भौगोलिक परिवर्तन से परिवर्तित होता है सांप का विष

Snake venom

विभिन्न क्षेत्रों में पायी जाने वाली सॉ-स्केल्ड वाइपर की भौगोलिक रूप से भिन्न आबादी के विष का संयोजन, क्षेत्र विशेष के अनुसार अलग-अलग होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह जानकारी प्रभावी विषरोधी दवाएं विकसित करने में उपयोगी हो सकती है।

यह तो आपने सुना ही होगा कि ‘ज़हर को ज़हर ही काटता है’। विषरोधी दवाओं के मामले में यह बात बिलकुल फिट बैठती है। सॉ-स्केल्ड वाइपर (Echis carinatus) को दुनिया के सबसे अधिक विषैले सांपों में गिना जाता है। पर, यह सांप अपनी औषधीय उपयोगिता के लिए भी जाना जाता है। जैसा देश वैसा वेश! सांप के विष का मामला भी कुछ ऐसा ही होता है। एक ताजा अध्ययन में, हैदराबाद स्थित सीएसआईआर-कोशकीय एवं आणविक जीवविज्ञान केंद्र (सीसीएमबी) के वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि विभिन्न क्षेत्रों में पायी जाने वाली सॉ-स्केल्ड वाइपर की भौगोलिक रूप से भिन्न आबादी के विष का संयोजन, क्षेत्र विशेष के अनुसार अलग-अलग होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह जानकारी प्रभावी विषरोधी दवाएं विकसित करने में उपयोगी हो सकती है।

इस अध्ययन में विभिन्न क्षेत्रों के सॉ-स्केल्ड वाइपर के विष नमूनों में काफी विविधता देखी गई है। शोधकर्ताओं में शामिल सीसीएमबी के वैज्ञानिक डॉ कार्तिकेयन वासुदेवन ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “इस अध्ययन में, तमिलनाडु, गोआ और राजस्थान समेत तीन राज्यों से एकत्रित किए गए सॉ-स्केल्ड वाइपर के विष नमूनों में भिन्नता देखी गई है। विष नमूनों में इस अंतर के लिए मुख्य रूप से विष-परिवारों की संरचनात्मक भिन्नता जिम्मेदार है। राजस्थान के सॉ-स्केल्ड वाइपर सांपों के विष में निम्न आणविक भार के विषैले तत्वों की प्रचुरता पायी गई है। इनमें फॉस्फोलिपेस-ए2 (पीएलए2) और सिस्टीन की प्रचुरता से युक्त स्रावी प्रोटीन (क्रिस्प) जैसे विषैले तत्व शामिल हैं, जो सर्पदंश के स्थान पर सूजन और परिगलन के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं।”

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इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विभिन्न स्थानों से एकत्रित सॉ-स्केल्ड वाइपर के विष की संरचना को स्पष्ट किया है, ताकि प्रोटीओम स्तर पर इसकी भिन्नता को समझा जा सके, और पता लगाया जा सके कि इससे सर्पदंश के लक्षण कैसे बदल सकते हैं। सांप का ज़हर कई विषैले तत्वों से मिलकर बना होता है, जो उसके शिकार को निष्क्रिय करने में मददगार होते हैं। शोधकर्ताओं ने इस संयोजन में शामिल विभिन्न प्रोटीन्स की पहचान के लिए विष-प्रोटीन को विशिष्ट तकनीकों की मदद से एक सरल मिश्रण में विभाजित किया है। अध्ययन में, इन प्रोटीन्स को विभिन्न खंडों में विभाजित करने के साथ-साथ प्रत्येक विषैले तत्व की प्रचुरता का आकलन भी किया गया है।

डिस्इंटेग्रिन परिवार के विषैले तत्व, जो कोशिकाओं के बीच संपर्क को विखंडित कर सकते हैं, सिर्फ तमिलनाडु के सांपों के ज़हर में पाए गए हैं। सभी विष नमूनों में, मेटालोप्रोटीनेज और सेरीन प्रोटीज के कई आइसोफोर्म पाए गए हैं, जिसके बारे में माना जा रहा है कि यह रक्त के थक्के बनाने के लिए जिम्मेदार तंत्र में शामिल लक्ष्यों की एक किस्म हो सकती है। डिस्इंटेग्रिन, वाइपर सांपों के विष में पाए जाने वाले प्रोटीन का एक परिवार है, जो प्लेटलेट एकत्रीकरण और इंटेग्रिन प्रोटीन पर निर्भर कोशिकाओं को बंधने से रोकने में अवरोधक के रूप में कार्य करता है। वहीं, मेटालोप्रोटीनेज या मेटालोप्रोटीज, प्रोटीज एंजाइम हैं। इसी तरह, सेरीन एक अमीनो एसिड है, जो प्रोटीन के जैव-संश्लेषण में भूमिका निभाता है।

इस तंत्र को समझाने के लिए शोधकर्ता तमिलनाडु की इरुला को ऑपरेटिव सोसाइटी का उदाहरण देते हैं, जहां विषरोधी दवाएं बनाने के लिए सांपों का विष प्राप्त किया जाता है। वे कहते हैं कि तमिलनाडु में प्राप्त विष पर आधारित विषरोधी दवाओं का उपयोग अन्य स्थानों के पीड़ितों पर किए जाने से इसके असर में अंतर देखने को मिल सकता है।

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भारत में हर साल सर्पदंश की 12-14 लाख घटनाएं होती हैं, जिनमें करीब 58 हजार लोगों की मौत होने का अनुमान लगाया गया है। दुनियाभर में पायी जाने वाली सांपों की सबसे विषैली प्रजातियों में सॉ-स्केल्ड वाइपर को उसके खतरनाक ज़हर के लिए जाना जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों में विस्तृत रूप से पाया जाने वाला सॉ-स्केल्ड वाइपर सांप देखने में भले ही छोटा हो, पर यह बहुत जहरीला होता है। इसके काटे जाने पर पीड़ित व्यक्ति को जल्द ही उपचार न मिले तो मौत तय मानी जाती है। इस सांप की गुस्सैल, चिड़चिड़ी और आक्रामक प्रवृत्ति इसके घातक विष के असर को बढ़ा देती है।

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शोधकर्ताओं का कहना है कि विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में पाए जाने वाले सांपों के विष के संयोजन को केंद्र में रखा जाए तो सर्पदंश के खिलाफ क्षेत्रवार दवाएं विकसित की जा सकती हैं। डॉ वासुदेवन ने बताया कि “यह शोध विभिन्न स्थानों पर व्यावसायिक रूप से उपलब्ध विषरोधी दवाओं के प्रभाव का मूल्यांकन करने की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है।”

यह अध्ययन शोध पत्रिका टॉक्सिकोनः एक्स में प्रकाशित किया गया है। अध्ययनकर्ताओं में डॉ वासुदेवन के अलावा सीसीएमबी के एक अन्य शोधकर्ता सिद्धार्थ भाटिया शामिल हैं।

(इंडिया साइंस वायर)

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