स्वार्थवश बनी विपक्षी एकता क्या आगामी चुनावों तक टिक पाएगी?

Will the Opposition unity sustained till the coming elections?
कमलेश पांडे । May 21 2018 1:20PM

किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति में विपक्षी एकता का मतलब होता है जनहित के कतिपय अहम मुद्दों पर गोलबंद होकर मदमस्त सत्ता से टकराना और जनहित की बात किसी भी कीमत पर मनवाना।

किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति में विपक्षी एकता का मतलब होता है जनहित के कतिपय अहम मुद्दों पर गोलबंद होकर मदमस्त सत्ता से टकराना और जनहित की बात किसी भी कीमत पर मनवाना। लेकिन भारतीय राजनीति में विपक्षी दलों की एकता के अपने खास निहितार्थ हैं जो कि हमेशा ही सवालों के घेरे में रहे हैं, क्योंकि इनके लिए विरोधी दलों की एकता एन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने की जद्दोजहद से ज्यादा कुछ विशेष मायने नहीं रखते! और यही वजह है कि सत्ता उनके करीब आकर भी प्रायः दूर चली जाती है। यानी कि वह कभी भी ज्यादा दिनों तक सत्ता में नहीं टिक पाते हैं! इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम नरेंद्र मोदी विरोधी जिस विपक्षी एकता का कल खुलकर इजहार किया है, वह कर्णप्रिय तो है लेकिन इसका अनुभव बहुत अधिक डरावना रहा है भारतीय मतदाताओं के लिए, कुछेक अपवादों को छोड़कर।

बता दें कि विपक्षी एकता की मिसाल समझी जाने वाली 1967 की संविद सरकार, 1977 की जनता पार्टी सरकार, 1989 की जनता दल सरकार और 1996 की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के बनने-बिगड़ने की जो वजहें हैं, उससे जाहिर है कि राष्ट्रीय अथवा सूबाई राजनीति में इसकी प्रासंगिकता कम और अप्रासंगिकता ज्यादा महसूस की गई है। यहां पर स्पष्ट कर देना जरूरी है उपरोक्त तमाम विपक्षी एकता की मिसाल उसी कांग्रेस के खिलाफ बनी थी, जो कि आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए खुद ही विपक्षी एकता की सबसे बड़ी पैरोकार और खेवनहार बनकर उभर रही है। यह बात दीगर है कि कांग्रेस के खिलाफ बनी विपक्षी एकता में कभी समाजवादी मूल की क्षेत्रीय पार्टियां और बीजेपी गोलबंद हुआ करती थी, तो आज बीजेपी के खिलाफ बन रही विपक्षी एकता में भी समाजवादी मूल की क्षेत्रीय पार्टियों के साथ कांग्रेस भी गोलबंद हो रही हैं।

ऐसा इसलिए कि वर्ष 1990 के दशक से ही समाजवादी और राष्ट्रवादी विचारधारा के दल धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के सवाल पर अलग-अलग खेमों में बंट गए थे। उसके बाद समाजवादी दल कमजोर होते गए और राष्ट्रवादी दल बेहद मजबूत। क्योंकि समाजवादी दलों के साथ बीजेपी और कांग्रेस ने कभी उदारतापूर्ण व्यवहार नहीं किया। इतिहास साक्षी है कि जनता पार्टी की सरकार के पतन के पीछे भी समाजवाद और राष्ट्रवाद के टकराव के पीछे धर्मनिरपेक्षता भी एक बड़ा कारण बना, जिसके बाद जनसंघ की जगह बीजेपी का जन्म हुआ। लगे हाथ अटल-आडवाणी जैसे सुलझे हुए नेताओं के चलते इसका तेजी से विस्तार भी हुआ। हालांकि 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार भी धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर ही पर्याप्त बहुमत नहीं जुटा पाने के कारण जब महज 13 दिन में ही केंद्रीय सत्ता से बेदखल हो गई, तब बीजेपी ने भी कांग्रेस विरोधी विपक्षी एकता की कवायद तेज की और 1998 में केंद्र में पीएम बाजपेयी के नेतृत्व में ही 13 महीने की सरकार चलाई, जो कि सहयोगी दल द्वारा धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर ही धोखा देने की वजह से मात्र एक वोट की कमी से शहीद हो गई।

लेकिन इसके बाद बीजेपी ने भी कांग्रेस विरोधी एनडीए का विस्तार किया और 1999 में अपने गठबंधन साथियों के पूर्ण बहुमत वाली सरकार के साथ सत्ता में लौटी और तकरीबन 5 साल तक एनडीए सरकार का नेतृत्व किया। इसी दौर में कांग्रेस और समाजवादी दलों जैसी विपक्षी पार्टियों ने भी बीजेपी विरोधी विपक्षी एकता की कवायद शुरू की और कांग्रेस नीत यूपीए का जन्म हुआ, जिसने पुनः 10 साल तक केंद्र में शासन किया। इस प्रकार अब तलक विपक्षी एकता कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी की मुरीद बनती गई और दोनों ने इसे अपने पक्ष में खूब भुनाया, क्योंकि इनके शिवाय उनके सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। कमोवेश विभिन्न राज्यों में भी वक्त-वक्त पर ऐसी ही नौबत आई, जिससे सबने मिलजुलकर निबटा।

यही वजह है कि जब जब राजनैतिक अवसरवाद की वजह से विरोधी दलों की स्वार्थपरक मिलीभगत को विपक्षी एकता का अमलीजामा पहनाया जाता है तो कतिपय सवाल उठना लाजिमी है। क्योंकि जनहित के मद्देनजर विपक्षी एकता के जो मायने होने चाहिए, वो यहां बिल्कुल कम या फिर नहीं के बराबर दिखाई देते हैं। खासकर तब जबकि कांग्रेस अथवा बीजेपी जैसी विशालकाय सियासी पार्टियां विपक्षी एकता की मतलब परस्त कवायद प्रारम्भ करती हैं तो उनकी नीयत पर सहसा विश्वास और भरोसा करना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि इनका दुःखद अतीत ही उनकी ऐसी सुखद सोच के विरुद्ध बहुत कुछ बातें चुगली करती रहती हैं। इसलिए बुद्धिमान क्षेत्रीय दल इन दोनों दलों की मतलबपरस्त फ़ितरतों से हमेशा सावधान रहते हैं और इसीलिए उनका सियासी अस्तित्व भी महफूज है। अन्यथा जिनने भी नासमझ गलतियां की, उन्हें इतिहास ने भी दुरदुरा दिया, ठुकरा दिया।

ऐसा इसलिए कि पहले विपक्षी एकता का मतलब कांग्रेस को केंद्रीय/सूबाई सत्ता से हटाना होता था जो कि आज तेजी से बढ़ती बीजेपी को केंद्रीय/प्रांतीय गद्दी से बेदखल करने का सबब बनता जा रहा है। बीजेपी नीत एनडीए और कांग्रेस नीत यूपीए की परस्पर विरोधाभासी राजनीति भी इसे समझने के लिए पर्याप्त है। हालांकि कतिपय ऐसे भी समाजवादी-दलितवादी-वामपंथी दल हैं जिन्होंने समय-समय पर कांग्रेस-बीजेपी विरोधी तीसरा मोर्चा की राजनीति को भी हवा दी और अपने सियासी मकसद में कामयाब रहे।

और जब तीसरे मोर्चे के साझीदार दलों में भी आपसी पटरी नहीं बैठी और सूबे दर सूबे की अलग-अलग सियासी परिस्थितियों, दलगत मजबूरियों और स्वहितवर्द्धक मुद्दों की वजह से व्यक्तिगत टकराहट बढ़ी तो दलित नेत्री मायावती के नेतृत्व में वामपंथियों और लालू-मुलायम विरोधी समाजवादियों के सहयोग से चौथे मोर्चे तक की भी बात चली, जिसे जनता ने सियासी चालाकी समझकर सिरे से ही नकार दिया। इसलिए केंद्र में या फिर राज्यों में कांग्रेस, बीजेपी या तीसरे मोर्चे की सरकारें तो बनीं भी और बिखरी भीं, लेकिन चौथे मोर्चे के पास न तो कोई ऐसा अनुभव है और न ही किसी तरह का रिकार्ड, शिवाय थोथी दलील के।

यही वजह है कि जब तीसरे मोर्चे और बीजेपी नीत एनडीए से लड़ते-भिड़ते कांग्रेस बेदम हो गई और अंततोगत्वा बीजेपी के हाथों 2014 में भारी शिकस्त खाई तो बीजेपी में भी उत्साह वश एक बड़ा बदलाव आया और अटल-आडवाणी युग की समाप्ति की घोषणा कर दी गई। लिहाजा, 2014 में बीजेपी को मिले बम्पर बहुमत के बाद पार्टी में जिस मोदी-शाह युग की शुरुआत हुई, उसकी अप्रत्याशित राजनीतिक सफलता ने तीसरे और चौथे मोर्चे की राजनीतिक सम्भावनाओं में ही पलीता लगा दिया।

ऐसा इसलिए कि हिंदुत्व, विकास और सुशासन के रथ पर सवार होकर बीजेपी ने न केवल सबका साथ-सबका विकास जैसे चुनावी वायदे को अमलीजामा पहनाया, बल्कि दलितों-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के दूरगामी हितों के मद्देनजर इतने कड़े और विस्मयकारी आर्थिक फैसले (नोटबन्दी/जीएसटी) लिए कि विपक्ष में भगदड़ मच गई। मोदी-शाह द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गई निर्णायक मुहिम, संतुलित विदेश नीति, सूझबूझ से भरी प्रतिरक्षात्मक नीति, आतंकवादियों-नक्सलियों के दमन की नीति और जनहित से जुड़े मुद्दों को लेकर आक्रामक रणनीति को महसूस कर जनता ऐसी फिदा हुई कि विपक्ष से उसका मोहभंग हो गया।

विगत चार वर्षों में बीजेपी ने जिस तरह से थोक भाव में विपक्षी दलों और उनके गठबंधन को सूबाई सत्ता से निपटाई, उससे अल्पसंख्यकों की राजनीति करने वाली कांग्रेस, पिछड़ा वर्ग की राजनीति करने वाले समाजवादी दलों और दलित वर्ग की राजनीति करने वाले दलितवादी दलों और कतिपय अन्य क्षेत्रीय दलों के एकाधिकारी और वंशवादी नेताओं के माथे पर भी बल पड़ने लगा। यही वजह है कि अपने-अपने सियासी अहंकारों को तिलांजलि देकर ऐसे नेता एक दूसरे के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने की नीति पर बल देने लगे, जिसके सकारात्मक परिणाम यूपी और बिहार में सम्पन्न विभिन्न उपचुनावों में मिले, जिससे उनकी तत्परता बढ़ने लगी और कर्नाटक विस चुनाव में मिले त्रिशंकु जनादेश से तो उनकी बेताबी और अधिक बढ़ गई।

दरअसल, बीजेपी द्वारा विरोधी दलों के जनाधार को ठिकाने लगाने के वास्ते जिस प्रकार के नीतिगत फैसले लिए जा रहे हैं, उससे न केवल केंद्रीय राजनीति बल्कि सूबाई सियासत में भी बीजेपी विरोधी दलों की प्रासंगिकता पर सवाल उठने लगे, जिससे इनकी बेचैनी काफी बढ़ गई। लेकिन राजनीति में एक कहावत है कि मरता क्या नहीं करता, इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती ने जब सपा नेता अखिलेश यादव के सामने और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद से मतभेद होने पर जदयू नेता नीतीश कुमार ने बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी के समक्ष हथियार डाल दिये तो तीसरे-चौथे मोर्चे की वकालत करने वाला भी कोई नहीं बचा। याद दिला दें कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद कांग्रेस के समक्ष, लोजपा नेता और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान और रालोसपा नेता और केंद्रीय राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा बीजेपी के सामने बहुत पहले ही हथियार डाल चुके हैं। उधर, तृणमूल कांग्रेस नेत्री और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बीजेडी नेता और उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी नेता शरद पवार, आम आदमी पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, टीडीपी नेता और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू जैसे कुछेक दल बीजेपी विरोधी संघीय मोर्चा बनाने के लिए सियासी जद्दोजहद तो कर रहे हैं, लेकिन ये लोग अपने तल्ख व्यक्तिगत अनुभव और व्यापक जनाधार के चलते बेहद सिंकुड़ चुकी कांग्रेस के समक्ष घुटने टेकने को तैयार नहीं हैं।

रही बात कर्नाटक की तो कांग्रेस-जेडीएस में यदि वैचारिक तालमेल होता तो चुनाव पूर्व ही गठबंधन बन गया होता। लेकिन अब चुनाव बाद जो उनका अवसरवादी गठबंधन बना है, उससे कर्नाटक में भले ही उनकी सरकार बन जाएगी, लेकिन आगे क्या होगा उनके तल्ख अतीत के मद्देनजर निश्चयपूर्वक कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हां, इतना जरूर हुआ है कि कर्नाटक में भी अपना जनाधार खिसकता देख कांग्रेस को अब सद्बुद्धि आ गई है। यही वजह है कि दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद तीसरे स्थान पर रही पार्टी जेडीएस को महज इसलिए सौंप दिया, ताकि बीजेपी को सत्ता में आने से रोका जा सके। क्योंकि चुनाव के दौरान बीजेपी-जेडीएस गुफ्तगू की चर्चा आम थी। उसके लिए खुशी की बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से ही सही, किन्तु वह अपने कर्नाटक मिशन में कामयाब हो चुकी है।

दरअसल, कर्नाटक विजय से उत्साहित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दो टूक कहा है कि अब समूचा विपक्ष मिलकर पीएम मोदी से लोहा लेगा। इसका मतलब यह है कि कथित साम्प्रदायिक पार्टी बीजेपी को केंद्र और राज्यों की सत्ता से बेदखल करने के लिए मोदी विरोधी धर्मनिरपेक्ष दलों की विपक्षी एकता को मजबूत करने की वह पूरी कोशिश करेंगे और जरूरत पड़ी तो इसके लिए आवश्यक त्याग भी करेंगे। ऐसा इसलिए कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, बिहार में राजद, उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, उड़ीसा में बीजेडी और तमिलनाडु में डीएमके, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और दिल्ली में आम आदमी पार्टी का छोटा भाई बनकर यदि सियासी गुजर-बसर करना कांग्रेस सीख जाती है तो भले ही उसकी राष्ट्रीय धाक खत्म हो जाए, लेकिन वह बीजेपी मुक्त भारत के सपने देख सकेगी। क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेगी तो बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान को ही बल प्रदान करेगी। 

कहना न होगा कि कर्नाटक में जिस तरह से उसने जेडीएस को साधी, उसी तरह से यदि वह झारखंड में जेएमएम और झविमो(लो), बिहार में जेडीयू, रालोसपा और लोजपा (तीनों फिलहाल एनडीए के साथ) तथा हम पार्टी, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, हरियाणा में इंडियन लोक दल, यूपी में पीस पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल और अपना दल (एनडीए की सहयोगी पार्टी), तेलंगाना में टीआरएस, महाराष्ट्र में शिवसेना और तमिलनाडु में एआईडीएमके, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में वामपंथी पार्टियों जैसी जनाधार वाली तमाम छोटी-बड़ी पार्टियों को यदि वह उदारतापूर्वक अपने प्रभाव में ले लेती है, तो वह मिशन 2019 के तहत बीजेपी नीत एनडीए को कड़ी टक्कर दे सकती है। खास बात यह कि जैसे ही वह बीजेपी को मजबूत टक्कर देती दिखाई पड़ेगी तो एनडीए में शामिल कतिपय दुविधा-सुविधा वादी समाजवादी-दलितवादी दल भी अपने आप उसके पास खिंचते चले आएंगे, क्योंकि एनडीए में उनकी ज्यादा दाल नहीं गल पा रही है जिससे वे व्याकुल प्रतीत हो रहे हैं।

हालांकि राहुल गांधी को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि उनके पास पीएम मोदी से निपटने वाला तेवर तो है, लेकिन किसी को भी सत्ता से बेदखल करने के लिए जिस सियासी तजुर्बे और दलगत जमीनी संगठन/उपसंगठन की जरूरत होती है, उसकी भरपाई वह अगले एक साल से भी कम समय में करके अपने मिशन 2019 में कामयाब हो पाएंगे, इसमें मुझे सन्देह है। क्योंकि कर्नाटक विस चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से जनसमर्थन मिलने के बाद पीएम बनने का इरादा उन्होंने खुलेआम जाहिर कर दिया है, कमोबेश वही हसीन सपने तो ममता, मायावती, पवार, नायडू, अखिलेश, देवगौड़ा, तेजस्वी सरीखे न जाने कितने नेता देखते होंगे, उनके चेहरे से भी इस बात का अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। शायद इसलिए भी विपक्षी एकता के सवाल पर उनके मुंह में राम, बगल में छुरी होती है जिससे लहूलुहान कोई न कोई अपना ही होता है जिस पर विपक्षी एकता का भी समूचा दारोमदार निर्भर रहता है।

यही वजह है कि कांग्रेस बीजेपी वाली चालाकी बरते। जिस तरह से कभी जनसंघ (बीजेपी), समाजवादियों का छोटा भाई बनकर आज बड़ा भाई बन चुका है, उसी तरह से कांग्रेस भी यदि समाजवादियों का छोटा भाई बनने की हुनर सीख ले, जैसा कि कर्नाटक में वह खुद ही शुरुआत कर चुकी है, तो आने वाले वर्षों में उसकी बल्ले-बल्ले हो सकती है। यदि वह ऐसा करने में सफल रही तो निश्चय ही निकट भविष्य में अपना खोया जनाधार पा लेगी, अन्यथा नहीं। क्योंकि सियासी राह बड़ी उबड़-खाबड़ होती है जिस पर बहुत सम्भल कर चलना होता है। और यह कौन नहीं जानता कि राहुल गांधी तो अभी राजनीति का पहाड़ा सीख रहे हैं। इसलिए यदि वह पीएम पद का सपना देखते हैं तो उन घाघ राजनीतिज्ञों का क्या कसूर जिनके बाल जनसंघर्ष की वजह से ही पक चुके हैं।

-कमलेश पांडे

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