मुलायम की खोई इज्जत उन्हें कैसे वापस मिलेगी?

विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद समाजवादी पार्टी कह रही है कि वह हार की समीक्षा करेगी। मगर यक्ष प्रश्न यह है कि मुलायम की खोई इज्जत उन्हें वापस कैसे मिलेगी।

डॉ. राममनोहर लोहिया के आदर्शों और सिद्धान्तों पर चलने का दावा करने वाली समाजवादी पार्टी का भविष्य इस समय उज्ज्वल नहीं है। इस पार्टी की स्थापना मुलायम सिंह यादव ने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी से अलग होने के बाद 1992 में की थी। उस समय छोटे लोहिया जनेश्वर मिश्र सरीखे खांटी समाजवादी भी उनके साथ थे। शुरू के वर्षों में मुलायम ने बहुत मेहनत कर पार्टी का संगठनात्मक ढांचा तैयार किया था। उत्तर प्रदेश के गाँव गाँव में पार्टी ने अपनी पताका फहरा कर यह साबित करने का भरसक प्रयास किया था कि अर्जुन सिंह भदौरिया और राम सेवक यादव जैसे समाजवादियों के उसूलों पर चलकर पार्टी यथा नाम तथा गुण को चरितार्थ कर लोहिया के सपनों को साकार करेगी।

लोहिया ने पिछड़ों के लिए साठ सैकड़ा की बात शुरू से की थी। मुलायम ने अथक संघर्ष कर अपनी पार्टी को सत्ता के शिखर तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त की। लेकिन सत्ता के दुर्गुण इस पार्टी में भी आने प्रारम्भ हो गए। सेकुलरवाद के ऐसे भंवर में मुलायम फंस गए जिससे निकलना आसान नहीं था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से देश के रक्षा मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर मुलायम आसीन होने में सफल हुए। हरकिशन सिंह सुरजीत की चलती तो मुलायम प्रधानमंत्री के पद पर पहुँच गए होते। 

लोहिया के जेल और फावड़े को भूल कर मुलायम सिंह अब सत्ता के घोड़े पर सवार हो चुके थे। जातीय राजनीति में गोते लगाकर मुलायम ने अपने परिवार को आगे बढ़ाया जिसके फलस्वरूप यादव परिवार के दो दर्जन सदस्य विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक बन गए। इसी बीच 2012 के विधानसभा चुनाव में मुलायम ने सत्ता की चाबी अंधे पुत्र मोह में फंस कर अपने बेटे अखिलेश को सौंप दी। अमर सिंह जैसे सत्तालोलुप नेताओं का आना जाना सपा में लगातार बना रहा। कहा तो यह जाता है कि मुलायम की दूसरी शादी और अखिलेश की शिक्षा दीक्षा और शादी के प्रबंध अमर सिंह ने ही किये थे। खैर 2017 का चुनाव आते आते पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई। पिता पुत्र का झगड़ा बढ़ने लगा। पिता ने बेटे को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर अपने भाई शिवपाल को बैठा दिया।

कहा जाता है कि परदे के पीछे अखिलेश की सौतेली माता साधना गुप्ता का इस बदलाव में हाथ था लेकिन इसी घटना से परिवार और पार्टी में फूट की गांठ पड़ गई। इसी के साथ मुलायम शिवपाल की जोड़ी ने टिकिट बाँटने शुरू कर दिए। यह अखिलेश को नागवार गुजरा। मुलायम ने यह घोषणा भी कर दी कि अगला मुख्यमंत्री चुनाव के बाद घोषित होगा। कुछ लोगों ने इसे मिलीभगत की कुश्ती बताया मगर यह सच नहीं है। इसी बीच मुलायम के चचेरे भाई राम गोपाल यादव ने खुलकर अखिलेश का समर्थन किया और अध्यक्षी मुलायम से छीन कर अखिलेश को सौंप दी। मुलायम कोपभवन में चले गए और उन्होंने दो तीन स्थानों को छोड़कर कहीं सभा या रैली नहीं की।

मुलायम को अखिलेश का कांग्रेस का साथ भी पसंद नहीं था और उन्होंने इसका जोरदार विरोध भी किया। मगर पार्टी के अधिकांश विधायक अखिलेश के साथ थे इसलिए मुलायम की कहीं नहीं चली और सपा की दुर्गति हो गई। पार्टी को 47 सीटों पर संतोष करना पड़ा और देखते देखते भारी खामियाजा भुगतना पड़ा। अब पार्टी कह रही है कि वह हार की समीक्षा करेगी। मगर यक्ष प्रश्न यह है कि मुलायम की खोई इज्जत उन्हें वापस कैसे मिलेगी।

- बाल मुकुन्द ओझा

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