कश्मीर का पानी का सही झगड़ा तो पाकिस्तान से है

19 सितम्बर 1960 को पाकिस्तान के साथ हुई सिंधु जलसंधि के दुष्परिणाम स्वरूप कश्मीर को उन तीन पूर्वी दरियाओं पर बांध बनाने या फिर सिंचाई की खातिर पानी रोकने की खातिर बैराज बनाने की अनुमति नहीं है जिसे एक तरह से इस संधि के तहत पाकिस्तान के हवाले किया जा चुका है।

ऐसे में जबकि पंजाब तथा अन्य राज्य पानी की लड़ाई मोल ले चुके हैं कश्मीर की हालत यह है कि वह पानी पाने तथा उसके इस्तेमाल के लिए लड़ाई भी नहीं कर सकता क्योंकि उसका सही झगड़ा तो पाकिस्तान के साथ है जिस कारण न ही वह खेतों की सिंचाई के लिए पानी रोक सकता है और न ही अतिरिक्त बिजली घरों की स्थापना कर सकता है। यही कारण है कि पिछले 56 सालों से इस झगड़े के कारण वह प्रतिवर्ष अनुमानतः 6500 करोड़ की चपत सहन करने को मजबूर है।

यह चौंकाने वाला तथ्य ही कहा जा सकता है कि 19 सितम्बर 1960 को पाकिस्तान के साथ हुई सिंधु जलसंधि के दुष्परिणाम स्वरूप कश्मीर को उन तीन पूर्वी दरियाओं पर बांध बनाने या फिर सिंचाई की खातिर पानी रोकने की खातिर बैराज बनाने की अनुमति नहीं है जिसे एक तरह से इस संधि के तहत पाकिस्तान के हवाले किया जा चुका है। इतना जरूर है कि कश्मीरी जनता की कीमत पर जिन तीन तीन पश्चिमी दरियाओं- रावी व्यास और सतलुज के पानी को भारत ने अपने पास रखा था वे आज पंजाब तथा उसके पड़ोसी राज्यों के बीच झगड़े की जड़ बने हुए हैं।

स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह संधि ही सारे फसाद की जड़ है। कश्मीर की बेरोजगारी तथा आर्थिक विकास न होने के लिए भी यही दोषी ठहराई जा सकती है। इस संधि के तहत कश्मीर सरकार अपने जहां बहने वाले तीनों दरियाओं के पानी को एकत्र कर नहीं रख सकती। अर्थात उसे ऐसा करने का कोई हक नहीं है साथ ही इन दरियाओं पर बनने वाले बांधों की अनुमति भी पाकिस्तान से लेनी पड़ती है। तभी तो दरिया चिनाब पर बन रही बग्लिहार पन बिजली परियोजना में पाकिस्तान अड़ंगा अड़ाए हुए है। इस परियोजना के डिजाइन के प्रति उसे आपत्ति है कि यह परियोजना प्रतिदिन 7000 क्यूसेक पानी के बहाव को प्रभावित करेगी।

पाकिस्तान की बात तो भारत सरकार भी सुनती है। तभी तो पाक विशेषज्ञों की टीम को बग्लिहार परियोजना स्थल के निरीक्षण की अनुमति दे दी गई थी लेकिन कश्मीर सरकार की बातों को तो सुना-अनसुना कर दिया जाता रहा है। इसके प्रति भी कोई जवाब देने को तैयार नहीं है कि प्रतिवर्ष इस जलसंधि के कारण राज्य को होने वाले 6500 करोड़ रुपए के घाटे की भरपाई कौन करेगा। फिलहाल केंद्र ने न ही इसके प्रति कोई आश्वासन दिया है और न ही उसने कोई धनराशि बतौर भरपाई राज्य को दी है।

इस मुद्दे को माकपा विधायक युसूफ तारीगामी वर्ष 2001 में विधानसभा में उठा चुके हैं। महबूबा मुफ्ती भी मुद्दे के प्रति गंभीर हैं। मगर तत्कालीन सरकारों ने कोई ऐसे कदम नहीं उठाए जिससे जलसंधि से होने वाली क्षति की भरपाई हो सके। इतना जरूर था कि तत्कालीन नेशनल कांफ्रेंस सरकार ने तो इस जलसंधि को समाप्त करने के लिए बाकायदा एक नोट केंद्र सरकार को भिजवाया था। परंतु कोई प्रतिक्रिया केंद्र की ओर से व्यक्त नहीं की गई क्योंकि वह जानता था कि सिंधु जलसंधि को समाप्त कर पाना इतना आसान नहीं है जितना समझा जाता रहा है। असल में 19 सितम्बर 1960 को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के बीच हुई इस जलसंधि को विश्व बैंक की गारंटी तो है ही साथ ही इस संधि में आस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, न्यूजीलैंड, ब्रिटेन तथा अमेरिका भी सीधे तौर पर शामिल हैं।

हालांकि भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद यह चर्चाएं जोरों पर थीं कि भारत जलसंधि को समाप्त कर पाकिस्तान पर इस ‘परमाणु बम’ को फोड़ सकता है। लेकिन कुछ ऐसा नहीं हुआ और जम्मू कश्मीर की जनता को उसी स्थिति में छोड़ दिया गया था जिसमें वह थी। याद रहे कि संधि को तोड़ने का सीधा अर्थ है कि पाकिस्तान को आर्थिक रूप से पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देना। पाकिस्तान भी इस सच्चाई से वाकिफ है। पाकिस्तान जानता है कि अगर इन तीनों दरियाओं के पानी के एक प्रतिशत को भी भारत रोक ले तो पाकिस्तान की कम से कम 14 लाख जनता अपने खेतों को पानी देने से वंचित हो जाएगी।

और बदकिस्मती जम्मू कश्मीर की जनता की यह है कि वह पड़ोसी मुल्क के साथ संधि के कारण पिछले 44 सालों से नुकसान उठाने को मजूबर है। यह कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता क्योंकि भारत सरकार इस पर चुप्पी साधे हुए है तो जम्मू कश्मीर के सूखे पड़े हुए खेत पानी की आस में केंद्र की ओर जरूर टकटकी लगाए हुए हैं।

सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं बल्कि राजस्थान, दिल्ली तथा हरियाणा के लिए मुसीबतें पैदा करने वाला कश्मीर का पड़ोसी राज्य पंजाब भी जम्मू कश्मीर के पानी का हक खा रहा है। यह हक रावी दरिया के पानी का है। सारे संदर्भ में यह याद रखना पड़ेगा कि जम्मू कश्मीर की सीमाएं रावी दरिया के अधबीच में हैं। और चिंताजनक बात यह है कि पंजाब द्वारा रावी तथा व्यास के पानी के लिए पड़ोसी राज्यों से हुए समझौतों को रद्द कर देने की घटना के बाद भी जम्मू कश्मीर सरकार चुप्पी साधे हुए है।

कश्मीर द्वारा रावी दरिया के पानी का इस्तेमाल करने के लिए पंजाब सरकार को शाहपुर कंडी बांध का निर्माण करना था ताकि जम्मू कश्मीर अपने हिस्से के 1150 क्यूसेक पानी को ले सके लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। जो पानी पंजाब से जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती कठुआ जिले के लोगों मिल रहा है वह इतना नहीं है जो उनकी जरूरतों को पूरा कर सके। इसे लखनुपर में स्थापित किए गए पम्पों की सहायाता से कश्मीर कैनाल से निकाला जा रहा है और कठुआ कैनाल में डाला जा रहा है।

हालांकि जम्मू कश्मीर सरकार के सिंचाई व पीएचई मंत्री मानते हैं कि पंजाब जम्मू कश्मीर के हिस्से का पूरा पानी नहीं दे रहा है। यही सच्चाई है कि जम्मू कश्मीर के बार-बार के आग्रह के बावजूद पंजाब उसकी कोई बात सुनने को तैयार नहीं है और न ही कोई जवाब दे रहा है। उनके द्वारा इसे भी स्वीकार किया गया है कि पंजाब रावी दरिया के पानी के बंटवारे के मुद्दे पर कोई बात नहीं कर रहा है तो जम्मू कश्मीर सरकार भी नए घटनाक्रम पर कोई टिप्पणी करने से बच रही है।

रावी के पानी का हिस्सा पाने के लिए बनाई गई 79 किमी लम्बी नहर का कोई लाभ जम्मू कश्मीर को इसलिए नहीं मिल पा रहा है क्योंकि शाहपुर कंडी बांध का कार्य पंजाब सरकर द्वारा अभी तक पूरा नहीं किया गया है और इसके पूरा होने पर इस नहर की लम्बाई 81.25 किमी की हो जाएगी। तब कहीं जाकर रावी के पानी का हक मिल पाएगा। चौंकाने वाली बात यह है कि इस नहर को पूरा करने में 29 साल का समय लगा और इन 29 सालों में रावी का पानी इस नहर में नहीं आ पाया है। इसके लिए सिर्फ पंजाब सरकार की राजनीति ही दोषी ठहराई जा सकती है।
मगर लगता नहीं है कि पंजाब जम्मू कश्मीर को उसका हिस्सा देने के लिए तैयार होगा क्योंकि पहले ही पंजाब सरकार की ओर से हरियाणा और राजस्थान के साथ किए गए पानी के समझौतों को रद्द कर दिए जाने के बाद ऐसी आशंकाएं पैदा होने लगी हैं।

पंजाब सरकार के साथ कई सालों के विवाद के बाद वर्ष 1979 में पानी के बंटवारे को लेकर जो समझौता हुआ था उसके तहत पंजाब ने जम्मू कश्मीर को 1150 क्यूसेक पानी देना स्वीकार कर लिया था। इस पानी को पाने के लिए फिर 30 करोड़ रूपयों की लागत के साथ रावी-तवी सिंचाई परियोजना तैयार की गई जिसमें एक नहर भी बनाई गई मगर वह आज भी रावी के पानी को तरस रही है।
इतना जरूर है कि जम्मू कश्मीर सरकार अप्रत्यक्ष रूप से पंजाब के एकतरफा फैसले का विरोध तो कर रही है मगर वह उसके साथ कोई विरोध आज तक नहीं जता पाई है। नतीजतन पंजाब से सटे जम्मू कश्मीर के इलाकों के किसान अगर पंजाब के रवैये से पानी की कमी से जूझ रहे हैं तो पाकिस्तान के साथ हुए सिंधु जलसंधि के कारण तीन पूर्वी दरियाओं के किनारे रहने वाले परेशान हैं। सभी की परेशानी पानी की कमी है जिसके लिए अगर पड़ोसी पंजाब भी दोषी है तो उससे कहीं अधिक दोष पाकिस्तान से होने वाली संधि का भी है।

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