तलवार की धार पर चल रही है चंपई सरकार, संकटों का दौर खत्म ही नहीं हो रहा
बता दें कि पार्टी के भीतर विरोध का पहला स्वर हेमंत सोरेन के घर से ही उठा था, जब उनकी भाभी सीता सोरेन ने साफ−साफ कह दिया था कि हेमंत पत्नी कल्पना की बजाए उन्हें आगे बढ़ाएं, लेकिन हेमंत को यह स्वीकार नहीं था।
झारखंड में झामुमो नेता चंपई सोरेन के नेतृत्व में जैसे−तैसे आइएनडीआइए की सरकार भले ही बन गई हो, किंतु सरकार के सिर से राजनीतिक संकट अभी टला नहीं है। दरअसल, कुर्सी जाने की स्थिति में तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा पत्नी कल्पना सोरेन को मुख्यमंत्री बनाने की जोड़−तोड़ शुरू करने के बाद पार्टी के भीतर शुरू हुआ विरोध रह−रहकर अलग−अलग रूपों में सिर उठा रहा है। हेमंत सोरेन के विरुद्ध सुलगने वाली विद्रोह की यह पहली चिंगारी थी, जो पार्टी के भीतर का असंतोष का भाव, अनुशासनहीनता और बिखराव को रेखांकित करने वाली थी, जिसे हेमंत ने या तो अनदेखा कर दिया अथवा वे उसे समझ ही नहीं पाए। हालांकि वे एक गंभीर तथा चुनौतियों के प्रति जागरूक रहने वाले राजनेता हैं। इसलिए इस बात की संभावना अधिक लगती है कि उन्होंने विद्रोह की चिंगारी को अनदेखा कर दिया होगा, जिसका बिल्कुल साफ संदेश यह था कि पार्टी के नेताओं की सत्यनिष्ठा तभी तक कायम है, जब तक पार्टी पर शिबू सोरेन या उनके राजनीतिक वारिस हेमंत की पकड़ मजबूत है। तात्पर्य यह कि पार्टी पर सोरेन परिवार की पकड़ कमजोर होते ही झामुमो में खींचतान शुरू हो जाएगी, जैसा कि फिलहाल कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर देखा जा सकता है। वैसे हेमंत सोरेन को भी इस बार मालूम हो ही गया कि पार्टी के भीतर नेतृत्व के कई दावेदार मौजूद हैं, जिन्होंने दबी जुबान से मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी ठोंकी भी थी।
बता दें कि पार्टी के भीतर विरोध का पहला स्वर हेमंत सोरेन के घर से ही उठा था, जब उनकी भाभी सीता सोरेन ने साफ−साफ कह दिया था कि हेमंत पत्नी कल्पना की बजाए उन्हें आगे बढ़ाएं, लेकिन हेमंत को यह स्वीकार नहीं था। पार्टी सूत्रों के अनुसार इस मामले में हेमंत की स्पष्ट सोच थी कि भले ही किसी और को मुख्यमंत्री बनाना पड़े, किंतु अपने सगे भाई की विधवा को वे कतई नहीं बनने देंगे। वैसे सूत्र तो बताते हैं कि कुछ अन्य झामुमो विधायकों ने भी कल्पना सोरेन के नाम पर आपत्ति जाहिर की थी। चार से छह विधायक ईडी की पूछताछ से पूर्व हेमंत सोरेन द्वारा बुलाई गई आइएनडीआइए की आपात और अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक से भी नदारद थे। झारखंड की राजनीति को जानने−समझने वाले जानते हैं कि कभी सुप्रीमो रहे शिबू सोरेन की वाणी ही पार्टी का संविधान और उनका आदेश ही पार्टी का एजेंडा माना जाता था। तब पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं में से किसी की ये हिम्मत नहीं होती थी कि वह पार्टी सुप्रीमो के सामने सिर उठाकर बात भी करे। तात्पर्य यह कि शिबू सोरेन का अपने परिवार और पार्टी दोनों पर ही पूर्ण नियंत्रण और दबदबा कायम रहता था। बहरहाल, हेमंत सोरेन ने पार्टी के भीतर सुलगने वाले विद्रोह की चिंगारी को तात्कालिक रूप से दबाने में कामयाबी तो हासिल कर ली, किंतु सच कहें तो यह कभी भी आग का रूप ले सकती है।
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इधर आइएनडीआइए गठबंधन के दूसरे प्रमुख घटक दल कांग्रेस के भीतर असंतोष, अनुशासनहीनता और बिखराव का नया दौर झारखंड में देखने को मिल रहा है। बता दें कि चंपई सोरेन की सरकार में हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार के बाद से ही मंत्री पद नहीं मिलने की वजह से नाराज चल रहे कांग्रेस के 12 असंतुष्ट विधायकों में से 09 विधायक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल से मिलकर उनके समक्ष अपनी मांगें रखने के लिए 17 फरवरी से दिल्ली में डेरा डाले हुए थे। गौरतलब है कि कई दिन व्यतीत हो जाने के बाद पार्टी सुप्रीमो ने मध्य प्रदेश कांग्रेस विधायक दल के नेता उमंग सिंघार को नाराज विधायकों से बातचीत कर उन्हें समझाने की जिम्मेदारी सौंपी थी, जिसके बेकार साबित होने के बाद अंततः पार्टी की ओर से केसी वेणुगोपाल को नाराज विधायकों से मुलाकात कर उन्हें समझाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। खबरों के अनुसार 20 फरवरी को गांधी परिवार से निकटता रखने वाले केसी वेणुगोपाल ने दिल्ली में डेरा जमाए सभी 09 विधायकों से मिलकर वन−टू−वन बातचीत की, जिसके बाद नाराज विधायकों का रुख अब नरम बताया जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि नाराज विधायकों को अभी कुछ दिन रूकने के लिए कहा गया है, क्योंकि झारखंड के नवगठित मंत्री परिषद् से कांग्रेसी मंत्रियों को अभी हटाने से जनता के बीच गलत संदेश जाएगा।
बहरहाल, इस बात की पूरी संभावना है कि कांग्रेस सुप्रीमो की ओर से नाराज विधायकों को लोकसभा चुनाव से पहले खुश करने की कोशिश की जाएगी। संभावना यह भी है कि उन्हें मनाने के लिए उनसे ऐसे वादे भी किए भी गए हों। वैसे देखा जाए तो कांग्रेस के भीतर की नाराजगी फिलहाल तो शांत हो गई है, लेकिन यह शांति स्थाई नहीं हो सकती, बल्कि इस बात की अधिक संभावना है कि यह समंदर में आने वाले तूफान के पहले की शांति साबित होगी, क्योंकि झारखंड विधानसभा में कांग्रेस के अभी 16 विधायक हैं और सभी विधायक मंत्री बनने की इच्छा रखते हैं। जाहिर है कि कांग्रेस पार्टी के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं है।
गौरतलब है कि यदि नाराज विधायकों की मांगें समय रहते मानी गईं, तो पार्टी के भीतर का असंतोष और अनुशासनहीनता एक बड़े बिखराव और टूट का कारण बन सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो चंपई सरकार तलवार की धार पर चलती हुई प्रतीत हो रही है। वैसे विचारणीय तो यह भी है कि पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अपनी ही पार्टी के नाराज विधायकों से तो नहीं मिले, लेकिन झारखंड के सीएम चंपई सोरेन को मिलने के लिए उन्होंने तुरंत समय दे दिया। समझा जा रहा है कि उन्होंने सीएम सोरेन को राज्य में जातीय जनगणना कराने संबंधी राजनीतिक मंत्र भी प्रदान किया है। बता दें कि जातीय जनगणना कांग्रेस के राजनीतिक एजेंडे में पहले से ही शामिल रहा है। राहुल गांधी जहां भी जाते हैं, जातीय जनगणना के पक्ष में अपने विचार रखते रहते हैं।
वैसे झारखंड विकास मोर्चा से कांग्रेस में शामिल हुए और वर्तमान में कांग्रेस के विधायक प्रदीप यादव पहले से ही झारखंड में जातीय जनगणना कराने तथा पिछड़ों का आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने की मांग करते रहे हैं। हाल ही में उन्होंने जातीय जनगणना को लेकर सीएम को एक ज्ञापन भी सौंपा था, जिसको लेकर यह उम्मीद की जा रही है कि लोकसभा चुनाव के खत्म होते ही झारखंड में जातीय जनगणना कराने का काम शुरू हो जाएगा।
−चेतनादित्य आलोक
वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं राजनीतिक विश्लेषक, रांची, झारखंड
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