मुख्य न्यायाधीश के दर्द को समझना भी जरूरी

भारत के मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिक रूप से ''न्यायपालिका'' की ''तारीखी'' छवि पर बिलख उठे किन्तु इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं है क्योंकि किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति को उस ''संस्था'' की छवि की चिंता रहती ही है, जिससे वह जुड़ा होता है।

कहा जाता है कि 'न्याय मिलने में देरी अन्याय से कम नहीं' और भारतीय सन्दर्भ में तो धारणा बन गयी है कि ऐसा कोई न्याय नहीं, जो जल्दी मिल जाए। कई लोगों पर उनकी जवानी में केस दर्ज होता है और उनके बूढ़े होकर मर जाने तक उस केस पर फैसला नहीं हो पाता है। यहाँ एक ऐसी परिस्थिति बनी है, जिसने हमारी न्यायपालिका की छवि को 'नकारात्मकता' की ओर ही ढकेला है। ऐसा नहीं है कि इस 'न्यायपालिका' में केवल जज ही हों, बल्कि वकील से लेकर कोर्ट रूम में बैठे प्रत्येक कर्मचारी की छवि 'तारीख पर तारीख' जैसी हो गयी है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर जब सार्वजनिक रूप से 'न्यायपालिका' की इस 'तारीखी' छवि पर बिलख उठे तो कइयों को यह आश्चर्य जैसा प्रतीत हुआ होगा, किन्तु इसमें आश्चर्य जैसा कुछ इसलिए नहीं है क्योंकि किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति को उस 'संस्था' की छवि की चिंता रहती ही है, जिससे वह जुड़ा होता है। देखा जाये तो हालिया मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश महोदय का दर्द भर ही नहीं है, बल्कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मद्धम स्वर में 'जजों की छुट्टियां' नियंत्रित करने का उद्धरण भी एक सार्थक चर्चा की शुरुआत कर सकता है। इतना ही क्यों, जब न्यायपालिका की चर्चा हो रही है तो सिर्फ 'जजों की कमी' पर बात केंद्रित किया जाना पूरा नहीं तो 'आंशिक नाइंसाफी' तो है ही। मुख्य न्यायाधीश महोदय ने कई आंकड़े दिए और वह गलत भी नहीं हैं, किन्तु भारत के सन्दर्भ में हम 'अमेरिकी मानदंडों' को किस प्रकार उद्धृत कर सकते हैं?

सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि सिर्फ जजों की कमी की बात करके, कहीं हम न्याय-व्यवस्था की दूसरी कमियों से मुंह तो नहीं मोड़ रहे हैं? क्या हमारी 'न्याय-प्रणाली' में यह सोच नहीं घुसी हुई है कि 'मामले को लटकाओ', जितना ज्यादा मामला लटकेगा, उतनी ही जेब भरेगी। क्या यह तथ्य नहीं है, जिसे अदालत में कदम रखते ही महसूस किया जा सकता है और इसे आम-ओ-खास हर व्यक्ति महसूस कर सकता है कि 'वकील' जान बूझकर 'तारीख पर तारीख' देते हैं।

अपने देश में यह बात आप को हर जगह आसानी से सुनने को मिल जाएगी कि कोर्ट-कचहरी के चक्कर में पड़ोगे तो पूरी जिंदगी बीत जाएगी। यह पूरी तरह से सच ही है। इन सब में सबसे ज्यादा बुरा हाल और नुकसान गरीबों का होता है। बिचारे इस उम्मीद में अपनी जिंदगी की कमाई कचहरी के चक्कर काटने में गंवा देते हैं कि अगली तारीख पर शायद उन्हें न्याय मिल जाये। इसी साल मार्च 2016 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 150वें स्थापना दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने यह बात प्रमुखता से उठाई थी कि कैसे न्यायालयों में मुक़दमे लंबित पड़े हैं और उन पर कोई सुनवाई नहीं हो पाई है। राष्ट्रपति महोदय ने भी इसका प्रमुख कारण जजों की कमी को ही बताया था।

इसी क्रम में, उच्च-न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के एक संयुक्त सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति ठाकुर ने भावनात्मक भाषण देते हुए कहा कि देश की निचली अदालतों में 3 करोड़ केस लंबित हैं। ऐसे में, कोई यह नहीं कहता कि हर साल 20000 जज 2 करोड़ केस की सुनवाई पूरी करते हैं। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि लाखों लोग जेल में हैं, उनके केस नहीं सुने जा रहे हैं तो हम जजों को दोष मत दीजिए। मुख्य न्यायादेश महोदय की बात कुछ हद तक अवश्य ही सही है, किन्तु सवाल वही है कि क्या यही बात अकेली हमारी न्याय-व्यवस्था के लिए सही है? आज यदि किसी व्यक्ति को न्याय मिल भी जाता है, तब तक वह अपना लम्बा समय और काफी धन गँवा चुका होता है। ऐसे में प्रश्न हमारी प्रणाली पर भी उठते हैं। हालाँकि, देश के उच्च न्यायालयों में 38 लाख से ज्यादा केस पेंडिंग हैं, तो हाई कोर्ट्स में 434 जजों की वेकेंसी अब भी है।

चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर के ही शब्दों में, अकेले इलाहाबाद हाईकोर्ट में 10 लाख केस लंबित हैं। अपने वक्तव्यों में मुख्य न्यायाधीश ने कई आंकड़े दिए, किन्तु न्यायपालिका की प्रणाली को पूरी तरह 'क्लीन चिट' दे दिया जाना कहीं न कहीं अखरता भी है। खैर, न्यायाधीश महोदय के तर्क को भी सरकार को सुनना ही चाहिए और व्यवहारिक हल की पहल भी करनी चाहिए। इसी क्रम में, जस्टिस ठाकुर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट जब 1950 में बना तो आठ जज थे और 1000 केस थे। ऐसे ही, 1960 में जज 14 हुए और केस 2247 हो गए। 1977 में जजों की संख्या 18 हुई तो केस 14501 हुए, जबकि 2009 में जज 31 हुए तो केस बढ़कर 77151 हो गए। इसी तरह 2014 में जजों की संख्या नहीं बढ़ी, पर केस 81553 हो गए।

जाहिर है कि यह सारे आंकड़े अपनी जगह ठीक हैं, किन्तु सिर्फ केस के अनुपात में जजों की संख्या बढ़ाने को ही 'सही न्याय' का पैमाना किस प्रकार माना जा सकता है? क्या यह सच नहीं है कि जो कार्य 80 या 90 के दशक में 50 लोग मिलकर करते थे, उसी कार्य को आज 2016 में 1 व्यक्ति ही 'टेक्नोलॉजी' की सहायता से कर ले रहा है? क्या अदालतों में कम्प्यूटराइजेशन, ईमेल, फॉरेंसिक रिपोर्ट्स और दूसरी तमाम सुविधाएं नहीं पहुंची हैं, जिनसे 'फैसला सुनाना' कहीं ज्यादा आसान और सटीक हो गया है। क्रिकेट के दीवाने इस बात को बखूबी जानते हैं कि पहले 'अम्पायर्स' कितने गलत फैसले दे देते थे, किन्तु टेक्नोलॉजी की सहायता से अब 'थर्ड अम्पायर' क्विक और सटीक डिसीजन देने लगे हैं। सच तो यही है कि आज भी 'न्यायपालिका' विशिष्ट सोच से उबर नहीं पायी है, अन्यथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'जजों की छुट्टियां' कैंसल करने के उद्धरण पर वह पुनर्विचार को अवश्य ही तैयार हो जाती। इसके अतिरिक्त, अदालती कामकाज की भाषा 'हिंदी' बनाने को लेकर जाने कब से बात हो रही है, किन्तु उस पर न्यायपालिका एक तरह से 'उदासीन' ही है। ऐसे में 'अंग्रेजी' फैसलों को बिचारा गरीब पढ़ भी नहीं सकता और वकील उसे जो भी 'उल्टा-पुल्टा' बताता है, उसे मानने को वह मजबूर हो जाता है। सिर्फ गरीब ही क्यों, देश की 90 फीसदी जनता, अदालतों द्वारा दिए गए फैसलों को सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ पाती, क्योंकि वह 'हिंदी' में नहीं हैं। यह ठीक बात है कि अमेरिका में नौ जज पूरे साल में 81 केस सुनते हैं जबकि भारत में छोटे से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक एक-एक जज 2600 केस सुनता है, किन्तु सवाल तो भारत का ही है। सिर्फ जजों पर ही 'वर्क-लोड' ज्यादा है, यह मानने वालों को पुलिस, सरकारी कर्मचारी और सेनाधिकारियों की कमी का भी विश्लेषण कर लेना चाहिए।

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