बधाई की गूँज में महिलाओं के असल मुद्दे न दबाएँ
अक्सर एक दो सफलता की कहानियों के नीचे, महिलाओं के व्यापक विमर्श को पीछे ढकेल दिया जाता है। उम्मीद है कि साक्षी और सिंधु की सफलता, समाज में लड़कियों और खिलाड़ियों, दोनों के लिए कुछ अनुकूल माहौल बनाएगी।
भारत जैसे विशाल देश के खाते में ओलंपिक के दो पदक आते ही, साक्षी और सिंधु को बधाइयों का ताँता लग गया है। इन दोनों खिलाड़यों की उत्कृष्ठ सफलता के साथ-साथ, लड़कियों की असीम प्रतिभा को लेकर भी व्हाट्सएप्प संदेशों की भरमार हो गई है। दो लड़कियों को ओलंपिक में मिले पदक के साथ, देश में कन्या भ्रूण हत्या और लिंगानुपात की भी चर्चा चलनी चाहिए। देश भर की महिला खिलाड़ियों की अपनी जीवन यात्रा में जो अवरोध परिवार-समाज-स्कूल से आये हैं, उन पर भी चर्चा होनी चाहिए। दो-तीन दिन बाद, जब मैडल की ख़बरें पुरानी पड़ जाएंगी तब भी लड़कियों के पक्ष में लोग ऐसे ही खड़े होंगे तभी देश में एक अच्छा बदलाव आ सकता है।
साक्षी और सिंधु की सफलता के साथ, सोशल मीडिया पर ऐसा लग रहा है कि पूरा देश सभी लड़कियों के समर्थन में खड़ा रहता है। अगर लड़कियों के लिए हालात ऐसे ही अनुकूल हैं तो फिर वो कौन लोग हैं जिनके तंज कसने से लेकर बलात्कार का शिकार, देश की लड़कियां होती रहती हैं? उन लड़कियों के सम्मान में कौन खड़ा होगा जिनके चेहरे पर किसी पुरुष ने तेज़ाब फेंक दिया है? कलकत्ता-दिल्ली-मुम्बई में जिन लड़कियों का अपहरण करके बेच दिया गया है उन गिरोहों के कर्ता-धर्ता और संरक्षक क्या अब अपने किये पर पछतावा करेंगे? क्या कल से देश भर की लड़कियों के साथ घरों में खाने और शिक्षा को लेकर होने वाले भेद-भाव बंद हो जायेंगे? क्या सड़क पर चलते हुए लोगों का भय काम हो जायेगा?
निश्चित रूप से पदक मिलने से देश का मान बढ़ता है। एक विशाल जनसंख्या वाला देश, खेल की दुनिया के नक़्शे पर भी अपने को एक वज़नदार प्रतिभागी के रूप में दर्ज करना चाहता है। ये जो आगे रहने की महत्वाकांक्षा है और देश की उम्मीदों पर खरा उतरने का मानसिक दबाव है, ये खिलाड़ियों को हताशा का शिकार भी बना सकता है। क्या कोई भी खिलाड़ी हमेशा जीत सकता है? ये जो जनता की खिलाड़ियों से हाई परफॉरमेंस की उम्मीद है, वह वही सोच है जिसमें आज माता-पिता, अपने बच्चों को हर फील्ड में अव्वल देखना चाहते हैं। जिस समय देश में लोग साक्षी मल्लिक की उपलब्धि का जश्न मना रहे थे, उसी दिन राजस्थान के कोटा में एक और छात्र ने आत्महत्या कर ली। खेल हो या पढ़ाई, क्या ऐसा संभव है की हम सिर्फ हाई परफॉरमेंस वालों का समाज बना लें? तो जिन को पदक नहीं मिला और इंजीनियरिंग में एडमिशन नहीं मिला तो क्या वह लोग समाज के लिए उपयोगी नहीं रहे?
आज जो लोग (खिलाड़ियों) लड़कियों की परफॉरमेंस को देश की आन-बान-शान से जोड़ रहे हैं वह इन खिलाड़ियों पर उम्मीदों का अतिरिक्त भार डाल रहे हैं। किसी भी देश में, महिलाओं की शिक्षा और सशक्तिकरण के बिना कोई देश मज़बूत नहीं हो सकता है तो पदक मिलने की ख़ुशी में कुछ ज़रूरी मुद्दों जैसे- लड़कियों की कम होती जनसंख्या, घरों से लेकर बाहर तक असुरक्षा का भय, खाने से लेकर खेल, पढ़ाई, कपड़ा, कॅरियर, पति चुनने तक में उनके अपने पसंद की अनदेखी, जगह-जगह होने वाले भेदभाव की भी चर्चा होनी चाहिए।
निश्चित रूप से जिन खिलाड़ियों को पदक मिला है और मिलेगा, वो विशेष बधाई के पात्र हैं, परन्तु जिन खिलाड़ियों ने अपने वर्षों की मेहनत और लगन के बल पर ओलंपिक टीम में अपनी जगह बनाई है, वह सभी सम्मान और प्रसंशा के पात्र हैं। अपने-अपने स्तर पर सब ने योगदान दिया है। अक्सर एक दो सफलता की कहानियों के नीचे, महिलाओं के व्यापक विमर्श को पीछे ढकेल दिया जाता है। साक्षी और सिंधु लड़की भी हैं और खिलाड़ी भी तो उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी सफलता, समाज में लड़कियों और खिलाड़ियों दोनों के लिए कुछ अनुकूल माहौल बनाएगी।
- डॉ. संजीव राय
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