World Aids Day: एड्स पीड़ितों के प्रति बदले समाज की सोच

World Aids Day
ANI

यह वायरस मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर हमला करके मानव रक्त में पाई जाने वाली श्वेत रक्त कणिकाओं को नष्ट करता है और धीरे-धीरे ऐसे व्यक्ति के शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है। यही स्थिति ‘एड्स’ कहलाती है।

न केवल भारत में बल्कि समस्त विश्व में लोगों के लिए ‘एड्स’ आज भी एक भयावह शब्द है। एड्स (एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिन्ड्रोम) का अर्थ है शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता कम होने से अप्राकृतिक रोगों के अनेक लक्षण प्रकट होना। एच.आई.वी. संक्रमण के बाद एक ऐसी स्थिति बन जाती है कि इससे संक्रमित व्यक्ति की मामूली से मामूली बीमारियों का इलाज भी दूभर हो जाता है और रोगी मृत्यु की ओर खिंचा चला जाता है। आज भी यह खतरनाक बीमारी दुनियाभर के करोड़ों लोगों के शरीर में पल रही है। एड्स महामारी के कारण अफ्रीका के तो कई गांव के गांव नष्ट हो चुके हैं। ‘रॉयटर्स’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1980 के दशक में एड्स महामारी शुरू होने के बाद से 77 मिलियन से भी अधिक लोगों में इसका वायरस फैल चुका है। वर्ष 2017 में विश्वभर में करीब 40 मिलियन लोग एचआईवी संक्रमित थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर 2023 के अंत तक 3.95 करोड़ लोग एचआईवी के साथ जी रहे थे। एड्स को लेकर जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 1 दिसंबर को एक विशेष थीम के साथ ‘विश्व एड्स दिवस’ मनाया जाता है, जो इस वर्ष ‘टेक द राइट पाथ’ (सही रास्ता अपनाएं) विषय के साथ मनाया जा रहा है।

वैसे एड्स का इतिहास काफी दिलचस्प है। दरअसल 1981 में न्यूयार्क तथा कैलिफोर्निया में न्यूमोसिस्टिस न्यूमोनिया, कपोसी सार्कोमा तथा चमड़ी रोग जैसी असाधारण बीमारी का इलाज करा रहे पांच समलैंगिक युवकों में एड्स के लक्षण पहली बार मिले थे। चूंकि जिन मरीजों में एड्स के लक्षण देखे गए थे, वे सभी समलैंगिक थे, इसलिए उस समय इस बीमारी को समलैंगिकों की ही कोई गंभीर बीमारी मानकर इसे ‘गे रिलेटेड इम्यून डेफिशिएंसी’ (ग्रिड) नाम दिया गया था। इन मरीजों की शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता असाधारण रूप से कम होती जा रही थी लेकिन कुछ समय पश्चात् जब दक्षिण अफ्रीका की कुछ महिलाओं और बच्चों में भी इस बीमारी के लक्षण देखे जाने लगे, तब जाकर यह धारणा समाप्त हुई कि यह बीमारी समलैंगिकों की ही बीमारी है। तब गहन अध्ययन के बाद पता चला कि यह बीमारी एक सूक्ष्म विषाणु के जरिये होती है, जो रक्त एवं यौन संबंधों के जरिये एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचती है। तत्पश्चात् इस बीमारी को एड्स नाम दिया गया, जो एचआईवी नामक वायरस द्वारा फैलती है।

यह वायरस मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर हमला करके मानव रक्त में पाई जाने वाली श्वेत रक्त कणिकाओं को नष्ट करता है और धीरे-धीरे ऐसे व्यक्ति के शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है। यही स्थिति ‘एड्स’ कहलाती है। अगर एड्स के कारणों पर नजर डालें तो मानव शरीर में एचआईवी का वायरस फैलने का मुख्य कारण हालांकि असुरक्षित सेक्स तथा अधिक पार्टनरों के साथ शारीरिक संबंध बनाना ही है लेकिन कई बार कुछ अन्य कारण भी एचआईवी संक्रमण के लिए जिम्मेदार होते हैं। शारीरिक संबंधों द्वारा 70-80 फीसदी, संक्रमित इंजेक्शन या सुईयों द्वारा 5-10 फीसदी, संक्रमित रक्त उत्पादों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया के जरिये 3-5 फीसदी तथा गर्भवती मां के जरिये बच्चे को 5-10 फीसदी तक एचआईवी संक्रमण की संभावना रहती है।

इसे भी पढ़ें: Thanksgiving Day 2024: कृतज्ञता-संस्कृति से संवरती है जिन्दगी

डब्ल्यूएचओ तथा भारत सरकार के सतत प्रयासों के चलते हालांकि एचआईवी संक्रमण तथा एड्स के संबंध में जागरूकता बढ़ाने के अभियानों का कुछ असर दिखा है और संक्रमण दर घटी है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2010 से अभी तक एचआईवी संक्रमण की दर में 40 प्रतिशत से ज्यादा की कमी आई है। फिर भी भारत में एड्स के प्रसार के कारणों में आज भी सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता एवं जिम्मेदारी का अभाव, अशिक्षा, निर्धनता, अज्ञानता और बेरोजगारी प्रमुख कारण हैं। अधिकांशतः लोग एड्स के लक्षण उभरने पर भी बदनामी के डर से न केवल एच.आई.वी. परीक्षण कराने से कतराते हैं बल्कि एचआईवी संक्रमित किसी व्यक्ति की पहचान होने पर उससे होने वाला व्यवहार तो बहुत चिंतनीय एवं निंदनीय होता है। इस दिशा में लोगों में जागरूकता पैदा करने के संबंध में सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा भले ही कितने भी दावे किए जाएं पर एड्स पीडि़तों के साथ भेदभाव के सामने आने वाले मामले विभिन्न राज्य एड्स नियंत्रण सोसायटियों एवं सरकारी तथा गैर सरकारी प्रयासों की पोल खोलते नजर आते हैं। देशभर में ऐसे बहुत से एचआईवी संक्रमित व्यक्ति और उनके परिवार हैं, जिन्हें एचआईवी संक्रमण का खुलासा होने के बाद समाज और अपने ही लोग हिकारत भरी नजरों से देखते थे।

वास्तविकता यही है कि लोगों में एड्स के संबंध में जागरूकता पैदा करने के लिए उस स्तर पर प्रयास नहीं हो रहे, जिस स्तर पर होने चाहिएं। लोगों को जागरूक करने के लिए हमारी भूमिका अभी भी सिर्फ चंद पोस्टर चिपकाने और टीवी चैनलों या पत्र-पत्रिकाओं में कुछ विज्ञापन प्रसारित-प्रकाशित कराने तक ही सीमित है और शायद यही कारण है कि 21वीं सदी में जी रहे भारत के बहुत से पिछड़े ग्रामीण अंचलों में खासतौर से महिलाओं ने तो एचआईवी संक्रमण जैसे शब्द के बारे में कभी सुना तक नहीं। तमाम प्रचार-प्रसार के बावजूद आज भी बहुत से लोग इसे छूआछूत की बीमारी ही मानते हैं और इसीलिए वे ऐसे रोगी के पास जाने से भी घबराते हैं। तमाम दावों के बावजूद आज भी समाज में एड्स रोगियों को बहुत सी जगहों पर तिरस्कृत नजरों से ही देखा जाता है।

एड्स पर नियंत्रण पाने के लिए जरूरत है प्रत्येक गांव, शहर में इस संबंध में गोष्ठियां, नुक्कड़ नाटक, प्रदर्शनियां इत्यादि के आयोजनों की ताकि लोगों को सरल एवं मनोरंजक तरीकों से ही इसके बारे में पूरी जानकारी मिल सके। एड्स जैसे विषयों पर सार्वजनिक चर्चा करने से बचने की प्रवृत्ति तथा एड्स पीडि़तों के प्रति बेरूखी व संवेदनहीनता की प्रवृत्ति अब हमें त्यागनी ही होगी। इसके अलावा प्रचार एवं प्रसार माध्यमों को भी इस दिशा में अहम भूमिका निभानी होगी। विश्व भर में एड्स की महामारी पर अंकुश लगाने के लिए लोगों को सुरक्षित सैक्स एवं अन्य आवश्यक सावधानियों के लिए भी प्रेरित करना होगा।

- योगेश कुमार गोयल

(लेखक 33 वर्षों से पत्रकारिता में निरन्तर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़