सपा परिवार में चले राजनीतिक ड्रामे का लब्बोलुआब

समाजवादी पार्टी के हाई प्रोफाइल ड्रामे के बीच 24 अक्टूबर को हुई पार्टी की महाबैठक में मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को सीख देते हुए कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री मोदी से सीखना चाहिए, जो प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपनी माँ को नहीं भूले हैं। हालाँकि, सपा सुप्रीमो का सन्दर्भ यह था कि वह शिवपाल यादव, अमर सिंह के सारे गुनाहों को जानते हुए भी उन्हें छोड़ नहीं सकते हैं, पर अखिलेश यादव को पीएम मोदी के राजनीतिक उभार से सीख जरूर लेनी चाहिए। इसकी चर्चा आगे की पंक्तियों में करेंगे, तब तक अब तक हुए घटनाक्रम पर एक दृष्टि डाल लेना उचित रहेगा। यूं कोई कुछ भी कहे, किंतु समाजवादी पार्टी की आपसी लड़ाई ने बॉलीवुड की टिपिकल फिल्मों को भी मात दे दिया है। आखिर इसमें रोमांच, एक्शन, ड्रामा और भी जाने क्या-क्या फ्लेवर मौजूद है। सच कहें तो अगर इस पूरे एपिसोड पर मुलायम एंड पार्टी 'मनोरंजन टैक्स' लगा दें, तो भी यह शो हॉउसफुल जायेगा।
समाचार चैनलों की टीआरपी जबरदस्त ढंग से बढ़ी हुई है और शायद ही राजनीति में रुचि रखने वाला कोई व्यक्ति हो जो इस ख़बर पर दृष्टि न जमाये हो! ना केवल उत्तर प्रदेश की जनता को बल्कि देश की जनता को राजनीतिक जगत का अद्भुत दृश्य देखने को मिल रहा है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब बड़ी बड़ी खबरें आती थीं कि समाजवादी पार्टी का राजनीतिक परिवार देश का सबसे बड़ा राजनीतिक परिवार है। हाय रे! नजर लग गई जाने किसकी, जो अब यह राजनीतिक परिवार टूट की कगार पर खड़ा हो गया है। हालाँकि, मुलायम सिंह यादव लगे हुए हैं कि बेटे और भाई के मामले को सुलझा दें, किन्तु मामला इतना बिगड़ चुका है कि अब 1 परसेंट से भी कम उम्मीद बची हुई है समाजवादी कुनबे के एक रहने की! खैर, राजनीति में कुछ भी संभव है, किन्तु जो टकराहट हो रही है और इससे जो प्रश्न उत्पन्न हुए हैं, वह प्रश्न सर्वकालिक दिखते हैं। सवाल सिर्फ समाजवादी पार्टी का ही नहीं है, बल्कि अनेक दलों में विभिन्न अवसरों पर इस प्रकार की परिस्थितियां आती रही हैं, जब पार्टी में काबिज पुराने लोग अपने अधिकारों को छोड़ना नहीं चाहते हैं और नई पीढ़ी अपने अधिकारों को हासिल करना चाहती है।
आप तमाम राजनीतिक पार्टियों का इतिहास उठा कर देख लीजिये और ऐसा वाकया अनेक जगहों पर दिख जायेगा। सिर्फ राजनीतिक दलों में ही क्यों, घर-परिवार तक में बुजुर्गों और युवा पीढ़ी के बीच इस तरह की टकराहट होती ही रहती है। हालाँकि, 2012 में ऐसा लगा था कि मुलायम सिंह यादव ने बेहद सधे हुए अंदाज में अगली पीढ़ी को सत्ता ट्रांसफर कर दी है। क्योंकि उस समय सपा बहुमत में आई थी, इसलिए बात मान ली गई नेता जी की और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन गए। पर अगर इतने भर से ही कोई कल्पना कर लेता कि मामला शांत हो जाएगा या सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया वगैर चिल्ल-पों के पूरी हो जाएगी तो यह बात अब गलत साबित हो चुकी है। चूँकि आज तक सत्ता का सुख भोगना था, इसलिए महत्वकांक्षा की लड़ाई कुछ देर के लिए ठंडे बस्ते में डाल दी गई थी और अब जब अगला चुनाव होने को है तो टिकट बंटवारे से लेकर ताकत, विरासत पर अधिकारों को लेकर सड़क पर जंग स्वाभाविक परिणति दिख रही है।
सपा में ही कई लोग अंदरखाने यह माने बैठे थे कि समाजवादी पार्टी यूपी में दोबारा सत्ता में तो आने वाली नहीं और इसलिए आने वाले दिनों में वह अपनी राजनीति और अपने चेहरे को पुख्ता करने हेतु वर्चस्व हेतु जल रही आग में 'घी' का कार्य करते रहेंगे। देखा जाए तो इस लड़ाई की शुरुआत अखिलेश यादव की सकारात्मक छवि, जो अपराध और अपराधियों के विरोधी के तौर पर थी और जिसे उन्होंने पिछले साढ़े 4 साल में बनाई थी, उस पर प्रहार करके किया गया। कौमी एकता दल जो आपराधिक छवि के मुख्तार अंसारी की पार्टी मानी जाती है, उसका जबरदस्ती विलय करा कर अखिलेश यादव की छवि को शिवपाल ने सीधी चुनौती दी। महाबैठक में यह बात भी पता लग गई कि मुलायम के कान में यह बात भी डाली गई है कि "अखिलेश मुस्लिम विरोधी हैं।" हालाँकि यह बात सिरे से गलत साबित हो जाती है, क्योंकि सार्वजनिक मंच पर कहीं भी अखिलेश ने अपने पिता या समाजवादी पार्टी की लाइन नहीं छोड़ी है। पर उन्हें 'मुस्लिम विरोधी' ठहराकर कौमी एकता दल के विलय को जायज़ ठहराने की कोशिश की जा रही है।
वैसे भी मुलायम सिंह यादव ने मुख़्तार अंसारी के परिवार को ईमानदार और महान बताते हुए उसे उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी से जोड़ डाला है। यहाँ यह समझना आवश्यक था कि अखिलेश का विरोध आपराधिक पृष्टभूमि के नेताओं से था लेकिन कौमी एकता दल और मुख्तार अंसारी को यहां मुसलमान साबित करके अखिलेश को कमजोर करने की भरपूर कोशिश की गयी। वैसे भी, अपराधियों का विरोध अखिलेश ने पहले भी किया है, बल्कि खुद यादव वोट बैंक से आने वाले बाहुबली डीपी यादव को उन्होंने पार्टी में नहीं घुसने दिया था, तो पार्टी में दूसरी अपराधिक प्रवृतियों पर भी रोक लगाने की अखिलेश ने भरपूर कोशिश की। देखा जाए तो कदम-दर-कदम जैसे-जैसे अखिलेश की छवि मजबूत होती जा रही थी, सपा के दूसरे नेताओं अमर सिंह हों या शिवपाल यादव हों या कोई और हो उनके मन में यह आशंका प्रबल होती जा रही थी कि इस लड़के की छवि के पहलु में कहीं सिमटना न पड़ जाए और इसीलिए पूरी राजनीति की गई, देखा जाए तो मुख्यमंत्रित्व काल में अखिलेश की कोई और उपलब्धि हो या न हो पर यह उपलब्धि तो जरूर थी कि गुंडों की पार्टी के नाम से जाने जाने वाली समाजवादी पार्टी के बीच रह कर वह अपनी छवि बचा ले गए थे। कहीं ना कहीं उनके बारे में यह माना जाने लगा था कि वह अपराधियों से दूरी बनाकर चलना चाहते हैं और इसे लेकर पब्लिक में उनके प्रति एक 'सॉफ्ट कार्नर' जन्म लेने लगा था। खैर, जब खेल शुरू हुआ तो इस हद तक खेल हुआ कि मुलायम सिंह को भी इसमें पिसना पड़ा। समझा जा सकता है कि जब खुद शिवपाल यादव पार्टी से बाहर जाने और इस्तीफे की धमकी देने लगे तो मुलायम ने दूर की सोच रखकर अपने भाई का साथ देने की कोशिश की। जनता का नजरिया बहुत विशाल होता है और यह जो सहानुभूति अखिलेश को मिल रही है वह शायद तब न मिलती अगर मुलायम सिंह अखिलेश के पक्ष में सीधे खड़े हो जाते! तब शिवपाल यादव और अखिलेश विरोधियों को शहीद होने का मौका मिल जाता। चतुर राजनेता हैं मुलायम सिंह और अगर उन्होंने जान बूझकर भी यह 'ड्रामा' किया हो तो भी अखिलेश की छवि निर्विवाद रूप से पहले से बड़ी हो गई है।
जरूरत है अपने स्टैंड पर अखिलेश को आगे बढ़ने की। हाँ, अगर अपने स्टैंड पर वह कायम नहीं रहते हैं अथवा अपने हक में फैसले करवाने में वह सफल नहीं रहते हैं तो फिर अच्छा संदेश नहीं जाएगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस सन्दर्भ में अखिलेश को कहा है कि "युवाओं को रिस्क लेना चाहिए।" हालाँकि, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि अखिलेश पार्टी ही तोड़ें, बल्कि पार्टी के भीतर जाकर उन्हें अपनी बात मनवाने की जरूरत है। इस कड़ी में अखिलेश विरोधी जो फैसले हुए हैं, उन्हें पलटे जाने की जरूरत है। पर शिवपाल और उनका गुट अन्य अखिलेश समर्थकों के साथ रामगोपाल यादव तक को पार्टी से बर्खास्त करने जितनी बड़ी कार्रवाई कर चुका है और ऐसे में इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि पार्टी और टिकट-बंटवारे के फैसलों में अखिलेश की बहुत ज्यादा सुनी जाएगी। जाहिर तौर पर यहां दूसरा विकल्प भी आता है कि अखिलेश इंदिरा गांधी की भांति 'नई इंदिरा कांग्रेस' जैसी अलग पार्टी गठित करने की प्रेरणा लें। हालाँकि, अब तक अखिलेश यादव उस राह पर जाने की कोशिश में दिख रहे हैं जिस राह पर 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व नरेंद्र मोदी चले थे। आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी घोषित करने के लिए भाजपा में तब कितना बवाल हुआ था। पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता, संघ के बड़े नेता नरेंद्र मोदी को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, भाजपा के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी तो खुला विद्रोह तक करने की धमकी दे रहे थे, किंतु कार्यकर्ताओं के दबाव में अंततः मोदी के लिए राह खोलनी पड़ी थी।
अखिलेश के सामने ऐसे में दो उदाहरण हैं और दोनों उदाहरणों से एक ही सीख मिलती है कि अब उन्हें आगे बढ़ना होगा, चाहे पार्टी में रहकर नरेंद्र मोदी की तरह अपना वर्चस्व साबित करें या फिर पार्टी से बाहर जाकर वह इंदिरा कांग्रेस की तरह अपनी राजनीतिक लड़ाई लड़ें! हालाँकि, नयी राह पर चलने में राज ठाकरे बन जाने का खतरा भी रहता है, किन्तु जिस परिपक्व ढंग से अखिलेश ने अपने कार्यकाल में सरकार चलाई है, तो उनके राज ठाकरे बनने की उम्मीद कम ही है। कुल मिलाकर संभावना चाहे जो हो, अखिलेश को अब खुद को साबित करना ही होगा कि राजनीतिक विरासत उन्हें 'भीख' में नहीं मिली है, बल्कि वह उसके योग्य भी हैं और इसके लिए उन्हें 'लीक' से हटकर चलना ही पड़ेगा। कहा भी गया है
"लीक लीक तीनों चलें कायर कुटिल कपूत।
लीक छोड़ तीनों चलें शायर सिंह सपूत"
तो पुत्र का धर्म निभाने के लिए भी अखिलेश को स्टेप लेना पड़ेगा, रिस्क लेना पड़ेगा। समाजवादी पार्टी सत्ता में आ ही जाएगी, इसकी संभावनाएं दिन पर दिन कम होती जा रही हैं, किंतु अगर अखिलेश यादव मजबूती से उभरते हैं और उनकी टीम द्वारा सही राजनीतिक चालें चली जाती हैं, कार्यकर्त्ता उनकी ओर मुड़ जाते हैं, तो मामला सकरात्मक मोड़ भी ले सकता है। चुनाव बाद सत्ता में वह न भी आएं तो कम से कम विपक्षी पार्टी के नेता की इज्जत उन्हें जरूर मिलेगी। पूरे प्रकरण का लब्बोलुआब यही है कि अखिलेश को मजबूती से आगे बढ़ना पड़ेगा, मजबूत और दृढ़ इच्छाशक्ति के नेता की तरह पेश आना होगा, राजनीति की खातिर पारिवारिक बेड़ियों को तोड़ने की जरूरत पड़े तो, अखिलेश को यह भी करना होगा, अब तक वह अपने पिता के प्रति भक्ति दर्शाते आए हैं किंतु अगर जरुरत पड़े तो उन्हें बगावत का झंडा भी उठाना पड़ेगा, क्योंकि दूसरों के द्वारा परोसी गई "थाली" हमेशा नहीं मिलती और अगर समय यह मांग करता है कि अखिलेश अपनी राजनीति की योग्यता साबित करें, तो उन्हें यह करना ही होगा, अन्यथा इतिहास का कूड़ेदान विफल नेताओं की तरह उन्हें भी अपने भीतर गुमनाम कर देगा!
- मिथिलेश कुमार सिंह
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