कानून व्यवस्था सुधारने को जनता ने भाजपा को सौंपी गद्दी

वास्तविकता के धरातल पर सर्वमान्य तथ्य सिर्फ यही है कि भ्रष्टाचार एवं बिगड़ी कानून व्यवस्था से आजिज आ चुकी उत्तर प्रदेश की जनता ने लगभग एकजुट होकर भारतीय जनता पार्टी को सत्ता सौंपी है।

उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली अप्रत्याशित जीत को लेकर राजनीतिक पंडित अनेक प्रकार से विश्लेषण कर रहे हैं। कोई इसे अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग बता रहा है तो कोई मोदी की आंधी। जबकि वास्तविकता के धरातल पर सर्वमान्य तथ्य सिर्फ यही है कि भ्रष्टाचार एवं बिगड़ी कानून व्यवस्था से आजिज आ चुकी उत्तर प्रदेश की जनता ने लगभग एकजुट होकर भाजपा को सत्ता सौंपी है। पिछले लगभग 15 वर्षों से उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार और अराजकता की सारी सीमायें टूट चुकी थीं। आज लोग न केवल सड़कों पर बल्कि अपने घरों तक में पूरी तरह असुरक्षित हैं। सरकारी विभागों में खुलेआम वसूली हो रही है। खनन माफियाओं की लूट जगजाहिर है। शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह बदहाल हो चुकी है। पुलिस विभाग का आलम तो यह है कि बड़े−बड़े अपराधी पैसे के बल पर छूट जाते हैं और निर्दोष गंभीर धाराओं में सलाखों के पीछे पहुँचा दिए जाते हैं। महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएँ सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी हैं। ऐसे में प्रदेश की जनता को एक ऐसी सरकार की आवश्यकता थी, जो अपराध और भ्रष्टाचार से प्रदेश को निजात दिला सके।

प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को संभवतः प्रदेशवासियों की इस पीड़ा का समय रहते अहसास हो गया था और उन्होंने अपनी प्रत्येक चुनावी सभा में इस मुद्दे को न केवल प्रभावी ढंग से रखा बल्कि अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई का आश्वासन भी दिया। उनके इस आश्वासन से समाज का वह अंतिम व्यक्ति भी आश्वस्त हुआ है जो जाति, सम्प्रदाय और दलगत राजनीति से पृथक सिर्फ आम नागरिक होता है। चुनावी इतिहास साक्षी है कि सत्ता सदैव उसी को प्राप्त हुई है, जिसके पक्ष में यह आम नागरिक मतदान करता है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी अब तक के अपने कार्यकाल में देश को एक संदेश देने में पूरी तरह सफल रहे हैं कि वे जो वादा करते हैं उसे संकल्पबद्ध होकर पूरा करने का हर संभव प्रयास करते हैं। शायद तभी कानून व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नरेन्द्र मोदी द्वारा दिए गये आश्वासनों से प्रदेश की जनता पूरी तरह आश्वस्त है।

राष्ट्र/राज्य की अवधारणा के मूल में सुरक्षा ही सबसे अहम कारण है। अतः अपने नागरिकों में सुरक्षा का भाव सतत रूप से बनाये रखना सत्ताधीश का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। लोकतान्त्रिक व्यवस्था  में तो यह दायित्व और भी अधिक बढ़ जाता है। परन्तु दुर्भाग्य से मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव तक बीते तीन कार्यकाल प्रदेश में सुरक्षा और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पूरी तरह विफल ही सिद्ध हुए हैं। मायावती का कार्यकाल तो भ्रष्टाचार के चरम के लिए ही जाना जाता है। 29 अगस्त 2003 को मुलायम सिंह यादव के मुख्यमन्त्री बनने के बाद से उत्तर प्रदेश में अपराध का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ा था। बीहड़ का अपहरण उद्योग इसी समय फला−फूला। शिवपाल सिंह यादव की छवि अपराधियों के संरक्षक के रूप में बन गयी थी। एक जाति और सम्प्रदाय विशेष से आने वाले लोगों की अराजकता से प्रदेश की जनता त्राहि−त्राहि कर उठी थी। कब, किसे और कहाँ लूट लिया जाये, कब, किसकी और कहाँ हत्या हो जाये, कब, किसका और कहाँ अपहरण हो जाये तथा कब, कहाँ और किस महिला के साथ दरिंदगी हो जाये, किसी को कुछ भी नहीं पता रहता था। आम आदमी घर के अन्दर भी स्वयं को असुरक्षित समझने लगा था।

निर्भय गुर्जर तथा ददुआ जैसे डकैत भी इसी कार्यकाल में बेखौफ होकर वारदातें कर रहे थे। ये डकैत तो चुनाव के समय सपा के पक्ष में मतदान करने के लिए खुलेआम फरमान तक जारी करते थे। हालांकि मुलायम सिंह ने अपना कार्यकाल समाप्त होने के साथ ही चम्बल के डकैतों का सफाया तो करा दिया था परन्तु जनता के खौफ को जरा भी कम नहीं कर पाये। परिणामस्वरूप 2007 के विधान सभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने बहुजन समाज पार्टी को 206 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत देकर मायावती को सत्ता की कमान थमा दी। दरअसल मायावती ने अपने बीते छोटे−छोटे तीन मुख्यमंत्रित्व काल में जिस तरह से काम किया था, उससे उनकी छवि एक सख्त प्रशासक के रूप में उभरकर सामने आयी थी। तब उनकी सभी सरकारें गठबन्धन या समर्थन से बनी थीं। अतः प्रदेश की जनता ने उन्हें स्पष्ट बहुमत देकर प्रदेश की कानून व्यवस्था सुधारने का एक बड़ा अवसर दिया था। जबकि वे तथा उनके चाणक्य इस जीत का श्रेय अपनी सोशल इंजीनियरिंग को दे रहे थे। इसी मुगालते में बहन जी का पूरा ध्यान प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर लग गया और प्रदेश की कानून व्यवस्था सुधरने की जगह और अधिक बिगड़ गयी। उनके विधायक और मंत्री खुलेआम अराजकता फैलाने लगे। इसके साथ ही भ्रष्टाचार भी अपनी सारी सीमाएं तोड़ गया। मंत्री, विधायक तथा बसपा के बड़े नेता अधिकारियों से तो अधिकारी कर्मचारियों और जनता से वसूली करने लगे। अराजकता और भ्रष्टाचार से आम आदमी चीत्कार कर उठा। अब उसे 2012 के चुनाव का इंतजार था परन्तु सही विकल्प नहीं दिखायी दे रहा था। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में 2009 का लोकसभा चुनाव हार चुकी भाजपा की बजाय उसका ध्यान कांग्रेस की तरफ गया परन्तु इसी बीच समाजवादी पार्टी की चुनावी कमान अखिलेश यादव के हाथों में चली गयी। उन्होंने प्रदेश भर में घूम−घूमकर साइकिल यात्रायें कीं और जनता को यह विश्वास दिलाया कि इस बार वे प्रदेश से न केवल भ्रष्टाचार को समाप्त करेंगे बल्कि अपराध पर भी नियन्त्रण लगायेंगे। इसके साथ ही उन्होंने पूरे समय शिवपाल सिंह यादव से दूरी बनाकर भी रखी। जनता ने उनके उत्साह को देखते हुए एक बार पुनः सपा पर भरोसा जताया और 224 सीटों के साथ उन्हें सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हुआ।

अपने पांच साल के कार्यकाल में अखिलेश यादव ने प्रदेश में विकास की कई योजनाओं को मूर्तरूप प्रदान किया परन्तु कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वे पूरी तरह विफल ही साबित हुए। ऐसे में उनके लिए हार का मुंह देखना स्वाभाविक था। अब प्रदेश का आम आदमी एक नया विकल्प चाहता था। जो उसे भाजपा के रूप में मिला। मुख्यमन्त्री का चेहरा दिखाये बिना प्रदेश का चुनाव लड़ने वाली भाजपा से जुड़ने में पहले तो आम आदमी झिझक रहा था परन्तु नरेन्द्र मोदी की ताबड़तोड़ सभाओं से यह झिझक समाप्त हो गयी। उनके आश्वासनों और इरादों से यह स्पष्ट हो रहा था जैसे कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद मुख्यमन्त्री कोई भी रहे परन्तु सत्ता का संचालन उनके ही हाथों में रहेगा। प्रदेश के नए मुख्यमन्त्री के समक्ष यही एक सबसे बड़ी चुनौती होगी कि वे प्रधानमन्त्री की घोषणाओं के अनुरूप चलकर जनता की कसौटी पर खरे उतरे। सन 1989 से लेकर 2002 तक जाति और सम्प्रदाय के नाम पर मतदान कर चुकी जनता अब इससे परे जा चुकी है। 2007 से लेकर 2017 तक उसने सिर्फ कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार के मुद्दे को ही प्राथमिकता दी है। पिछली दो सरकारों ने उसके विश्वास को सिर्फ तोड़ा ही है। अब भारतीय जनता पार्टी की बारी है। सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और रोजगार की कमी से जूझ रही जनता की फिलहाल प्राथमिकता कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार को लेकर ही है। अब देखना यह है कि प्रदेश की नयी सरकार जनता की अपेक्षाओं पर कितनी खरी उतरती है।

- डॉ. दीपकुमार शुक्ल

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