राज्यपाल आनन्दी बेन पटेल की यह पहल अनुकरणीय, समाज पर पड़ेगा बड़ा असर

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ललित गर्ग । Aug 29 2019 2:46PM

बड़े पदों पर बैठे लोग जब सार्वजनिक जीवन में ऐसे उदाहरण पेश करते हैं तो इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ना लाजिमी हो जाता है। असर तत्काल ही तब दिखा जब राजभवन के अधिकारियों ने टीबी के शिकार 21 अन्य बच्चों को गोद ले लिया।

आज जीवन में प्रेरणा के स्रोत सूख गये हैं। भगवान की साक्षी से सेवा स्वीकारने वाला डॉक्टर भी रोगी से व्यापार करता है। जिस मातृभूमि के आंगन में छोटे से बड़े हुए हैं, उसका भी हित कुछ रुपयों के लालच में बेच देते हैं। पवित्र संविधान की शपथ खाकर कुर्सी पर बैठने वाला करोड़ों देशवासियों के हित से पहले अपने परिवार का हित समझता है। नैतिक मूल्यों की गिरावट की सीमा लांघते ऐसे दृश्य रोज दिखाई देते हैं। चारों ओर विसंगतियां और विद्रूपताएं फैली हैं। इन सब स्थितियों के बीच गत रविवार को लखनऊ में एक ऐसी घटना घटी जो निश्चय ही लाखों लोगों के लिए प्रेरक हो सकती है। यदि हम अपने आसपास प्रेरणा के स्रोत तलाशते हैं तो इससे बेहतर उदाहरण हाल फिलहाल नहीं दिखाई देता।

राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने रविवार को एक ऐसी बच्ची को गोद लिया जो टीबी की रोगी है। यह बीमारी अब असाध्य नहीं है। इलाज नियमित किया जाए तो टीबी साधारण बीमारी है। बात बीमारी की नहीं, बल्कि संवेदना की है, बात निराशा के घनघोर अंधेरों की नहीं, बल्कि उनके बीच टिमटिमाते नन्हें दीपकों की है। क्या आशा और रोशनी का सचमुच अकाल हो गया है? फिर क्यों नहीं अच्छाई एवं रोशनी की बात होती? क्यों नहीं हम नेगेटिविटी से बाहर आते? सत्य और ईमानदारी से परिचय कराना इतना जटिल क्यों होता जा रहा है? आज का जीवन आशा और निराशा का इतना गाढ़ा मिश्रण है कि उसका नीर-क्षीर करना मुश्किल हो गया है। पर अनुपात तो बदले। आशा विजयी स्तर पर आये, वह दबे नहीं। यही आनन्दीबेन पटेल ने किया है।

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बड़े पदों पर बैठे लोग जब सार्वजनिक जीवन में ऐसे उदाहरण पेश करते हैं तो इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ना लाजिमी हो जाता है। असर तत्काल ही तब दिखा जब राजभवन के अधिकारियों ने टीबी के शिकार 21 अन्य बच्चों को गोद ले लिया। अब इन बच्चों के पौष्टिक आहार और दवाओं की चिंता अधिकारी करेंगे। इस बीमारी के प्रसार को यूं समझा जा सकता है कि अकेले लखनऊ में इसके 14,600 मरीज हैं और प्रदेश में लगभग सवा तीन लाख। केंद्र सरकार ने 2025 तक भारत को टीबी मुक्त कराने का लक्ष्य तय किया है और राज्यपाल का प्रयास उसी दिशा में है। उन्होंने जीवन का एक बड़ा सच व्यक्त करते हुए उदाहरण प्रस्तुत किया है कि व्यक्ति जिस दिन रोना बंद कर देगा, उसी दिन से वह जीना शुरू कर देगा। यह अनुकरणीय अभिव्यक्ति थके मन और शिथिल देह के साथ उलझन से घिरे जीवन में यकायक उत्साह का संगीत गुंजायमान कर गयी है।

हम सबके इर्द-गिर्द ऐसे बेसहारा बच्चे हैं जिन्हें न सही शिक्षा मिल पा रही और न उसकी सेहत की चिंता हो पा रही है। यह क्यों नहीं हो सकता कि साधन समर्थ लोग इन अभावग्रस्त एवं बेसहारा बच्चों के लिए वैसे ही आगे आएं जैसे आनन्दीबेन आयी हैं। बच्चा अपने घर पर ही रहे, लेकिन उसकी पढ़ाई का जिम्मा यदि कोई संस्था या व्यक्ति उठा ले तो एकदम बड़ा बदलाव दिखने लगेगा। ऐसे बहुत लोग हैं जो अस्पतालों में तीमारदारों के भोजन और खाने का प्रबंध करते हैं। कुछ लोग घर का बचा खाना एकत्र करके जरूरतमंद को देते हैं। ऐसे ही परोपकारी लोगों को आगे आना चाहिए। आशा की ओर बढ़ना है तो पहले निराशा को रोकना होगा। इस छोटे-से दर्शन वाक्य में सकारात्मक अभिव्यक्ति का आधार छुपा है। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत हो, अजंता के चित्र हों, वाल्ट व्हिटमैन की कविता हो, कालिदास की भव्य कल्पनाएं हों, प्रसाद का उदात्त भाव-जगत हो- इन सबमें एक आशावादिता घटित हो रही है।

एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होते, रंगों-रेखाओं, शब्दों-ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल परिवेश न होता, तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनी, थके और ऊबे हुए लोग! कितने संवेदनहीन लोग!! अपने खोए हुए विश्वास को तलाशने की प्रक्रिया में मानव-जाति ने जो कुछ रचा है, उसी में उसका भविष्य है। यह विश्वास किसी एक देश और समाज का नहीं है। यह समूची मानव-नस्ल की सामूहिक विरासत है। इसी विरासत को जीवंत करने का उपक्रम आनन्दीबेन पटेल ने किया है। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना है कि अच्छाइयां किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं होतीं। उसे जीने का सबको समान अधिकार है। जरूरत उस संकल्प की है जो अच्छाई को जीने के लिये लिया जाये। भला सूरज के प्रकाश को कौन अपने घर में कैद कर पाया है? 

आज मानवता दुख, दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, संवेदनहीनता नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती है, भयभीत करती है। समाज में बहुत कुछ बदला है, मूल्य, विचार, जीवन-शैली, वास्तुशिल्प सब में परिवर्तन है। ये बदलाव ऐसे हैं, जिनके भीतर से नई तरह की जिन्दगी की चकाचौंध तो है, पर धड़कन सुनाई नहीं दे रही है, मुश्किलें, अड़चनें, तनाव-ठहराव की स्थितियों के बीच हर व्यक्ति अपनी जड़ों से दूर होता जा रही है, संवेदनहीन होता जा रहा है।

  

नरसी मेहता रचित भजन ‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे’’ गांधीजी के जीवन का सूत्र बन गया था, लेकिन यह आज के नेताओं का जीवन सूत्र क्यों नहीं बनता? क्यों नहीं आज के राजनेता, समाजनेता और धर्मनेता पराये दर्द को, पराये दुःख को अपना मानते? क्यों नहीं जन-जन की वेदना और संवेदनाओं से अपने तार जोड़ते? बर्फ की शिला खुद तो पिघल जाती है पर नदी के प्रवाह को रोक देती है, बाढ़ और विनाश का कारण बन जाती है। देश की प्रगति में आज ऐसे ही बाधक तत्व उपस्थित हैं, जो जनजीवन में अभाव एवं गरीबी पैदा कर उसे अंधेरी राहों में, निराशा और भय की लम्बी काली रात के साये में धकेल रहे हैं। कोई भी व्यक्ति, प्रसंग, अवसर अगर राष्ट्र को एक दिन के लिए ही आशावान बना देते हैं तो वह महत्वपूर्ण होते हैं।

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यह स्वीकृत सत्य है कि जब कल नहीं रहा तो आज भी नहीं रहेगा। उजाला नहीं रहा तो अंधेरा भी नहीं रहेगा। जे पीर पराई जाने रे- भजन के बोल आज भी अनेक लोगों के हृदय को छूते हैं और आनन्दी बेन पटेल के हृदय को भी छू गया है तभी उन्होंने एक टीबी की रोगी नन्हीं बच्ची को गोद लेकर एक विशिष्ट मानव कल्याणकारी उपक्रम की रोशनी को प्रकट किया है, जिससे प्रेरित होकर अनेक लोग जन-जन की पीड़ा को हरने के लिए आगे आ रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि हम सभी परायी पीर को जानें। आनन्दी बेन की भांति हम भी इसे अपना जीवन सूत्र बनायें, परोपकार के लिये आगे आयें।

                                    

-ललित गर्ग

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