उत्तर प्रदेश ने आखिर नरेन्द्र मोदी को ले लिया गोद

विधानसभा चुनाव परिणाम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कथन सही सबित हुआ कि उत्तर प्रदेश ने उन्हें गोद ले लिया है। जिन्होंने उन्हें बाहरी बताया था उनके सामने अब मुंह छिपाने कि नौबत है।

देश के सबसे बड़े प्रदेश में नरेन्द्र मोदी का करिश्मा और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का प्रबन्धन यथावत कायम है। प्रदेश कसाब अर्थात कांग्रेस, सपा, बसपा से मुक्त हुआ। इसी के साथ भाजपा का चौदह वर्ष से चल रहा वनवास समाप्त हुआ। भाजपा को ऐसी सफलता रामजन्म भूमि आन्दोलन के समय भी नहीं मिली थी। मोदी का कथन सही सबित हुआ कि उत्तर प्रदेश ने उन्हें गोद ले लिया है। जिन्होंने उन्हें बाहरी बताया था उनके सामने मुंह छिपाने कि नौबत है। भाजपा के सदस्यों व समर्थकों का मोदी मोदी नारा लगाना समझ आता है लेकिन कांग्रेस, सपा और बसपा का अंदाज भले नकारात्मक हो, पर इसके नेता भी मोदी−मोदी तक ही सिमट गए थे। मतलब साफ है। भाजपा के समर्थक वास्तविकता को पहचान रहे थे। लेकिन उसके विरोधी गलतफहमी में फंसे रहे। उन्होंने अपना चुनाव प्रचार अभियान भी मोदी पर केन्द्रित कर दिया। ऐसा लग रहा था, जैसे वह विधानसभा का नहीं लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं।

वर्षों तक यहां सपा और बसपा मुख्य मुकाबले में थी। निजी से लेकर नीतियों को लेकर एक दूसरे पर हमला बोलते थे। लेकिन केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद इसमें बदलाव आया। अनेक मामलों में कांग्रेस, सपा और बसपा का एक मत होना भी इनको भारी पड़ा। संप्रग सरकार को भी सपा−बसपा बाहर से समर्थन दे रहे थे लेकिन उस समय भी प्रदेश में दोनों पार्टियां एक−दूसरे के आमने सामने रहती थीं।

मोदी के आने से जो परिवर्तन हुआ, वह दिलचस्प रहा। मोदी के विरोध में कांग्रेस, सपा, बसपा उस धरातल पर आ गयी थीं, जहां इनकी मुख्य प्रतिद्वंद्विता शिथिल दिखाई देने लगी थी। राहुल गांधी, अखिलेश यादव और मायावती तीनों खाते में पन्द्रह लाख रुपए ना मिलने पर समान रूप से परेशान थे। नोटबन्दी ने तो रही−सही कसर पूरी कर दी ऐसा लग रहा था, जैसे इन तीनों पार्टियों का आपसी मतभेद समाप्त हो गया है। तीनों कह रहे थे कि नोटबंदी से सब बर्बाद हो गया, कृषि और व्यवसाय सब चौपट हो गया।

स्पष्ट है कि राहुल, अखिलेश और मायावती नोटबन्दी पर आमजन की भावना को समझने में विफल रहे। आमजन का तो मोदी के प्रति विश्वास बढ़ा था। यह आम धारण थी कि मोदी कालाधन समाप्त करना चाहते हैं। राहुल, अखिलेश, मायावती किस पाले में नजर आ रहे थे यह बताने कि जरूरत नहीं है। संसद में भी ये नेता सदैव मोदी पर हमले को लेकर एकजुट थे। दिल्ली से लेकर लखनऊ तक इसकी सहमति आमजन को पसन्द नहीं आयी। दूसरी प्रकार की सहमति सपा व बसपा के सत्ता स्तर पर थी। प्रतिद्वन्दी दलों में से किसी की भी सत्ता हो, लोक कल्याण के विषयों पर दलगत सीमा से  ऊपर उठ कर कार्य होना चाहिए। ऐसे मामलों पर निरन्तरता होनी चाहिए। लेकिन सपा, बसपा सरकार में निरन्तरता व सहमति इस पर नहीं थी वरन् भष्टाचार के आरोपियों पर सहमति दिखाई दी। यादव सिंह जैसे अनेक अधिकारी इसके प्रमाण थे।

इसके अलावा दोनों पार्टियां एक दूसरे के समय हुए घोटालों की जाँच कराने व दोषियों को सजा दिलाने का वादा करके सत्ता में आई थीं लेकिन बाद में लोकायुक्त की जांच रिपोर्ट पर भी कार्रवाई नहीं की गयी। सपा ने काम बोलता है व यू.पी. को अखिलेश−राहुल का साथ पसंद है, नारे को खूब महत्व दिया। उन्हें लगा कि यह नारे उन्हें विजयी बना देंगे लेकिन इसका उल्टा असर हुआ। काम बोलने की नौबत होती तो कहने कि जरूरत नहीं होती। यह तो लोगों के अनुभव की बात है। राहुल तो कुछ दिन पहले सत्ताइस साल यू0पी0 बेहाल अभियान चला रहे थे। बेहाल और साथ पसंद के बीच कोई संबंध ही नहीं था। लोगों को ये बात पसन्द नहीं आई। दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी पर जितना हमला किया गया, उससे भी लोग खुश नहीं हुए। मोदी की नीयत पर लोगों का विश्वास कायम रहा। उन पर हमला करने वालों को नुकसान उठाना पड़ा।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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