गंभीर हो रही नक्सल समस्या का तुरंत हल जरूरी

छत्तीसगढ़, झारखंड एवं बिहार के कई इलाकों कहा जाता है कि यहां नक्सलियों के हुक्म के बिना एक पत्ता भी नहीं खड़कता है। खासकर छत्तीसगढ़ के सुकमा के सत्तर फीसदी हिस्से पर नक्सलियों का कब्जा है।

छतीसगढ़ में एक बार फिर नक्सली हमले हुए जिसके बाद नक्सल समस्या पर नए सिरे से देश में बहस शुरू हो गई है। चिंता जताई जा रही है कि अगर इस समस्या के मूल में जाकर इससे नहीं निबटा गया तो यह और भी ज्यादा गंभीर चुनौती बन सकती है। छत्तीसगढ़, झारखंड एवं बिहार के कई इलाकों कहा जाता है कि यहां नक्सलियों के हुक्म के बिना एक पत्ता भी नहीं खड़कता है। खासकर छत्तीसगढ़ के सुकमा के सत्तर फीसदी हिस्से पर नक्सलियों का कब्जा है। नक्सलियों के प्रभाव का ही नतीजा है कि 123 ग्राम पंचायतों में से 30 से ज्यादा पंचायतें सरकारी योजनाओं से पूरी तरह महरूम हैं। विकास का कोई काम यहां नक्सलियों की इजाजत के बगैर नहीं हो सकता। हालत यह है कि दिन के उजाले में भी सुरक्षाकर्मी इन इलाकों में निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। सुकमा देश में एकमात्र ऐसा उदाहरण नहीं है, जहां नक्सलियों की अपनी समानांतर सत्ता चल रही है। आज की तारीख में देश के 22 राज्यों के 223 से अधिक जिले नक्सलियों के प्रभाव में हैं। क्षेत्रफल के हिसाब से देखा जाए तो करीब 92 हजार वर्ग किलोमीटर यानी देश का करीब 40 फीसदी इलाका नक्सलियों के प्रभाव में है। नक्सलियों पर आरोप है कि इन्होंने 1980 के बाद से अब तक लगभग 18,000 लोगों को मौत के घाट उतारा है।

जमींदारों द्वारा छोटे किसानों के उत्पीड़न के खिलाफ सन् 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव से शुरू हुआ नक्सल आंदोलन आज आंध्र प्रदेश से नेपाल तक एक रेड कॉरिडोर के रूप में अपना दायरा फैला चुका है। कानू सान्याल, चारू मजूमदार, कनाई चटर्जी जैसे नक्सल नेताओं की यह क्रांति वक्त के साथ सियासी इस्तेमाल की चीज बनती रही है। साम्यवाद और शोषणहीन समाज की बुनियाद रखने वाली यह सोच आज उगाही का हथियार बना हुआ है। यह अलग बात है कि नक्सलवाद को बुद्धिजीवियों के एक तबके का समर्थन मिलता रहा है। आज भी मिल रहा है। अनुमान है कि हर साल करीब 1800 करोड़ रुपए नक्सलवाद के नाम पर वसूले जा रहे हैं। ये पैसे छोटे-बड़े राजनेताओं, भ्रष्ट अधिकारियों, व्यापारियों, जमींदारों से वसूले जाते हैं। इसके अलावा समर्थकों के चंदे से भी नक्सली संगठनों को भारी रकम प्राप्त होती है। नक्सलियों के संविधान में प्रत्येक काडर को सालाना दस रुपए चंदा देना होता है। वे कैडर जो कोई धंधा करते हैं, वे अपनी कमाई का भी कुछ हिस्सा संगठन को देते हैं। ओडीशा में बांस काटने वाले, छत्तीसगढ़ में तेंदू-बीड़ी पत्तों को इकट्ठा करने वाले मजदूर हर रोज अपनी कमाई से पांच रुपए नक्सली संगठन को देते हैं। बदले में इन्हें सुरक्षा दिलाने और ठेकेदारों के शोषण से बचाने की गारंटी दी जाती है। सरकारी ठेकों से भी नक्सली काफी माल उगाहते हैं। राजनेता चुनावों में इन्हें इस्तेमाल करते हैं और बदले में बड़ी रकम चुकाते हैं। नक्सली एमडब्ल्यूसीएल फार्मूले को प्राथमिकता देते हैं। यहां एम का मतलब मनी है, जिसके लिए झारखंड बड़ा स्त्रोत है। डब्ल्यू का अर्थ वेपन है जिन्हें ओडिशा से प्राप्त किया जाता है। सी यानी कैडर, जिसका जाल छत्तीसगढ़ में बिछा हुआ है और एल का मतलब लीडरशीप से है जो ज्यादातर आंध्र प्रदेश से आते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इनकी उपस्थिति केवल इन्हीं राज्यों तक सीमित है। इनकी पकड़ का दायरा महाराष्ट्र और दिल्ली तक है। नक्सली वसूली की रकम का इस्तेमाल अत्याधुनिक हथियार, मोर्टार, एके 47, एलएमजी, इंसास आदि खऱीदने और अपने तंत्र को विकसित करने में कर रहे हैं। नक्सली अपने मिलिट्री विंग, रिसर्च एंड डेवलपमेंट विंग, सूचना प्रचार और इंटेलिजेंस विंग पर अच्छी खासी रकम खर्च करते हैं। यही वजह है कि आज उनके पास न सिर्फ अत्याधुनिक औऱ मारक हथियार उपलब्ध हैं बल्कि ऐसे उपकरण भी हैं जो तगड़े सुरक्षा इंतजाम को भी भेदने में कारगर हैं। इस समय छापामार युद्ध शैली में पारंगत दस हजार नक्सलियों का मुकाबला करने के लिए केंद्र व राज्य सुरक्षा बल के 1.2 लाख जवान तैनात हैं। लेकिन वे उनका मुकाबला करने में पस्त साबित हो रहे हैं। इसकी पुष्टि स्वयं गृह सचिव ने आठ सप्ताह पहले राज्य पुलिस प्रमुखों की एक बैठक में की थी जब उऩ्होंने कहा कि सुरक्षा बल माओवादियों की छापामार क्षमता पर काबू करने में सफल नहीं हो पाए हैं।

देश के विभिन्न भागों में आज नक्सलियों के करीब पचास कैंप काम कर रहे हैं, जहां इनके काडरों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। ऐसे प्रशिक्षण शिविरों की तादाद लगातार बढ़ रही है। साथ ही बढ़ रहा है नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र। आंध्र प्रदेश में तिरुपति के बालाजी मंदिर से लेकर नेपाल के पशुपतिनाथ के मंदिर तक नक्सलियों का रेड कॉरिडोर काम कर रहा है। आंध्र प्रदेश में वारगंल, करीमनगर, कड़प्पा, आदिलाबाद, झारखंड में पलामू, लातेहार, गढ़वा, चाईबासा, ओडीशा में कोरापुट, छत्तीसगढ़ में बस्तर, जगदलपुर, दंतेवाड़ा, बिहार में गया, अरवल, जहानाबाद, रोहतास, चंपारण, दरभंगा जिले नक्सलियों की गतिविधियों के कारण आए दिन सुर्खियों में रहते हैं। पिछले कुछ वर्षों से एक तयशुदा रणनीति के तहत नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच तालमेल बनाकर माओवादियों के खिलाफ केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों के सहयोग से सघन अभियान चलाया जा रहा है। पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में माओवादियों के खिलाफ केंद्र व राज्य सरकार की संयुक्त कार्यवाही चल रही है। इस कार्यवाही का उद्देश्य माओवादियों के साथ आमने-सामने की लड़ाई लड़ना नहीं बल्कि नक्सलियों के दबदबे वाले इलाकों में नागरिक अधिकारों को पुनः स्थापित करना है। जब ये अभियान शुरू किए गए थे, तब सरकार ने दावा किया था कि उसने नक्सलवाद की समस्या के मूल में जाकर उसके हल की ओर कदम बढ़ाया है लेकिन तमाम घटनाओं के बाद नहीं लगता कि नक्सलियों की हिंसक गतिविधियों पर अंकुश लग सका है।

केंद्र सरकार ने नक्सल प्रभावित राज्यों में विकास के लिए 7,300 करोड़ रुपए के पैकेज को मंजूरी दी थी ताकि नक्सलियों को मिलने वाले स्थानीय जनसमर्थन की कमर तोड़ी जा सके लेकिन वह इसमें अभी तक बड़े पैमाने पर कामयाब नहीं हो पाई है। कुछ वर्ष पहले तत्कालीन गृह सचिव जीके पिल्लै का दिया यह बयान सत्यता के करीब नजर आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर नक्सलियों को जमीन से उखाड़ा नहीं गया तो 2050 तक वे सरकार को उखाड़ कर समूचे देश पर कब्जा कर लेंगे।

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