भागवत दोनों बाहें फैलाकर स्वागत कर रहे हैं, मुसलमानों को उनकी बात सुननी और समझनी चाहिए

Mohan Bhagwat

अपने संबोधन में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को भ्रामक बताते हुए कहा कि वे अलग-अलग नहीं बल्कि एक हैं। साथ ही मॉब लिंचिंग को हिंदुत्व के खिलाफ बताया और कहा कि जो कहता है कि मुसलमान यहां नहीं रह सकते हैं, वह हिंदू नहीं हो सकता।

भारतीय मुसलमनों में ऐसे लोगों की तादाद बहुत ही कम है जिनके पुरखे बाहर से आए। अधिकतर के पूर्वज इसी सरजमीन के थे जिन्होंने इस्लाम कबूल किया। यही वजह है कि भारतीय मुसलमानों में आज भी हिंदुओं के रस्मो-रिवाज, खान-पान और परंपराएं मौजूद हैं। सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत के जरिए गत दिनों गाजियाबाद के वसुंधरा में एक कार्यक्रम के दौरान कही गई बातों का लब्बोलुआब भी यही है। डॉक्टर ख्वाजा इफ्तेखार अहमद की लिखी पुस्तक ‘दि मीटिंग ऑफ माइंड्सः ए ब्रिजिंग इनिशिएटिव‘ के एक साथ तीन भाषाओं के संस्करण के विमोचन अवसर पर उन्होंने कहा कि हिंदू-मुसलमानों की पूजा पद्धति भले ही अलग हो गई है लेकिन दोनों के पूर्वज एक थे, दोनों का डीएनए एक है।

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अपने संबोधन में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को भ्रामक बताते हुए कहा कि वे अलग-अलग नहीं बल्कि एक हैं। साथ ही मॉब लिंचिंग को हिंदुत्व के खिलाफ बताया और कहा कि जो कहता है कि मुसलमान यहां नहीं रह सकते हैं, वह हिंदू नहीं हो सकता। काबिलेगौर है कि सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने ऐसा कोई पहली बार नहीं कहा है। इससे पूर्व सितंबर 2018 में ‘भविष्य का भारत, संघ का दृष्टिकोण’ विषय पर दिल्ली में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यान माला में भी उन्होंने इसी तरह का बयान दिया था। तब उन्होंने कहा था कि ‘जिस दिन हम कहेंगे कि मुसलमान नहीं चाहिए, उस दिन हिंदुत्व भी नहीं रहेगा...’। ऐसा कह कर डॉ. मोहन भागवत बार-बार हिंदुत्व दर्शन में उल्लिखित उसी वसुधैव कुटुंबकम की बात करते हैं जिसके अनुसार पूरा विश्व हमारा परिवार है। यही तो भारत का असल खमीर है जिसका पैगाम वह पूरे विश्व को सदियों से देता आया है।

बात को केवल समझने का फेर है। या तो इस देश का मुसलमान उसी पूर्वाग्रह में जीता रहे जिसका खौफ दिखाकर उसे भ्रमित किया जाता रहा है या फिर खुली बहस कर सच्चाई को स्वयं जानने की कोशिश करे। गेंद अब उनके पाले में है। आजादी के पहले और उसके बाद भी 70 सालों तक दीगर राजनीतिक विचारधाराओं में भ्रमित होकर इस देश का मुसलमान अपनी दशा देख चुका है। स्वयं कांग्रेस के नेतृत्व वाली गत संप्रग सरकार में गठित सच्चर कमेटी उसकी सूरतेहाल बताने के लिए काफी है। इस सच्चाई को सामने लाने के बाद जस्टिस सच्चर भी मरहूम हो गए लेकिन क्या मुसलमानों की बेहतरी के लिए पिछली सरकार ने कोई कारगर पहल की? मुसलमान पहले भी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए केवल वोट बैंक था और आज भी है।

इन तल्ख बातों से मकसद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की वकालत करना या उसका पक्ष लेना नहीं है लेकिन संवाद करने में हर्ज क्या है। बातचीत से तो जंगें टाली जा सकती हैं। फिर मतभेदों और गलतफहमियों की क्या बिसात है? वह भी तब जब सरसंघचालक बार-बार दोनों बाहें खोलकर इस देश के मुसलमानों को उसे समझने और परखने की दावत देते हैं। अरे देश के मुसलमानों से कोई दीवानावार होकर उनसे गले लगने के लिए नहीं कह रहा है लेकिन संवाद कोई कुफ्र तो नहीं है। दिल और मन माने तो ठीक है वरना दोनों के रास्ते तो पहले से ही अलग हैं।

सरसंघचालक की तरफ से हिंदू-मुस्लिम एकता के बयान को अगर आरएसएस के रवैये में बदलाव मान लिया जाए तो यही सही। आखिर मुसलमानों ने उनसे इसका आग्रह तो नहीं किया। फिर अगर संघ को लेकर कई तरह के पूर्वाग्रह अगर मुसलमानों के मन में है तो मुसलमानों को लेकर संघ ही क्या देश-दुनिया की दूसरी कौमों और मजहबों के लोगों के दिलों में भी तो हैं। इन आपसी मतभेदों को दूर करने की बहुत सख्त जरूरत है। सितंबर 2019 में इस तरह की पहल जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी की सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत से मुलाकात के दौरान इसकी एक नेक पहल जरूर हुई थी। इस दौरान कई मुद्दों पर एकराय बनने और मुलाकातों का सिलसिला आगे भी जारी रखने पर सहमति बनने से लोगों को लगा कि भगवा और हरे रंग को मिलाकर कोई खूबसूरत तस्वीर उभरने वाली है लेकिन वह सिलसिला आगे नहीं बढ़ सका। इसकी एक बड़ी वजह शायद इन दोनों मार्गदर्शकों के बीच हुई मुलाकात के बाद भी देश के विभिन्न हिस्सों में मॉब लिंचिंग की घटनाओं का न रुकने वाला सिलसिला रहा।

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और किसी मुस्लिम संगठन के बीच मेलजोल का एक बेहतरीन उदाहरण आपातकाल के दौरान भी देखने में आया था। विचारधारा के मामले में एक दूसरे की धुर विरोधी समझे जाने वाले आरएसएस और जमाते-इस्लामी के लोगों की जेलों में मुलाकात हुई। कारण इमरजेंसी के दौरान इन पर लगा प्रतिबंध था। सब जानते हैं कि इसमें एक अगर हिंदुत्व की बात करता है तो दूसरा इस्लाम और मुसलमानों की। लेकिन दोनों के रहनुमा जेल में एक दूसरे के सामाजिक कार्यों को जानकर काफी करीब आ गए थे। पटना जेल के अंदर कैद बिहार जनसंघ के महासचिव राम लखन गुप्ता ने जमाते-इस्लामी हिंद के बिहार के महासचिव मोहम्मद जाफर के साथी डॉक्टर जियाउल हुदा से अपनी नमाज के दौरान चुनाव में जीत के लिए दुआ करने को कहा था। यह आपसी संवाद का ही असर था।

बातचीत का सिलसिला परवान चढ़ने से पूर्व ही टूट जाने से लगता है कि देश में कुछ लोग तो ऐसे हैं जो हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर नहीं हैं। यह बात सरसंघचालक के गाजियाबाद में दिए गए उद्बोधन से भी स्पष्ट है जिसमें उन्होंने कहा कि राजनीति तोड़ सकती है। हम केवल जोड़ने का काम करते हैं। देश के आमजन को इन राजनीतिक साजिशों को समझना होगा और डॉ. मोहन भागवत की बातों पर संजीदगी से विचार करना होगा। फिलहाल दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिए। क्या पता कभी हम एक-दूसरे की गलतफहमियों को दूर करने में कामियाब हो जाएं।

-मोहम्मद शहजाद

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