भारत के आंतरिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप कर रही है वेटिकन सिटी

Vatican City is directly interfering in internal affairs of India
राकेश सैन । May 31 2018 11:02AM

दिल्ली के आर्कबिशप अनिल काउंटो ने सभी चर्चों को पत्र लिख कर जो संदेश दिया है उससे देश में राजनीतिक हड़कंप मच गया है। आर्कबिशप ने लिखा है कि हम लोग अशांत राजनीतिक माहौल के गवाह हैं।

दिल्ली के आर्कबिशप अनिल काउंटो ने सभी चर्चों को पत्र लिख कर जो संदेश दिया है उससे देश में राजनीतिक हड़कंप मच गया है। आर्कबिशप ने लिखा है कि हम लोग अशांत राजनीतिक माहौल के गवाह हैं। इस समय जो राजनीतिक हालात हैं, उसने देश के लोकतांत्रिक सिद्धांतों व धर्मनिरपेक्ष पहचान के लिए खतरा पैदा कर दिया है। उन्होंने ईसाई समाज से राजनेताओं के लिए प्रार्थना करने की अपील की है। सत्तापक्ष और विपक्ष अपने-अपने नफा नुक्सान के हिसाब से इसका समर्थन या विरोध कर रहे हैं। इससे पहले गुजरात, मेघालय, नागालैंड के विधानसभा चुनावों में भी ऐसा ही कुछ हो चुका है। जो बुद्धिजीवी इसे केवल राजनीतिक मुद्दा मानते हैं वे अंधेरे में हैं, वास्तव में यह वेटिकन सिटी का भारत के आंतरिक मामलों में सीधा-सीधा हस्तक्षेप है क्योंकि आर्कबिशपों की नियुक्ति पोप करते हैं जो धर्मगुरु होने के साथ-साथ वहां के सम्राट भी हैं। दुनिया की राजनीति में उनका बहुत बड़ा हस्तक्षेप है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पोप चर्च के माध्यम से दुनिया भर की सरकारों को प्रभावित करने का काम करते हैं और आर्कबिशपों की निष्ठा केवल उन्हीं के प्रति होती है।

देश के पूर्वोत्तर राज्यों के केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि प्रशासनिक व सामाजिक व्यवस्था को काफी सीमा तक चर्च ही नियंत्रित करता है। यह एतिहासिक तथ्य है कि चर्च ने ब्रिटिश इंडिया कंपनी के आने से पहले उनके एजेंट, अंग्रेजों का शासन स्थापित होने के बाद उसके स्तंभ के रूप में काम किया और अब वह भारत को क्रॉस के अंकुश से हांकने का प्रयास कर रही है। एक स्वतंत्र, स्वयंप्रभु, धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक राष्ट्र होने के नाते चर्च के इस हस्तक्षेप को चुनौती के रूप में लेना चाहिए। इसके लिए भारतीय ईसाई समाज को आगे आकर राष्ट्रीय चर्च का गठन करना चाहिए। एक ऐसी चर्च जो विशुद्ध रूप से बाईबल व प्रभु ईसा मसीह की प्रतिनिधि हो, जिसका नियंत्रण, संचालन, प्रबंधन, मार्गदर्शन भारत में और भारतीयों द्वारा ही हो। एक ऐसी स्वदेशी चर्च जिसकी कोई राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा न हो, धर्मांतरण के रोग से मुक्त, ईसाईयत के सिद्धांतों के अनुरूप सेवाभाव, अहिंसा व मानव प्रेम के गुणों से परिपूर्ण हो।

राष्ट्रीय या स्वदेशी चर्च की अवधारणा कोई नया सिद्धांत नहीं है। भारत में सीरियन आर्थोडोक्स चर्च व मैरथोमा चर्च (केरल) पूर्णत: स्वदेशी हैं। तथ्य भी बताते हैं कि इन चर्चों से कभी भी किसी तरह का विवाद नहीं रहा है। आरोप चाहे धर्मांतरण का हो या पूर्वोत्तर में आतंकवाद पोषण का, सदैव कैथोलिक चर्च पर ही अंगुलियां उठती रही हैं जिसका संचालन वेटिकन सिटी से होता है। साल 2000 में जब ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस व उसके परिवार को जला कर मारा गया था तो उस समय भी स्वदेशी चर्च की मांग उठी थी। भविष्य में इस प्रकार की घटनाएं रोकने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक केसी सुदर्शन ने यह सुझाव दिया था। पूरी दुनिया के इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो राष्ट्रीय या स्वदेशी चर्च का खुद ईसाईयत का अंर्तद्वंद्व है। सन 1517 में कैथोलिकों के खिलाफ चले प्रोटेस्टेंट सुधार आंदोलन की उपज है राष्ट्रीय या स्वदेशी चर्च, जिसमें पोप की सत्ता को जबरदस्त चुनौती मिली और उनके अधिकार छिन्न-भिन्न हो गए। इस आंदोलन में पोप की हैसियत केवल रोम के बिशप तक सिमट गई जो कि वस्तुत: यही सच्चाई भी है। आंदोलन ने पोप के सीमापार अधिकारों को अस्वीकार कर दिया गया। रोमन कैथोलिक चर्च जिन्हें पहले पश्चिमी चर्च व अन्यों को पूर्वी चर्च कहा जाता था अब वे 'रिफार्म्ड चर्च' (सुधारवादी चर्च) कहलाने लगीं। इन चर्चों में लातिनी भाषा से अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच सहित अनेक योरपियन व अफ्रीकी भाषाओं में अनुवादित बाईबल पढ़ी जाने लगीं और हर तरह से पोप व रोम की सत्ता को चुनौती मिली।

सन 1533 में इंग्लैंड के सम्राट हैनरी (अष्टम) का पत्नी से तलाक को लेकर पोप के साथ विवाद हो गया। बर्तानवी संसद की सहमति से उन्होंने इंग्लिश चर्च की स्थापना की जो पूर्णत: पोप व वेटिकन से स्वतंत्र थी। इसकी देखादेखी स्कॉटलैंड ने भी अपनी राष्ट्रीय चर्च का गठन कर लिया। अधिकतर प्रोटेस्टेंट राज्यों में चर्च राष्ट्रीय कानूनों का एकीकरण हो गया। आज फ्रांस, स्पेन, डेनमार्क, नार्वे जैसे ईसाई राज्यों में स्वदेशी चर्च हैं। कम्यूनिस्ट चीन में चाइनीज पेट्रीयोटिक चर्च का गठन किया गया है और वहां पर तो विदेशी ईसाई मिशनरियों का प्रवेश तक प्रतिबंधित है। अफ्रीका में ईसाईयत के प्रसार के बाद अफ्रीकन स्वतंत्र चर्च (एआईसीज) का गठन हुआ जिसके तहत आज हजारों चर्च काम कर रही हैं। 18वीं शताब्दी में कांगो की किंपा वीटा नामक समाज सुधारक महिला ने पुर्तगाली चर्च का विरोध किया और स्वदेशी चर्च की स्थापना की। किंपा पुर्तगाली चर्च को अपने देश में विदेशी हस्तक्षेप और साम्राज्यवादी शक्तियों की प्रतिनिधि मानती थी।

दिल्ली के आर्कबिशप अनिल काउंटो ने चाहे लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दी है, परंतु कैथोलिक चर्च में इन दोनों तत्वों का आकंठ अभाव है। पोप की विदेशी सत्ता द्वारा संचालित होने के कारण भारतीय चर्च लोहावरण ओढ़े हुए है। इसके अंदर होने वाली गतिविधियों के बारे में बाहरी दुनिया नगण्य सी जानकारी रखती है और आर्कबिशप जनसाधारण से दूरी ही बना कर रखते हैं। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है तो कैथोलिक चर्च पर दूसरे पंथों के प्रति असहिष्णुता के व्यवहार के आरोप लगते हैं। यह दूसरे पंथ या विश्वासों को असभ्य मान कर चलती है और तभी तो सभी का धर्मपरिवर्तन करवा कर दुनिया को सभ्य बनाने के दावे करती है। चर्च ने अपना एजेंडा छिपाया भी नहीं और इसी कारण भारत में तनाव भी रहता है। अब समय आ गया लगता है कि भारतीय ईसाई समाज देश को विदेशी प्रभाव व हस्तक्षेप से मुक्त करने, धर्मांतरण के रूप में सामाजिक तनाव को मिटाने के लिए आगे आएं और विशुद्ध रूप से भारतीय या स्वदेशी चर्च का गठन करें। देश और प्रभु ईसा मसीह के प्रति यही उनकी सच्ची सेवा होगी।

-राकेश सैन

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