अरविंद केजरीवाल के जन्मदिन पर जानिए, उनके नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बनने तक की पूरी कहानी

Arvind Kejriwal
शुभव यादव । Aug 16 2020 7:35PM

संविधान की 63 वीं वर्षगांठ के दिन गठित हुई पार्टी का मुख्य अभियान राजधानी दिल्ली से शुरू होता है बाकायदा गांधी टोपी जिसे अन्ना टोपी भी कहा गया पहनकर टोपी में मैं हूं आम आदमी लिखवा कर केजरीवाल ने राजनीतिक सफर की शुरुआत कर दी।

हरियाणा के हिसार जिले का साधारण सा पतला दुबला आदमी अपनी मेहनत के बदौलत भारतीय राजस्व सेवा की सरकारी नौकरी प्राप्त करता है, आपको बताते चलें भारतीय राजस्व सेवा के अंतर्गत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों को इकट्ठा किया जाता है, मगर यह साधारण आदमी आईआरएस की नौकरी छोड़कर जन सेवा करने का लक्ष्य साथ लेकर निकल चलता है, इस आम आदमी ने सूचना के अधिकार को लेकर काफी लड़ाई लड़ी। वहीं इस लड़ाई में अन्ना हजारे जैसे समाजसेवियों का साथ इसे मिलता है। समाज सेवा का भाव साथ लेकर जन सेवा करने वाला कैसे राजनीति में सफलतम कदम रखता है, आज हम आपको केजरीवाल के जन्मदिन के खास मौके पर इस किस्से से रुबरु कराएंगे।

हम बात दिल्ली की सत्ता पर काबिज लगातार तीसरी बार काबिज होने वाले अरविंद केजरीवाल की कर रहे हैं वरिष्ठ समाजसेवी अन्ना हजारे जनलोकपाल बिल पास कराने के लिए भारतीय भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बैनर तले मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल, भारत की पहली महिला प्रशासनिक अधिकारी किरण बेदी, प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण, पतंजलि के संस्थापक बाबा रामदेव के साथ जंतर-मंतर पर 4 अप्रैल 2011 से अनशन की शुरुआत करते हैं और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार से जनलोकपाल जैसा मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी बिल लाने की मांग करते हैं।

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इस अनशन की रणनीतियों में सबसे अहम और पर्दे के पीछे का खेल रचने वाले का नाम अरविंद केजरीवाल होता है लेकिन अपने सामाजिक गुरु अन्ना हजारे के लाख मना करने के बावजूद अन्ना का अहम योद्धा राजनीति को कीचड़ कहने वाले अपने गुरु की बात नहीं मानता‌।

लोकपाल आंदोलन से जुड़े बहुत से लोगों और सहयोगियों के साथ मिलकर अरविंद केजरीवाल एक राजनीतिक पार्टी का गठन करते हैं जिसकी आधिकारिक घोषणा 26 नवंबर 2012 को कर दी जाती है। इस पार्टी का नाम रखा जाता है 'आम आदमी पार्टी' अन्ना के लोकपाल आंदोलन का निचोड़ ही 'आम आदमी पार्टी' के रूप में निकलता है। 

संविधान की 63 वीं वर्षगांठ के दिन गठित हुई पार्टी का मुख्य अभियान राजधानी दिल्ली से शुरू होता है बाकायदा गांधी टोपी जिसे अन्ना टोपी भी कहा गया पहनकर टोपी में "मैं हूं आम आदमी" लिखवा कर केजरीवाल ने राजनीतिक सफर की शुरुआत कर दी। 

साल था 2013 का और समय आया दिल्ली विधानसभा चुनावों का इस समय दिल्ली की सत्ता पर स्वतंत्रा सेनानी और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल उमा शंकर दीक्षित की बहू शीला दीक्षित काबिज थीं, जो लगातार तीसरी बार किसी राज्य में बतौर मुख्यमंत्री पद संभाल रहीं थी। 

अरविंद केजरीवाल ने जिसे सत्ता से बेदखल करने की ठानी थी वह लगातार 15 साल से तटस्थ रूप से दिल्ली की गद्दी पर जमी हुई थीं। मगर अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने जनता को यह विश्वास दिला दिया था कि जनता के अगले राजनीतिक संगीत कांग्रेस या अन्य दल नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी है।

नौकरशाह से सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता से राजनीतिज्ञ बने अरविंद ने 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में नई दिल्ली सीट से सीधे शीला दीक्षित को टक्कर देते हुए रिकॉर्ड 25,864 मतों से पटखनी दे दी। दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें अरविंद केजरीवाल की 'आम आदमी पार्टी' के खाते में चली गईं, अरविंद केजरीवाल को नई दिल्ली सीट से 44,269 वोट मिले वहीं दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री को मात्र 18,405 वोटों से संतुष्ट होना पड़ा। 

यकायक पार्टी गठित कर इतनी बड़ी राजनीतिक प्रगति हासिल करने वाली 'आम आदमी पार्टी' ने कांग्रेस के साथ सत्ता की बैलगाड़ी चलाने की कोशिश और आजमाइश की मगर जिस बैल को ढींठ कहकर केजरीवाल ने सत्ता में अपनी 28 सीटों के साथ हाज़िरी लगाई थी उसके साथ की बैलगाड़ी कैसे चल पाती।

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केजरीवाल ने 49 दिनों के छोटे कार्यकाल के बाद सरकार बर्खास्त कर दी और सभी विधायकों के साथ इस्तीफा दे दिया। 14 फरवरी 2014 को अरविंद केजरीवाल और उनके समस्त विधायकों के इस्तीफे को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार कर लिया और दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाने का अनुमोदन कर दिया।

17 फरवरी 2014 से दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया और केजरीवाल जनता के बीच यह बताने निकल गए कि स्पष्ट बहुमत न होने से मैं दबाव में था, मुझे दोबारा चुना जाए। 

लगभग 1 साल के राष्ट्रपति शासन के बाद साल था 2015 का और महीना जनवरी का इस कड़ाके की ठंड ने दिल्ली को चुनावी गर्मी से लवरेज कर रखा था मगर दिल्ली की फिजा में केजरीवाल की सियासी खुशबू बस चुकी थी। चुनावी परिणाम के अंदाजे को महसूस करते हुए लड़ा गया यह दिल्ली का पहला चुनाव था 7 फरवरी 2015 को मतदान के बाद 10 फरवरी को आए नतीजों से यह साफ हो गया कि कोई नया सियासी खिलाड़ी पैदा हो चुका है। 

दिल्ली में 70 में से 67 सीटें आम आदमी पार्टी ने जीत ली, 3 सीटों पर बीजेपी की सांस अटक गई तो वहीं बात करें कांग्रेस की जो इन चुनावों पूर्व 15 साल से सत्ता में थी उसका दम घुट गया और मानो आर्यभट्ट ने शून्य की खोज कांग्रेस के लिए ही की थी। कांग्रेस के खाते में एक भी सीटें नहीं आयीं। 

चुनावों में जिस तरह बीजेपी ने 31 सीटें हासिल की थी वहीं पर आकर सिमट गई साल 2015 के पहले 2014 में लोकसभा चुनाव में जहां केजरीवाल तक कमाल बताना बेहद जरूरी है देश भर में मोदी लहर की सरसराती हवा बह रही थी और मोदी मोदी का जयघोष गूंज रहा था। 

हालात यहां तक आ पहुंचे थे कि मोदी के 2 सीटों पर लड़ने के चुनाव में पहली गुजरात के वड़ोदरा दूसरी सीट वाराणसी पर उम्मीदवारों की हिम्मत टूट चुकी थी, ऐसे हालातों में अरविंद केजरीवाल ने बनारस जाकर मोदी को टक्कर देने की ठान ही ली मोदी ने खुद को मां गंगा का लाल पहले ही बता दिया था और वाराणसी का आईडी प्रूफ पहले ही ले लिया था। 

ऐसे में चुनावी जीत का बिगुल मोदी की जीत के रुप में बजा मगर लगभग 2.5 लाख मतदाताओं ने अपनी राय में केजरीवाल को रखा।

मिशन 2020 में एक बार फिर केजरीवाल ने बंपर जीत हासिल करते हुए 62 सीटें जीत कर सत्ता पर काबिज हुए। ऐसे चुनावी मौके पर केंद्र पर बैठी बीजेपी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून लाकर देश के माहौल को कुछ बदला तो विपक्ष ने तलवारी भाषण तेज धार में पढ़ना चालू कर दिया, वहीं केजरीवाल शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महिलाओं की सुरक्षा और सीसीटीवी जैसे मुद्दों को साथ लेकर दिल्ली में डटे रहे। 

केजरीवाल ने अपने सहयोगियों संग 62 सीट हासिल कर मैदान फतेह कर लिया। इन सबके बीच एक खास बात यह रही कि केजरीवाल के इर्द-गिर्द का कुनबा हर बार घटता रहा चाहे वह कवि कुमार विश्वास, वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष, योगेंद्र यादव हों या ऐसे ही कई जिन्होंने हल्के-हल्के से किनारा कर लिया खैर इसकी वजह क्या रही इसका जवाब किसी ने भी आज तक नहीं दिया। भले ही केजरीवाल के खास सहयोगियों का कुनबा घटा लेकिन इसका फर्क केजरीवाल ने पार्टी पर कभी नहीं आने दिया।

- शुभव यादव

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