा जाए तो इसके लिए जिम्मेदार भी कहीं न कहीं कांग्रेस ही रही है। बीते चंद महीनों में यूपी में कांग्रेस के भीतर जिस तेज़ी से पार्टी की रणनीति बदली है और इस पूरे जोड़-तोड़ के समीकरण में रीता बहुगुणा जोशी हाशिए पर चली गई थीं, ऐसे में उनके लिए पार्टी का छोड़ना ही एक विकल्प बचा था।

गौरतलब है कि कांग्रेस ने सीएम उम्मीदवार के तौर पर शीला दीक्षित को पहले ही उतार दिया है, इसके अलावा राज बब्बर के पास यूपी कांग्रेस की कमान है। जाहिर तौर पर रीता के लिए कांग्रेस में करने को कुछ ख़ास था नहीं। ऊपर से तुर्रा यह कि राहुल की नादान बयानबाजियों से कांग्रेस के तमाम कैंडिडेट्स सशंकित हैं कि सरकार में अहम हिस्सेदारी तो दूर की बात है, कहीं खुद उनकी सीटें न उलझ जाएँ। रीता भी इसी शंका की शिकार थीं। इसके अतिरिक्त, रीता बहुगुणा जोशी के भाई पहले ही बीजेपी का दामन थाम चुके हैं। ज्ञातव्य हो कि विजय बहुगुणा उत्तराखंड के सीएम रह चुके हैं, और सीएम पद से हटाए जाने के बाद ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया। देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस तो कांग्रेस सपा और बसपा जैसी पार्टियां भाजपाई मास्टरस्ट्रोक के बाद कौन सा दांव चलते हैं। वैसे, मेरे मन में बसपा के संस्थापक कांशीराम का दौर याद आ रहा है, तब एक नारा खूब चला था कि 'मिले मुलायम-कांशीराम' ....  !!

हालाँकि, यह अभी दूर की कौड़ी है, किन्तु अगर बिहार में दो विपरीत धड़े मिल चुके हैं तो यूपी में भी कहीं! उधर अमित शाह अपना घोड़ा सरपट दौड़ाये जा रहे हैं और उनके घोड़े की स्पीड देखकर तो यही लग रहा है कि अगर मुलायम-कांशीराम वाला इतिहास दुहराया नहीं गया तो फिर भाजपा की पूर्ण बहुमत सरकार भी बन सकती है। हालाँकि, अभी काफी समय शेष है और शह / मात के कई दांव बाकी हैं। सुनते हैं कि भाजपा ने विपक्षी दलों के बड़े नेताओं की लंबी-चौड़ी लिस्ट बना रखी है तोड़-फोड़ का प्रयोग करने के लिए। हालाँकि, इतनी बड़ी मात्रा में बाहरी नेताओं को शामिल करने का भाजपा के भीतर क्या साइड इफ़ेक्ट होगा, यह भी देखने वाली बात होगी। पर चूँकि केंद्र में मोदी का प्रभामंडल और अमित शाह का भाजपा पर एकछत्र राज है, इसलिए शायद इसका बाहरी प्रभाव न दिखे, किन्तु भीतर ही भीतर... कौन जाने!

वैसे, भीतर ही भीतर अखिलेश-शिवपाल-मुलायम का एपिसोड भी खिंचता चला जा रहा है और इसमें लोगों की दिलचस्पी बेशक कुछ कम हुई हो, पर निगाहें तो जमी ही हैं। देखना दिलचस्प होगा कि अमित शाह के 'रीता बहुगुणा' इफ़ेक्ट की काट कांग्रेस और बसपा किस तरह ढूंढ कर लाती हैं। वैसे इन पूरी चर्चाओं के बीच मुझे राहुल गांधी पर बहुत तरस आ रहा है। आज एक वरिष्ठ पत्रकार राहुल से सहानुभूति जताते हुए भावुक हो गए और कह उठे, बिचारे को किसी और काम पर क्यों नहीं लगातीं हैं सोनिया जी! अब इसका 'उत्तर' उन्हें भला मैं कैसे देता? वैसे 'उत्तर प्रदेश' क्या 'उत्तर' देने वाला है, इसकी तस्वीर धीरे-धीरे साफ़ होती नज़र आ रही है... !!

- मिथिलेश कुमार सिंह

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