पानी से आर्सेनिक हटाने में मददगार हो सकते हैं कृषि अपशिष्ट

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शोधकर्ताओं ने पाया कि गन्ने की भूसी से बने अवशोषक में आर्सेनिक सोखने की सबसे अधिक क्षमता होती है। इसके बाद, आर्सेनिक सोखने की क्षमता अमरूद की पत्ती के बायोमास और आम की छाल से विकसित अवशोषक में पायी गई है।

वास्को-द-गामा (गोवा)।(इंडिया साइंस वायर): भारतीय वैज्ञानिकों ने कृषि अपशिष्टों के उपयोग से ऐसे जैव अवशोषक बनाए हैं, जो प्रदूषित जल से आर्सेनिक को सोखकर अलग कर सकते हैं। वाराणसी स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बीएचयू) और लखनऊ स्थित अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा एक ताजा अध्ययन के दौरान विकसित इन अवशोषकों को तैयार करने में अमरूद की पत्तियों, आम की छाल और गन्ने की भूसी का उपयोग किया गया है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि गन्ने की भूसी से बने अवशोषक में आर्सेनिक सोखने की सबसे अधिक क्षमता होती है। इसके बाद, आर्सेनिक सोखने की क्षमता अमरूद की पत्ती के बायोमास और आम की छाल से विकसित अवशोषक में पायी गई है। 

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प्रदूषित जल से आर्सेनिक को सोखकर अलग करने की क्षमता आम की छाल में सर्वाधिक 97 प्रतिशत पायी गई है। गन्ने के अपशिष्ट से 95 प्रतिशत और अमरूद के पत्तों से बने अवशोषक प्रदूषित जल से 94 प्रतिशत तक आर्सेनिक को सोख सकते हैं। 

शोध में अमरूद की पत्तियों, आम की छाल और गन्ने की भूसी का शुद्धिकरण आसुत जल (डिस्टिल्ड वाटर) से किया गया है। इसके बाद, तीनों नमूनों को 24 घंटे के लिए 60 डिग्री सेल्सियस तापमान पर ओवन में सुखाया गया और फिर पीसकर छान लिया गया। इस तरह बने अवशोषकों की सक्रियता और प्रभाव बढ़ाने के लिए उन्हें अम्लों से उपचारित किया गया है। शोधकर्ताओं ने 2 से 8 वांछित पीएच मान के बीच 10 से 140 मिलीग्राम प्रति लीटर की विभिन्न आर्सेनिक सांद्रताओं के लिए तैयार अवशोषकों की निष्कासन क्षमता का मूल्यांकन 100 मिनट तक किया है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बीएचयू) से जुड़े शोधकर्ता डॉ. देवेन्द्र मोहन ने बताया कि "प्रदूषित जल में आर्सेनिक से अवशोषकों का संपर्क समय, अवशोषकों की खुराक और पीएच मान ऐसे प्रमुख मापदंड हैं, जो आर्सेनिक सोखने की क्षमता को निर्धारित करते हैं। गन्ने की भूसी, आम की छाल और अमरूद के पत्तों के बायोमास के क्रमशः 7.5, 6.5 और 6.0 पीएच मानों पर आर्सेनिक का अधिकतम निष्कासन देखा गया है।"

इस अध्ययन से जुड़े अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, लखनऊ के शोधकर्ता प्रोफेसर एस.पी. शुक्ला ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “भूजल और अपशिष्ट जल से आर्सेनिक के शोधन के लिए कई रासायनिक विधियां उपलब्ध हैं। ये विधियां सरल तो हैं, पर इनके उपयोग से बड़ी मात्रा में विषाक्त अपशिष्ट उत्पन्न होता है। पारंपरिक उपचार विधियों से जुड़ी एक अन्य समस्या उपचार सीमा की दक्षता भी है। आर्सेनिक अवशोषण की यह विधि सस्ती होने के साथ कुशल और पर्यावरण के अनुकूल है।”

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बीएचयू) के शोधार्थी मार्कण्डेय ने बताया कि “इन अवशोषकों में लिग्निन, सेलूलोज, लिपिड, प्रोटीन, पोलिसाक्राइड, हाइड्रोकार्बन, राख और कई अन्य यौगिक होते हैं, जो जल में मौजूद आर्सेनिक जैसे तत्वों को सोखने में मदद करते हैं। कई विकासशील देशों में आर्सेनिक प्रदूषित जल के शोधन के लिए उच्च क्षमता वाले ऐसे अवशोषकों का उपयोग किया जा रहा है।”

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आर्सेनिक को पेयजल और अपशिष्ट जल में पाए जाने वाले जहरीले पदार्थ के रूप में जाना जाता है, जो मानव प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर करते हुए स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो रहा है। भूजल में आर्सेनिक की मात्रा भौगोलिक एवं भूगर्भीय स्थितियों तथा मानवीय गतिविधियों की भूमिका के साथ बदलती रहती है। भूजल में आर्सेनिक मौजूदगी के लिए जिम्मेदार मानवीय कारणों में कीटनाशक, उर्वरक, जीवाश्म ईंधनों के जलने से निकले धूल कण और औद्योगिक एवं पशु अपशिष्ट निपटान की विधियां मुख्य रूप से शामिल हैं।

शोधकर्ताओं में प्रोफेसर एस.पी. शुक्ला, डॉ. देवेंद्र मोहन और मार्कण्डेय के अलावा एस. देव और एस.बी. द्विवेदी शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है।

(इंडिया साइंस वायर)

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