लैंगिक भिन्नता के शिकार किन्नर अखिर कैसे जुड़ेंगे समाज की मुख्य धारा से ?

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कुछ किन्नर जहाँ अपराध में लिप्त हो गए तो शेष भीख मांगकर जीवनयापन करने लगे। धीरे−धीरे देश के आमजन ने भी इन्हें हिकारत की दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर दिया और यह समुदाय समाज की मुख्य धारा से पूरी तरह पृथक हो गया।

लिंग के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किये जाने वाले सामाजिक भेदभाव को लैंगिक असमानता या लैंगिक भिन्नता कहा जाता है। सृष्टि की वृद्धि में स्त्री और पुरुष की एक समान भूमिका होती है। स्त्री−पुरुष के संयोग से उत्पन्न होने वाली सन्तान जब प्राकृतिक रूप से लिंग विकृति का शिकार होकर जन्म लेती है, तब उसके प्रति समाज का भेदभाव पूर्ण रवैया समझ से परे होना स्वाभाविक है। मनुस्मृति के अनुसार पुरुष अंश की तीव्रता से नर तथा स्त्री अंश की तीव्रता से स्त्री सन्तान का जन्म होता है। परन्तु जब दोनों का अंश एक समान होता है तब तृतीय लिंग का शिशु जन्म लेता है या फिर नर−मादा जुड़वां सन्तानें पैदा होती हैं। समाज ने तृतीय लिंग वाली सन्तान का नामकरण क्लीव, हिजड़ा, किन्नर, शिव−शक्ति, अरावानिस, कोठी, जोगप्पा, मंगलामुखी, सखी, जोगता, अरिधि तथा नपुंसक आदि अनेक नामों से किया है। क्लीव और किन्नर संस्कृत भाषा के शब्द हैं, जबकि हिजड़ा उर्दू शब्द है। जो कि अरवी भाषा के हिज्र से बना है। जिसका अर्थ होता है कबीले से पृथक।

भारत के प्राचीन इतिहास में किन्नरों का समाज में एक सम्मानीय स्थान रहा है और इन्हें गायन विद्या का मर्मज्ञ माना जाता था। तुलसीदास जी ने "सुर किन्नर नर नाग मुनीसा" के माध्यम से किन्नरों के उच्च स्तरीय अस्तित्व को रेखांकित भी किया है। हालांकि सामाज का एक बड़ा वर्ग किन्नर और हिजड़ों को पृथक−पृथक मानता है। किन्तु जब किन्नर शब्द के अर्थ पर विचार किया जाता है तो किन्नर शब्द का अर्थ है विकृत पुरुष और यह विकृति लैंगिक भी हो सकती है। जबकि कुछ विद्वान इसका अर्थ अश्वमुखी पुरुष से करते हुए किन्नरों को पुरुष और ऐसी स्त्रियों को किन्नरी कहते हैं। वर्तमान समय में किन्नर का आशय हिजड़ों से ही लिया जाता है।

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अप्रैल 2014 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें थर्ड जेंडर अर्थात् तृतीय लिंग के रूप में परिभाषित किया था। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सन् 1945 में मानव अधिकारों के सन्दर्भ में जारी घोषणा पत्र में कहा गया है कि रंग, लिंग, प्रजाति, भाषा, धर्म, राजनीति, पद, जन्म, सम्पत्ति या अन्य किसी भी आधार पर किसी के भी साथ किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। भारतीय संविधान के भाग−3 के अनुच्छेद 14 से 18 तक सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्त है। अर्थात् जाति, धर्म, जन्म−स्थान और लिंग के आधार पर किसी के भी साथ भेदभाव करना पूर्णतया गैरकानूनी है। इस तरह राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लिंग भेद को पूर्णतया वर्जित माना गया है। इसके बावजूद भी किन्नरों के प्रति समाज का रवैया पूरी तरह से भेदभाव वाला ही है।

  

मुगल काल में भी किन्नरों को विशेष सम्मानित दृष्टि से देखा जाता रहा है। वह राज्य के सलाहकार, प्रशासक और हरम के रक्षक पद पर तैनात रहते थे। इनके पास अपनी जमीनें थीं और ये सम्मान के साथ समाज में रहकर अपना जीवन व्यतीत करते थे। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के आगमन के बाद इनकी दशा दुर्दशा को प्राप्त हो गई। शेष भारतीयों के साथ अंग्रेजी हुकूमत की अत्यचारपूर्ण नीतियाँ तो जग जाहिर हैं ही। किन्तु किन्नरों के साथ अंग्रेजों ने कुछ अधिक ही जुल्म ढाए। चूंकि इनका जैविक अधिकार इनके रक्त से सम्बन्धित नहीं था। अतः ब्रिटिश हुकूमत के सम्पत्ति अधिकार कानून के तहत इनकी जमीनें इनसे छीनकर इन्हें बदतर जीवन जीने के लिए छोड़ दिया गया। परिणामस्वरूप कुछ किन्नर जहाँ अपराध में लिप्त हो गए तो शेष भीख मांगकर जीवनयापन करने लगे। धीरे−धीरे देश के आमजन ने भी इन्हें हिकारत की दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर दिया और यह समुदाय समाज की मुख्य धारा से पूरी तरह पृथक हो गया। यहाँ यह भी समझना वैचित्र्यपूर्ण है कि दुनिया के अन्य जितने भी समुदाय हैं उनमें कहीं न कहीं रक्तिम सम्बन्ध होता है। परन्तु किन्नर समुदाय के किसी भी सदस्य का आपस में किसी भी प्रकार का कोई रक्तिम सम्बन्ध नहीं होता है। उसके बाद भी ये लोग भावनात्मक रूप से एक दूसरे के साथ जुड़कर एक पृथक समाज की स्थापना करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं। बच्चे के जन्म से लेकर विवाह समारोह तक में लोगों की मंगलकामना करके बख्शीश प्राप्त करना ही इनका मुख्य पेशा है।

किन्नरों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए समय−समय पर सरकार तथा विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा अनेक प्रयास किये गए। परन्तु परिणाम लक्ष्य से बहुत पीछे ही रहा। बीते वर्ष 2018 में धारा 377 के तहत आया सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय किन्नरों के लिए काफी राहतकारी है। इसी के बाद रायपुर में आयोजित एक विवाह समारोह में 15 युवकों ने किन्नरों के साथ विवाह करके सामाजिक तौर पर उन्हें अपना जीवन साथी बनाया। जबकि इसके पूर्व इस तरह के सम्बन्ध गुमनामी के अँधेरे में ही रहते रहे हैं। इस वर्ग को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए इससे भी आगे जाकर प्रयास करने होंगे। ऐसे बच्चों को सामान्य बच्चों की तरह शिक्षित बनाकर ही समाज में इन्हें बराबरी का हक दिलाना होगा। अभी तक प्रायः ऐसे बच्चे स्कूल नहीं भेजे जाते हैं। जो जाते भी हैं वह अपने असामान्य व्यवहार के कारण प्रायः हास्य का पात्र बन जाते हैं। साथी छात्रों से लेकर शिक्षकों तक का व्यवहार उनके साथ सामान्य नहीं होता है। कई बार तो साथी छात्रों या मनचले शिक्षकों द्वारा उनका शारीरिक शोषण भी होता है। जिससे उनमें हीन भावना पैदा होना स्वाभाविक है। ऐसे ही अनेक कारणों से उनकी शिक्षा बीच में ही रूक जाती है और वह अशिक्षित रह जाते हैं।

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इसके बावजूद कई ऐसे किन्नर हैं जिन्होंने समाज की इस विकृत सोच से जूझते हुए स्वयं को लीक से हटकर खड़ा करने में सफलता प्राप्त की। उनमें से एक हैं कलकी सुब्रमण्यम, जिन्होंने स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता तथा पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है। दूसरा नाम पदि्मनी प्रकाश का है। जोकि एक कथक नर्तकी और गायक कलाकार हैं। मधुबाई छत्तीसगढ़ के रायगढ़ की मेयर रह चुकी हैं। भारती नाम की किन्नर ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और थियोलॉजी में स्नातक की उपाधि प्राप्त करके इन्जील्वादी चर्च में पादरी बन गईं। मानवी बंद्योपाध्याय विवेकानन्द सतोबारशिकी महाविद्यालय में बंगाली भाषा की सहायक प्रोफेसर हैं। इन्होंने किन्नरों के जीवन पर आधारित एंडलेस बाँडेज नामक उपन्यास भी लिखा है। कानपुर की काजल किरण पार्षद रह चुकी हैं और समाजसेविका के रूप में प्रतिष्ठित हैं। तमिलनाडु की पृथिका यशिनी को लम्बी अदालती लड़ाई के बाद सब इन्स्पेक्टर के पद पर तैनाती प्राप्त हुई। कोलकाता की जोयिता मंडल लम्बे सामाजिक संघर्ष के बाद इस्लामपुर की लोक अदालत में न्यायाधीश के पद पर कार्यरत हैं। राजस्थान की गंगा कुमारी ने भी लम्बी अदालती लड़ाई के बाद अन्ततोगत्वा कान्स्टेबल पद पर नियुक्ति प्राप्त की। ये कुछ उदहारण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि किन्नर मात्र एक शारीरिक विकृति है न कि मानसिक। इन्हें भी यदि अवसर दिया जाए तो ये भी समाज और देश के लिए वह सब कुछ कर सकते हैं जो एक सामान्य व्यक्ति कर सकता है। किन्नरों को भी वह सब अधिकार प्राप्त हैं जो एक सामान्य व्यक्ति के लिए निर्धारित हैं। अतः समाज और सरकार की ओर से इन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए वृहद् प्रयास होने चाहिए।

                

डॉ. दीपकुमार शुक्ल

(स्वतन्त्र टिप्पणीकार)

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