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History Revisited: नेताजी: कटक से मिथक तक...
- अभिनय आकाश
- जनवरी 22, 2021 11:53
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नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे।
मौत एक शाश्वत सत्य है। लेकिन कुछ मौतें ऐसी होती हैं जिस पर रहस्य का कफ़न लिपटा होता है। नेताजी की मौत का रहस्य, भारतीय राजनीति के सबसे लंबे समय तक चलने वाला विवाद है। दशकों से भारतवासी जानना चाहते हैं कि आखिर सुभाष चंद्र बोस को क्या हुआ? क्या नेताजी एक विमान दुर्घटना में मारे गए थे या रूस में उनका अंत हुआ! या फिर 1985 तक वह , गुमनामी बाबा बनकर उत्तर प्रदेश में रहे। 18 अगस्त, 1945 को ताइवान में एक विमान हादसे में नेताजी की कथित मौत का सच जानने के लिए तीन-तीन आयोग बनाये गए। लेकिन हर जांच में कुछ न कुछ ऐसा आया, जिसने नेताजी की मौत की गुत्थी सुलझाने की बजाय और उलझा दी। इतना लंबा अरसा बीत जाने के बावजूद लोग यह मानने को तैयार नहीं है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस विमान दुर्घटना में ही मारे गए थे। कईयों का ये भी मानना है कि आज़ादी के बाद भी नेताजी काफी दिनों तक जीवित रहे और गुमनामी में अपनी ज़िंदगी बिताते रहे। इसके अलावा भी नेताजी को लेकर ढेरों कहानियां हैं, सैकड़ों अफ़साने हैं। आखिर क्या है सुभाष चंद्र बोस की मौत का सच? क्या उनकी मौत एक हादसा थी? एक साज़िश? या फिर महज सियासत का एक सामान? इस प्रश्न के जवाब के लिए हमें इतिहास की गहराई में उतरने की जरूरत है और तथ्यों से जुड़ी रिपोर्टस् को खंगालने की भी आवश्यकता है। जिसके लिए हमने नेताजी से जुड़ी कुछ किताबें India's Biggest Cover Up और His Majesty's Oponent के सहारे नेताजी के मौत की रहस्य गाथा को समझने की कोशिश की और फिर सरल भाषा में आपको समझाने का प्रयास कर रहे हैं। एक ऐसी कहानी के जरिये जिसे इतनी विस्तारता से पहले कभी नहीं दिखाया गया है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिनमें 6 बेटियां और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पांचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। नेताजी के प्रारंभिक पढ़ाई कटक के कॉलेजिएट स्कूल में हुई। तत्पश्चात उनकी शिक्षा कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज में हुई। बाद में भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने उसको इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। अंग्रेजी शासनकाल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था, किंतु उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया। 1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और शीघ्र भारत लौट आए। 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया। सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे। वास्तव में महात्मा गांधी उदार दल का नेतृत्व करते थे वही सुभाष चंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय थे। गांधी के लिए अहिंसा परम धर्म है, चाहे इस धर्म के धारण में हमें स्वराज की चाह को छोड़ना ही क्यों ना पड़े। बोस सहमत नहीं थे। उनके अनुसार अहिंसा और सत्याग्रह मंजिल नहीं केवल रास्ते थे, जिनको समय और जरूरतों के अनुसार बदला जा सकता था। क्योंकि एकमात्र लक्ष्य था स्वराज यानी विदेशी अधिकार से पूर्ण आजादी। दरअसल गांधी और बोस के संबंध कभी घनिष्ट रहे ही नहीं। सन 1921 में इन दोनों की पहली मुलाकात मुंबई के मणि भवन में हुई थी। भारत के तत्कालीन राजनीति में सबसे बड़े नेता से करीब 28 साल छोटे सुभाष चंद्र बोस ने भारत को आजादी दिलाने की गांधी की योजनाओं को अस्पष्ट करार दे दिया था। आईसीएस छोड़कर लंदन से लौटे जोशीले नौजवान को गांधी की सलाह थी कि वह चितरंजन दास से मिलकर इस मसले को गहराई से समझने की कोशिश करें। फिर भी गांधी से बोस के मतभेद हमेशा बने रहे। अगले 20 वर्षों तक चाहे वह जेल में रहे या यूरोप में उन्होंने गांधी की नीतियों का विरोध खुलकर किया। चाहे वह भगत सिंह की फांसी का मसला हो, भारत को संभावित राज्य का दर्जा देने की बात हो, आधुनिक औद्योगीकरण की जरूरत का मसला हो, अंतर दलीय प्रजातंत्र की बात हो या फिर कोई और मुद्दा बोस की निडरता जगजाहिर थी। बोस ने कहा था गांधीवादी मुझे नहीं अपनाएंगे और मैं कठपुतली नेता नहीं बनना चाहता हूं। हुआ भी कुछ ऐसा ही उनके विरोधियों ने उनका पीछा तब तक नहीं छोड़ा जब तक उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का पद ही नहीं छोड़ दिया। पार्टी के अंदर रहते हुए फॉरवर्ड ब्लॉक बनाने के उनके फैसले ने शीर्ष नेताओं को ज्यादा खुश नहीं किया। उनसे बंगाल कांग्रेस के नेतृत्व का हक भी छीन लिया गया और पार्टी में अगले 3 सालों तक कोई भी चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई। ऐसा लगता था जैसे कांग्रेस ब्रिटिश सत्ता नहीं बल्कि सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ मोर्चा खोले खड़ी हो। हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक कॉलम की रिपोर्ट का शीर्षक था- ''अनुशासनहीनता के चलते सुभाष बोस को मिली कड़ी सजा''। ऐसी रिपोर्ट को पढ़कर बोस चेहरे पर चोट खाई हुई कड़वी मुस्कुराहट फैल गयी।
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इस बीच दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मन से मिलकर ही आज़ादी हासिल की जा सकती है। सन 1940 के आते-आते सुभाष बोस का राजनैतिक करियर समाप्ति के कगार पे था। india's Biggest Cover Up के अनुसार 43 वर्षीय इस नेता के बारे में एक गांधीवादी ने खुलेआम कहा- गांधी के विरोधी कभी राजनैतिक तौर पर पनप नहीं सकते। जिसके बाद बोस को एक नए मंच की जरूरत थी। उन्होंने ये मंच खोज लिया। यह मंच बना उस समय का नाजीवादी जर्मनी। "मुझे भारत की आज़ादी चाहिए" का मंत्र लिए, अपनी जान पर खेलकर बोस अंग्रेजों को झांसा देकर पहले अफगानिस्तान से मॉस्को और फिर रोम होते हुए बर्लिन पहुंचे। शायद ही कोई औए ऐसा नेता ऐसा साहस दिखा सकता था। फिर नाज़ी जर्मनी की भूमि पर उदय हुआ भारत की आज़ादी के लिए लड़ने वाले इस अभूतपूर्व सितारे का। "सुभाष बाबू" अब सेनानायक "नेताजी" बन गए। जर्मनी में ही उन्होंने आधुनिक भारत को दो सबसे बड़े तोहफे दिए।- भारत का राष्ट्रीय नारा (जय हिन्द) और भारत का राष्ट्र गान (जन गण मन)
हिटलर और उनके बड़े अफसर नेताजी के मुरीद हो चुके थे। मुसोलिनी की तरह हिटलर भी नेताजी की तरफ यूं खिंचे जैसे लोहा चुम्बक की तरफ खिंचता है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान की सहायता से बोस ने आज़ाद हिन्द फौज बनाई। बोस का कहना था जार्ज वॉशिंगटन ने अपनी सेना की सहायता से अमेरिका की आज़ादी हासिल की थी। इटली को आज़ादी दिलाने वाले गरिबाल्डी के पास भी एक सेना थी।
लेकिन उनकी उम्मीद है तब बिखरती हुई दिखने लगी जब आईएनए के सैनिकों को भारतीय सेना के सैनिकों के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। ये वह भारतीय सैनिक थे जो अंग्रेजों की गुलामी कर रहे थे। यह बात तब की है जब बंदी सैनिक खुद को भारत लाए जाने का इंतजार कर रहे थे। वह कैद में जरूर थे पर टूटे नहीं थे। उन्हें भारत लाकर इनको उसी जगह पर सजा दी गई जहां झंडा फहराने की उन्होंने कभी कसम खाई थी- लाल किला। अंग्रेजों का पासा उल्टा पड़ गया, बोस की लड़ाई सही साबित हो चुकी थी। आईएनए सैनिकों की बेइज्जती ने सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई को ऐसा एकजुट किया कि स्वतंत्रता की शुरुआत से लेकर अब तक शायद ही ऐसी एकता कभी देखी गई हो।
- अभिनय आकाश
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- इंडिया साइंस वायर
- फरवरी 24, 2021 15:48
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देशव्यापी टीकाकरण की आवश्यकता के संदर्भ में भारत के नियामक प्राधिकारों ने दो वैक्सीनों को मंजूरी दी है– उनमें से एक (कोविशील्ड) को बिना शर्त और दूसरी (कोवैक्सीन) को क्लिनिकल ट्रायल मोड में मंजूरी मिली है।
दो सीरोलॉजिकल सर्वेक्षणों और मॉडल अनुमानों के अनुसार भारत की एक बड़ी आबादी में इस समय सार्स-सीओवी-2 वायरस के खिलाफ प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो चुकी है। हालांकि, मौजूदा प्रमाणों से पता चलता है कि एंटीबॉडिज की उपस्थिति के कारण बनने वाली यह रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक समय तक प्रभावी नहीं रहेगी। इसकी तुलना में टी-सेल द्वारा बनी रोग प्रतिरोधक क्षमता कहीं लम्बे समय तक प्रभावी रहती है। इसीलिए वैज्ञानिकों का यह स्पष्ट मत है कि कोरोना वायरस के विरुद्ध दीर्घकालिक एवं विश्वसनीय सुरक्षा सिर्फ टीकाकरण से ही मिल सकती है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा जारी वक्तव्य में यह बात कही गई है।
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चेन्नई स्थित गणितीय संस्थान के निदेशक राजीव एल. करंदीकर, वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के महानिदेशक डॉ शेखर सी. मांडे और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), हैदराबाद के प्रोफेसर एम. विद्यासागर जैसे विशेषज्ञों की टिप्पणियों पर आधारित इस वक्तव्य में भारत में तेज गति से हो रहे टीकाकरण की तुलना शेष विश्व से की गई है। इसमें कहा गया है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा स्थापित कोविड-19 नेशनल सुपर मॉडल कमेटी के अनुमान के अनुसार मार्च, 2021 के अंत तक कोविड-19 के सक्रिय मामलों की संख्या गिरकर कुछ हजार में सिमट जाएगी।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने कहा है कि सार्स-सीओवी-2 वायरस के कारण फैल रही कोविड-19 महामारी में वृद्धि के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों से संकेत मिलता है कि भारत में इसका संक्रमण सितंबर, 2020 में किसी समय अपने चरम पर था और उसके बाद से यह लगातार घट रहा है। 11 सितंबर, 2020 को जहां अधिकतम 97,655 प्रतिदिन नये मामले मिले थे, वहीं फरवरी, 2021 के पहले सप्ताह में यह संख्या घटकर 11,924 पर आ गई। इसमें से आधे मामले केरल में हैं। इस बात को सुनिश्चित करना जरूरी है कि संक्रमण की दर को दोबारा बढ़ने न दिया जाए। जैसा कि इटली, ब्रिटेन और अमरीका जैसे कई देशों में हुआ है।
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विशेषज्ञों का कहना है कि टीकाकरण से प्राकृतिक संक्रमण के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता मिलती है, जो इस महामारी के नियंत्रण के लिए एक अचूक अस्त्र है। हालांकि कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि पिछले संक्रमणों के कारण बनी एंटीबॉडिज की मौजूदगी, टीकाकरण के मुकाबले वायरस के रूपांतरण से दोबारा होने वाले संक्रमण के खिलाफ कम सुरक्षा देती हैं। इसीलिए, कहा जा रहा है कि मान्य वैक्सीन के जरिये राष्ट्रव्यापी टीकाकरण कार्यक्रम को शीघ्रता से पूरा किया जाना अनिवार्य है।
टीकों से संबंधित एक रोचक पहलू मृत वायरस से तैयार किये गए टीके से बनी एंटीबॉडिज और स्पाइक प्रोटीन से तैयार टीके से बनी एंटीबॉडिज को लेकर है। यह उल्लेखनीय है कि मृत वायरस से तैयार टीके से बनी एंटीबॉडिज, स्पाइक प्रोटीन से तैयार टीके से बनी एंटीबॉडिज के मुकाबले रूपांतरित वायरस के विरुद्ध कहीं अधिक प्रभावी हैं। देशव्यापी टीकाकरण की आवश्यकता के संदर्भ में भारत के नियामक प्राधिकारों ने दो वैक्सीनों को मंजूरी दी है – उनमें से एक (कोविशील्ड) को बिना शर्त और दूसरी (कोवैक्सीन) को क्लिनिकल ट्रायल मोड में मंजूरी मिली है। विशेषज्ञों की समिति इस बात से सन्तुष्ट है कि दोनों वैक्सीन सुरक्षित हैं और कोरोना वायरस के विरुद्ध प्रभावी प्रतिरक्षा उत्पन्न करती हैं।
इन दोनों वैक्सीन को लेकर शुरू किए गए टीकाकरण अभियान को कुछ लोगों ने जल्दबाजी में उठाया गया कदम बताकर इसके महत्व को कम करने का प्रयास किया। हालांकि, डब्ल्यूएचओ ने कहा है कि किसी वैक्सीन को आपात स्थिति में मंजूरी देने के पहले भी यह देखना जरूरी है कि वह 50 प्रतिशत तक प्रभावी अवश्य हो। कभी-कभी 40 प्रतिशत की प्रभावशीलता वाली वैक्सीन भी कुछ हद तक संरक्षण दे देती हैं। लेकिन, कभी-कभी 80 प्रतिशत की प्रभावशीलता वाली वैक्सीन लगने के बाद भी व्यक्ति संक्रमण की चपेट में आ सकता है। ऐसे में, यह अपेक्षा की जाती है कि नियामक प्राधिकार इस दिशा-निर्देश से बंधे न रहकर विवेकपूर्ण निर्णय लेंगे। इसके साथ ही, यह भी आवश्यक है कि बेशक लक्षित आबादी में हर किसी का (18 वर्ष से अधिक उम्र) टीकाकरण हो जाए, तब भी लोगों को सुरक्षा मानदंडों का पालन करते रहना होगा।
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वायरस के प्रसार के साथ-साथ इसके रूपांतरण को रोकने पर भी जोर दिया जा रहा है। इसके लिए सिर्फ किसी एक देश के प्रत्येक व्यक्ति का टीकाकरण ही पर्याप्त नहीं है। महामारी का अंत करने के लिए दुनिया भर के लोगों का शीघ्रता से टीकाकरण किया जाए। भारत सिर्फ अपनी टीकाकरण जरूरतों को पूरा करने में ही सक्षम नहीं है, बल्कि वह इस मामले में पूरे विश्व की मदद कर सकता है। वैक्सीन की वैश्विक मांग को पूरा करने में अपना योगदान देकर और वैश्विक समुदाय में इस महामारी से लड़ने की उम्मीद बँधाकर भारत ने महामारी-जन्य संकटकाल में विश्व मंच पर अपनी अग्रणी उपस्थिति दर्ज करायी है।
(इंडिया साइंस वायर)
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- इंडिया साइंस वायर
- फरवरी 23, 2021 19:07
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इन कंपनियों का चयन तीन श्रेणियों-स्वदेशी प्रौद्योगिकी, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उपक्रम और स्टार्टअप्स के अन्तर्गत किया गया है। तीनों श्रेणियों के लिए हर वर्ष प्रौद्योगिकी विकास बोर्ड (टीबीडी) के पास प्रविष्टियां भेजी जाती हैं।
उद्यमिता में नवाचारों के प्रवर्तन एवं प्रोत्साहन के लिए देश की 12 कंपनियों को अभिनव स्वदेशी प्रौद्योगिकियों के सफल व्यावसायीकरण के लिए राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी पुरस्कार 2020 के लिए चुना गया है। ये पुरस्कार विभिन्न उद्योगों को उनके और उनके प्रौद्योगिकी प्रदाताओं को एक टीम के रूप में काम करते हुए बाजार में नवीनता लाने और 'आत्मनिर्भर भारत' मिशन में योगदान देने के लिए दिए जाते हैं। इस बार विजेताओं का चयन 128 आवेदनों को परखने के उपरांत किया गया। इसकी परख प्रख्यात प्रौद्योगिकीविदों और एक कड़े द्वि-स्तरीय मूल्यांकन प्रक्रिया द्वारा गहन पड़ताल के माध्यम से की गई।
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इन कंपनियों का चयन तीन श्रेणियों-स्वदेशी प्रौद्योगिकी, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उपक्रम और स्टार्टअप्स के अन्तर्गत किया गया है। तीनों श्रेणियों के लिए हर वर्ष प्रौद्योगिकी विकास बोर्ड (टीबीडी) के पास प्रविष्टियां भेजी जाती हैं। टीबीडी भारत सरकार का सांविधिक निकाय है, जो प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत कार्य कर रहा है। यह स्वदेशी प्रौद्योगिकियों के व्यावसायीकरण और घरेलू अनुप्रयोगों के लिए आयातित प्रौद्योगिकियों के अनुकूलन के लिए काम करने वाली कंपनियों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है। इसकी स्थापना 1996 में अभिनव स्वदेशी प्रौद्योगिकियों के व्यावसायीकरण के लिए भारतीय कंपनियों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से की गई थी। स्थापना के बाद से अब तक बोर्ड ने प्रौद्योगिकियों के व्यावसायीकरण के लिए 300 से अधिक कंपनियों को वित्तीय सहायता प्रदान की है।
पहली श्रेणी में स्वदेशी प्रौद्योगिकी का सफलतापूर्वक विकास और उसके सफल व्यवसायीकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता है। इस पुरस्कार के तहत यदि कंपनी और तकनीक के प्रदाता यानी प्रौद्योगिकी डेवलपर अलग-अलग संगठन से हों तो प्रत्येक को 25 लाख रुपये और एक ट्रॉफी पुरस्कार के रूप में दी जाती है। इस वर्ष सूरत की मैसर्स एलएंडटी स्पेशल स्टील एंड हेवी फोर्जिंग्स प्राइवेट लिमिटेड कंपनी और मुंबई स्थित न्यूक्लियर पावर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड नामक प्रौद्योगिकी प्रदाता को यह पुरस्कार दिया जा रहा है। साथ ही मुंबई की विनती ऑर्गेनिक्स लिमिटेड और प्रौद्योगिकी प्रदाता सीएसआईआर-इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (सीएसआईआर-आईआईसीटी), हैदराबाद को भी इस पुरस्कार के लिए चुना गया है।
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पुरस्कार की दूसरी श्रेणी में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उपक्रम (एमएसएमई) को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता है। इस श्रेणी में चयनित प्रत्येक प्रविष्टि को 15 लाख रुपये का पुरस्कार दिया जाता है। इस वर्ष नोएडा स्थित मैसर्स एकेएस इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड, चेन्नई स्थित मैसर्स एसवीपी लेजर टेक्नोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड, पुणे स्थित मैसर्स कान बायोसिस प्राइवेट लिमिटेड और तंजावुर स्थित मैसर्स एल्गलआर न्यूट्राफार्म्स प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों को इस पुरस्कार के लिए चुना गया है।
तीसरी श्रेणी में प्रौद्योगिकी स्टार्टअप्स के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जाते हैं। यह पुरस्कार व्यावसायीकरण की संभावनाओं के साथ नई तकनीक को लेकर आश्वासन के लिए एक प्रौद्योगिकी स्टार्ट-अप को दिया जाता है। ट्रॉफी के अतिरिक्त पुरस्कार में 15 लाख रुपए का नकद पुरस्कार शामिल है। इस वर्ष इन पुरस्कारों के लिए मैसर्स आरएआर इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड दिल्ली, मैसर्स फाइब्रोहील वूंड केयर प्राइवेट लिमिटेड बेंगलुरु, मैसर्स एलथियन टेक इनोवेशन्स प्राइवेट लिमिटेड हैदराबाद, मैसर्स केबीकोल्स साइंसेज प्राइवेट लिमिटेड पुणे, मैसर्स केबीकोल्स साइंसेज प्राइवेट लिमिटेड पुणे, मैसर्स शिरा मेडटेक प्राइवेट लिमिटेड, अहमदाबाद और मैसर्स न्यूंड्रा इनोवेशन्स प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर नामक छह स्टार्टअप चुने गए हैं।
(इंडिया साइंस वायर)
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- इंडिया साइंस वायर
- फरवरी 20, 2021 15:36
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एक नये अध्ययन में भीमबेटका में दुनिया का सबसे दुर्लभ और सबसे पुराना जीवाश्म खोजा गया है। शोधकर्ता इसे भारत में डिकिंसोनिया का पहला जीवाश्म बता रहे हैं, जो पृथ्वी का सबसे पुराना, लगभग 57 करोड़ साल पुराना जानवर है।
भोपाल से करीब 45 किलोमीटर दूर रायसेन जिले में स्थित विश्व प्रसिद्ध भीमबेटका की गुफाओं को आदि-मानव द्वारा पत्थरों पर की गई चित्रकारी के लिए जाना जाता है। यूनेस्को संरक्षित क्षेत्र भीमबेटका का संबंध पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल से जोड़कर देखा जाता है। एक नये अध्ययन में, भीमबेटका में दुनिया का सबसे दुर्लभ और सबसे पुराना जीवाश्म खोजा गया है। शोधकर्ता इसे भारत में डिकिंसोनिया का पहला जीवाश्म बता रहे हैं, जो पृथ्वी का सबसे पुराना, लगभग 57 करोड़ साल पुराना जानवर है।
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अमेरिका की ऑरिगोन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक ग्रेगरी जे. रिटालैक के नेतृत्व में यूनिवर्सिटी ऑफ विटवाटर्सैंड, जोहान्सबर्ग और भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के शोधकर्ताओं के संयुक्त अध्ययन में डिकिंसोनिया के जीवाश्म की खोज की गई है। डिकिंसोनिया जीवाश्म से पता चलता है कि इस जानवर की लंबाई चार फीट से अधिक रही होगी, जबकि मध्य प्रदेश स्थित भीमबेटका की गुफा में जो जीवाश्म मिला है, वो 17 इंच लंबा है। डिकिंसोनिया को लगभग 54.1 करोड़ वर्ष पहले, कैम्ब्रियन काल में प्रारंभिक, सामान्य जीवों और जीवन की शुरुआत के बीच प्रमुख कड़ी में से एक के रूप में जाना जाता है।
भारत में डिकिंसोनिया जीवाश्म भीमबेटका की ‘ऑडिटोरियम गुफा’ में पाया गया है। यह जीवाश्म भांडेर समूह के मैहर बलुआ पत्थर में संरक्षित है, जो विंध्य उप-समूह चट्टानों का हिस्सा है। शोधकर्ताओं को भीमबेटका की यात्रा के दौरान जमीन से 11 फीट की उँचाई पर चट्टान पर एक पत्तीनुमा आकृति देखने को मिली है, जो शैलचित्र की तरह दिखती है। इतने वर्षों तक इस जीवाश्म पर पुरातत्व-विज्ञानियों की नज़र नहीं पड़ने पर शोधकर्ताओं ने हैरानी व्यक्त की है। भीमबेटका की गुफा को 64 साल पहले वीएस वाकणकर ने ढूँढा था। तब से, हजारों शोधकर्ताओं ने इस पुरातत्व स्थल का दौरा किया है। यहाँ लगातार हो रहे शोधों के बावजूद इस दुर्लभ जीवाश्म से अब तक परदा नहीं उठ सका था।
इस शोध में, शोधकर्ताओं ने पृथ्वी के सबसे पुराने जीवों के इतिहास का अध्ययन किया है, जिनका संबंध इडिऐकरन काल से है। दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया की इडिऐकरा पहाड़ियों के नाम पर इस कालखंड नाम पड़ा है। पृथ्वी के इतिहास में यह कालखंड 64.5 करोड़ से 54.1 करोड़ वर्ष पूर्व माना जाता है, जब डिकिंसोनिया और अन्य कई बहु-कोशकीय जीव अस्तित्व में थे। इससे पहले डिकिंसोनिया जीवाश्म रूस और ऑस्ट्रेलिया में पाए गए हैं।
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अध्ययन में, जीवाश्म चट्टानों की आयु का निर्धारण आइसोटोप्स के उपयोग से किया गया है। मध्य प्रदेश में सबसे कम उम्र के मैहर बलुआ पत्थर की जिरकॉन डेटिंग से इसकी उम्र 54.8 करोड़ होने का अनुमान लगाया गया है। जबकि, सोन एवं चंबल घाटियों में पाए जाने वाले चूना पत्थर की आइसोटोप डेटिंग से इनकी उम्र का अनुमान 97.8 करोड़ वर्ष से 107.3 करोड़ वर्ष के बीच माना जा रहा है, जिसका संबंध पुरातन टोनियाई कालखंड से है। इडिऐकरन काल, कैम्ब्रियन काल का अग्रदूत था (लगभग 54.1 करोड़ से 485.4 करोड़ वर्ष), जब पृथ्वी पर विभिन्न जीवन रूपों का विस्फोट देखा गया।
मैहर बलुआ पत्थर में डिकिंसोनिया जीवाश्मों की आयु संबंधी प्रोफाइल, जिरकॉन डेटिंग का उपयोग करके निर्धारित की गई है, जो उन्हें रूस के श्वेत सागर क्षेत्र के लगभग 55.5 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानों से तुलना योग्य बनाती है। इस तरह की तुलना से संबंधित अधिक साक्ष्य करीब 55 करोड़ वर्ष पुराने दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के डिकिंसोनिया टेन्यूइस और डिकिंसोनिया कोस्टाटा जीवाश्मों से मिलते हैं। भीमबेटका और इसके आसपास की चट्टानों के अध्ययन से पता चलता है कि उनकी कई विशेषताएं ऑस्ट्रेलियाई चट्टानों से मिलती-जुलती हैं। इन विशेषताओं में, ‘बूढ़े हाथी की त्वचा’ जैसी बनावट और ट्रेस जीवाश्म शामिल हैं। भारत में मिले डिकिंसोनिया जीवाश्म दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के रॉनस्ले क्वार्टजाइट से मिलते-जुलते हैं।
यह अध्ययन शोध पत्रिका गोंडवाना रिसर्च में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्ताओं में ग्रेगरी जे. रिटालैक के अलावा, यूनिवर्सिटी ऑफ विटवाटर्सैंड के शरद मास्टर और भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के शोधकर्ता रंजीत जी. खांगर एवं मेराजुद्दीन खान शामिल हैं।
(इंडिया साइंस वायर)

