एक दिन सवर्ण SC/ST और OBC के रहमोकरम पर जीने को विवश होंगे

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एससी/एसटी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर सरकार ने साफ कर दिया है कि देश में सर्वणों की (30 फीसदी से कम) औकात ही क्या है? यदि ऐसा न होता तो सरकार सुप्रीम कोर्ट के जायज फैसले को अक्षरश: लागू करती।

देश की अनुसूचित व जनजातियों को संरक्षण देकर समाज की मूलधारा में लाने के लिये लागू किया आरक्षण का कानून कभी वोटों का इतना सशक्त हथियार बन जायेगा किसी ने सोचा भी नहीं था। यदि ऐसा न होता तो कालांतर में पिछड़ी जातियों के लिये मण्डल कमीशन की सिफारिशें लागू करने की जरूरत न पड़ती और पाटीदार, जाट व मराठा जैसी आर्थिक दृष्टि से मजबूत जातियां अव्वल आरक्षण की मांग ही न उठातीं व इतना तूल भी न देतीं। पहले सुप्रीम कोर्ट की तय की गई आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी सीमा का उल्लघंन और अब आरक्षण में आरक्षण की आग का धधकना तो वोटों की फसल काटने की जुगत में केन्द्र व राज्य सरकारों का बिना सोचे समझे आरक्षण लागू करने की घोषणायें करना देश को कहां ले जायेगा सिर्फ भगवान ही जानता होगा। 

एससी/एसटी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर सरकार ने साफ कर दिया है कि देश में सर्वणों की (30 फीसदी से कम) औकात ही क्या है ? यदि ऐसा न होता तो सरकार सुप्रीम कोर्ट के जायज फैसले को अक्षरश: लागू करती। आरक्षण जातिगत आधार की बजाय आर्थिक आधार पर लागू करने का साहस दिखाती और ओबीसी के हित में विधेयक न पारित करवाती। यदि यही हाल रहा तो निकट भविष्य में सर्वणों को एससी/एसटी व ओबीसी के रहमोकरम पर जीने को विवश होना पड़ेगा। 

संघ प्रमुख की जुबान पर ताला

इन्हीं विषमताओं व हालातों के मद्देनजर ही आरएसएस के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने एक साक्षात्कार में कहा था कि अब देश में चल रही आरक्षण नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। उनका कहना था आरक्षण का राजनीतिक दुरूपयोग किया गया है। उन्होंने सुझाव दिया था कि ऐसी अराजनैतिक समिति का गठन किया जाये जो यह देखे कि किसे और कितने समय तक आरक्षण की जरूरत है! श्री भागवत के बयान देते ही विपक्ष के अलावा भाजपा के लोग भी उन पर टूट पड़े। केन्द्रीय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद ने यहां तक कह दिया कि सरकार का भागवत के बयान से कोई लेना देना नहीं है। सरकार किसी भी सूरत में आरक्षण समाप्त करने वाली नहीं है। यहां तक की बाद में सरकार के दबाव के चलते संघ को सफाई देनी पड़ी कि भागवत के बयान का गलत अर्थ निकाला गया। 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदला

सुप्रीम कोर्ट ने देश में लागू एससी/एसटी एक्ट पर 20 मार्च के अपने फैसले में कोई मूल बदलाव न करते हुये सिर्फ इतना आदेश दिया था कि इस कानून के तहत मुकदमा दर्ज होने पर तत्काल गिरफ्तारी नहीं की जायेगी। पुलिस पहले 7 दिनों के भीतर जांच करने की कार्यवाही करेगी। यह भी कहा कि सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी बिना उसके वरिष्ठ अधिकारी के मंजूरी के नहीं की जायेगी। इसी तरह गैर सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी के लिये एसएसपी की अनुमति लेनी होगी। इसके अलावा उपरोक्त के लिए सर्वोच्च अदालत ने अग्रिम जमानत की मंजूरी भी दे दी थी। 

सुप्रीम कोर्ट के इस औचित्यपूर्ण आदेश पर जातिवादी दलों ने आसमान सिर पर उठा लिया। स्वयं केन्द्र सरकार में शामिल श्री राम विलास पासवान तो धमकी देने पर उतर आये। कहा कि यदि सरकार ने इस कानून को न बदला तो वे सरकार से अलग भी हो सकते हैं। अंतत: वोटों के मायाजाल में फंसी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी। पर जब कोर्ट ने कोई राहत देने से मना कर दिया तो सरकार ने संसद में विधेयक लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को वैसे ही पलट डाला जैसे अतीत में शाहबानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को राजीव गांधी सरकार ने बदल डाला था। 

इन तमाम परिस्थितियों से साफ है कि हालात निरंतर गंभीर होते जा रहे हैं। भविष्य में सामान्य वर्ग के लोगों का जीना ही दूभर हो जायेगा और यदि उन्हें एससी/एसटी व ओबीसी के रहमोकरम पर जीने की नौबत आ जाये तो अनहोनी की बात न होगी।

-शिव त्रिपाठी

(लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं।)

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