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मांगलिक कार्य आरम्भ होने का दिन है ‘‘देवोत्थान एकादशी’’
- ब्रह्मानंद राजपूत
- नवंबर 25, 2020 09:25
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देव चार महीने शयन करने के बाद कार्तिक, शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन उठते हैं। इसीलिए इसे देवोत्थान (देव-उठनी) एकादशी कहा जाता है। देवोत्थान एकादशी तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में भी मनाई जाती है।
देवोत्थान एकादशी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहते हैं। दीपावली के ग्यारह दिन बाद आने वाली एकादशी को ही प्रबोधिनी एकादशी अथवा देवोत्थान एकादशी या देव-उठनी एकादशी कहा जाता है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देव चार मास के लिए शयन करते हैं। इस बीच हिन्दू धर्म में कोई भी मांगलिक कार्य शादी, विवाह आदि नहीं होते। देव चार महीने शयन करने के बाद कार्तिक, शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन उठते हैं। इसीलिए इसे देवोत्थान (देव-उठनी) एकादशी कहा जाता है। देवोत्थान एकादशी तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में भी मनाई जाती है। इस दिन लोग तुलसी और सालिग्राम का विवाह कराते हैं और मांगलिक कार्यों की शुरुआत करते हैं। हिन्दू धर्म में प्रबोधिनी एकादशी अथवा देवोत्थान एकादशी का अपना ही महत्त्व है। इस दिन जो व्यक्ति व्रत करता है उसको दिव्य फल प्राप्त होता है।
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उत्तर भारत में कुंवारी और विवाहित स्त्रियां एक परम्परा के रूप में कार्तिक मास में स्नान करती हैं। ऐसा करने से भगवान् विष्णु उनकी हर मनोकामना पूरी करते हैं। जब कार्तिक मास में देवोत्थान एकादशी आती है, तब कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियाँ शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है। पूरे विधि विधान पूर्वक गाजे बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है। विवाह के समय स्त्रियाँ मंगल गीत तथा भजन गाती है। कहा जाता है कि ऐसा करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियों की हर मनोकामना पूर्ण करते हैं। हिन्दू धर्म के शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती, वे जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। अर्थात जिन लोगों के कन्या नहीं होती उनकी देहरी सूनी रह जाती है। क्योंकि देहरी पर कन्या का विवाह होना अत्यधिक शुभ होता है। इसलिए लोग तुलसी को बेटी मानकर उसका विवाह सालिगराम के साथ करते हैं और अपनी देहरी का सूनापन दूर करते हैं।
प्रबोधिनी एकादशी अथवा देवोत्थान एकादशी के दिन भीष्म पंचक व्रत भी शुरू होता है, जो कि देवोत्थान एकादशी से शुरू होकर पांचवें दिन पूर्णिमा तक चलता है। इसलिए इसे इसे भीष्म पंचक कहा जाता है। कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियाँ या पुरूष बिना आहार के रहकर यह व्रत पूरे विधि विधान से करते हैं। इस व्रत के पीछे मान्यता है कि युधिष्ठर के कहने पर भीष्म पितामह ने पाँच दिनो तक (देवोत्थान एकादशी से लेकर पांचवें दिन पूर्णिमा तक) राज धर्म, वर्णधर्म मोक्षधर्म आदि पर उपदेश दिया था। इसकी स्मृति में भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्म पितामह के नाम पर भीष्म पंचक व्रत स्थापित किया था। मान्यता है कि जो लोग इस व्रत को करते हैं वो जीवन भर विविध सुख भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
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देवोत्थान एकादशी की कथा
एक समय भगवान विष्णु से लक्ष्मी जी ने कहा- हे प्रभु ! अब आप दिन-रात जागा करते हैं और सोते हैं तो लाखों-करोड़ों वर्ष तक को सो जाते हैं तथा उस समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं। अत: आप नियम से प्रतिवर्ष निद्रा लिया करें। इससे मुझे भी कुछ समय विश्राम करने का समय मिल जाएगा। ‘लक्ष्मी’ जी की बात सुनकर भगवान् विष्णु मुस्काराए और बोले- ‘देवी’! तुमने ठीक कहा है। मेरे जागने से सब देवों को और खास कर तुमको कष्ट होता है। तुम्हें मेरी सेवा से जरा भी अवकाश नहीं मिलता। इसलिए, तुम्हारे कथनानुसार आज से मैं प्रति वर्ष चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करूंगा। उस समय तुमको और देवगणों को अवकाश होगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलयकालीन महानिद्रा कहलाएगी। यह मेरी अल्पनिद्रा मेरे भक्तों को परम मंगलकारी उत्सवप्रद तथा पुण्यवर्धक होगी। इस काल में मेरे जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे तथा शयन और उत्पादन के उत्सव आनन्दपूर्वक आयोजित करेंगे उनके घर में तुम्हारे सहित निवास करूँगा।
पूजन विधि
भगवान विष्णु को चार महीने की निद्रा से जगाने के लिए घण्टा, शंख, मृदंग आदि वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के बीच ये श्लोक पढकर जगाते हैं-
उत्तिष्ठोत्तिष्ठगोविन्द त्यजनिद्रांजगत्पते।
त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिदंभवेत॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठवाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे।
हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमङ्गलम्कुरु॥
भगवान् विष्णु को जगाने के बाद उनकी षोडशोपचारविधि से पूजा करनी चाहिए। अनेक प्रकार के फलों के साथ भगवान् विष्णु को नैवेद्य (भोग) लगाना चाहिए। अगर संभव हो तो उपवास रखना चाहिए अन्यथा केवल एक समय फलाहार ग्रहण करकर उपवास करना चाहिए। इस एकादशी में रातभर जागकर हरि नाम-संकीर्तन करने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं।
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शास्त्रों के अनुसार भगवान् विष्णु के चार महीने कि नींद से जागने के बाद ही इस एकादशी से सभी शुभ तथा मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं। और हिन्दू धर्म में विवाहों कि शुरुआत भी इसी दिन शुभ मुहूर्त से होती है जो कि आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक चलते हैं मान्यता के अनुसार प्रबोधिनी एकादशी के दिन विवाह करने वाला जोड़ा जीवनभर सुखी रहता है।
- ब्रह्मानंद राजपूत
आगरा
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- प्रज्ञा पाण्डेय
- जनवरी 16, 2021 10:49
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विनायक चतुर्थी का दिन बहुत खास होता है। पंडितों के अनुसार अगर आप इस दिन गणेश जी को शतावरी चढ़ाते हैं तो इससे व्यक्ति की मानसिक शांति बनी रहती है। गेंदे के फूल की माला को घर के मुख्य द्वार पर बांधने से घर की शांति वापस आती है।
आज विनायक चतुर्थी है, यह साल की पहली विनायक चतुर्थी है। ऐसी मान्यता है कि गणेश जी की पूजा करने से सभी संकट दूर होते हैं और मनोकामनाएं पूर्ण होती है, तो आइए हम आपको विनायक चतुर्थी की व्रत-विधि तथा कथा के बारे में बताते हैं।
जानें विनायक चतुर्थी के बारे में
विनायक चतुर्थी व्रत की विशेषता यह है कि यह व्रत हर महीने में दो बार आता है। महीने में दो चतुर्थी आती हैं ऐसे में दोनों तिथियां ही विघ्नहर्ता भगवान गणेश को समर्पित मानी जाती हैं। आज 16 जनवरी शनिवार को साल 2021 की पहली विनायक चतुर्थी पड़ रही है।
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विनायक चतुर्थी का महत्व
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार विनायक चतुर्थी का विशेष महत्व होता है। इस दिन भगवान गणेश की पूजा करने से सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। भगवान गणेश की पूजा करने से कार्यों में किसी भी तरह की कोई रुकावट नहीं आती है। इसलिए गणपति महाराज को विघ्नहर्ता के नाम से भी जाना जाता है।
विनायक चतुर्थी पर करें ये उपाय
विनायक चतुर्थी का दिन बहुत खास होता है। पंडितों के अनुसार अगर आप इस दिन गणेश जी को शतावरी चढ़ाते हैं तो इससे व्यक्ति की मानसिक शांति बनी रहती है। गेंदे के फूल की माला को घर के मुख्य द्वार पर बांधने से घर की शांति वापस आती है। साथ ही गणेश जी को अगर चौकोर चांदी का टुकड़ा चढ़ाया जाए तो घर में चल रहा संपत्ति को लेकर विवाह खत्म हो जाता है। किसी भी पढ़ाई में परेशानी हो तो आपको विनायक चतुर्थी पर ऊं गं गणपतये नम: मंत्र का जाप 108 बार करना चाहिए। विनायक चतुर्थी के दिन गणेश जी को 5 इलायची और 5 लौंग चढ़ाए जाने से जीवन में प्रेम बना रहता है। वैवाहिक जीवन में किसी भी तरह की परेशानी आ रही हो तो विनायक चतुर्थी के दिन गणेश जी के किसी मंदिर में जाकर हरे रंग के वस्त्र चढ़ाएं।
जानें विनायक चतुर्थी का शुभ मुहूर्त
पूजा का शुभ मुहूर्त- 16 जनवरी, सुबह 11 बजकर 28 मिनट से लेकर दोपहर 01 बजकर 34 मिनट तक
चतुर्थी तिथि प्रारम्भ- सुबह 07:45 बजे, जनवरी 16, 2021
चतुर्थी तिथि समाप्त- सुबह 08:08 बजे, जनवरी 17, 2021
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जानें विनायक व्रत की पौराणिक कथा
हिन्दू धर्म में विनायक व्रत से जुड़ी एक पौराणिक कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार माता पार्वती के मन में एक बार विचार आया कि उनका कोई पुत्र नहीं है। इस तरह एक दिन स्नान के समय अपने उबटन से उन्होंने एक बालक की मूर्ति बनाकर उसमें जीव भर दिया। उसके बाद वह एक कुंड में स्नान करने के लिए चली गयीं। उन्होंने जाने से पहले अपने पुत्र को आदेश दे दिया कि किसी भी परिस्थिति में किसी भी व्यक्ति को अंदर प्रवेश नहीं करने देना। बालक अपनी माता के आदेश का पालन करने के लिए कंदरा के द्वार पर पहरा देने लगता है। थोड़ी देर बाद जब भगवान शिव वहां पहुंचे तो बालक ने उन्हें रोक दिया। भगवान शिव बालक को समझाने का प्रयास करने लगे लेकिन वह नहीं माना। क्रोधित होकर भगवान शिव त्रिशूल से बालक का शीश धड़ से अलग कर दिया। उसके बाद माता पार्वती के कहने पर उन्होंने उस बालक को पुनः जीवित किया।
विनायक चतुर्थी के दिन ऐसे करें पूजा
विनायक चतुर्थी का दिन बहुत खास होता है। इसलिए इस दिन सुबह उठ कर स्नान करें। स्नान करने के बाद घर के मंदिर में दीप जलाएं और भगवान गणेश को स्नान कराएं। इसके बाद भगवान गणेश को साफ वस्त्र पहनाएं। भगवान गणेश को सिंदूर का तिलक भी लगाएं। गणेश भगवान को दुर्वा प्रिय होती है इसलिए दुर्वा अर्पित करनी चाहिए। गणेश जी को लड्डू, मोदक का भोग भी लगाएं इसके बाद गणेश जी की आरती करें।
- प्रज्ञा पाण्डेय
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- शुभा दुबे
- जनवरी 14, 2021 11:01
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मकर संक्रांति पर्व से जुड़ी वैज्ञानिक मान्यता यह है कि इस दिन सूर्य उत्तर की ओर बढ़ने लगता है जो ठंड के घटने का प्रतीक है। धार्मिक मान्यताओं की अगर बात करें तो उसके मुताबिक इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनि के घर जाते हैं जो मकर राशि के शासक हैं।
हिन्दुओं का प्रसिद्ध त्योहार मकर संक्रांति देशभर में अलग-अलग नामों से भी मनाया जाता है। उत्तर में यह मकर संक्रांति है तो पश्चिम में संक्रांति है। दक्षिण में इसे पोंगल, भोगी और पूर्वोत्तर में माघ बिहू अथवा भोगाली बिहू के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन एक बात है, नाम भले इस पर्व के कई हों परन्तु हर्षोल्लास सब जगह एक जैसा दिखता है और देश के विभिन्न भागों की हमारी परम्पराएं भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को और समृद्ध बनाती हैं। मकर संक्रांति के पर्व पर देश के विभिन्न भागों खासकर नदियों के पास वाले इलाकों में मेलों का भी आयोजन होता है और बड़ी संख्या में श्रद्धालु पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं और दान-पुण्य आदि करते हैं। देश के मंदिरों में भी इस दौरान विशेष पूजन आयोजनों के साथ ही भंडारे भी लगाये जाते हैं।
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मकर संक्रांति पर्व की महत्ता
मकर संक्रांति पर्व से जुड़ी वैज्ञानिक मान्यता यह है कि इस दिन सूर्य उत्तर की ओर बढ़ने लगता है जो ठंड के घटने का प्रतीक है। धार्मिक मान्यताओं की अगर बात करें तो उसके मुताबिक इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनि के घर जाते हैं जो मकर राशि के शासक हैं। पिता और पुत्र आम तौर पर अच्छी तरह नहीं मिल पाते लेकिन यह दिन भगवान सूर्य के अपने पुत्र से मिलने का दिवस होता है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दिए गए द्रव्य को ग्रहण करने के लिए देवता धरती पर अवतरित होते हैं। इसलिए इस दिन पूजन और यज्ञादि का विशेष लाभ होता है।
मकर संक्रांति पूजन विधि
मकर संक्रांति के दिन हर व्यक्ति को सुबह पवित्र स्नान करना चाहिए। यदि पवित्र नदी में स्नान करने नहीं जा पा रहे हैं तो घर पर ही नहाने वाले पानी में गंगा जल की कुछ बूंदें डाल लें। स्नानादि के बाद जनेऊ बदलें, घर के मंदिर की साफ-सफाई कर भगवान की मूर्तियों या तसवीरों को टीका लगायें, अक्षत और पुष्प चढ़ाएं। उसके बाद तिल से बने खाद्य पदार्थों का भोग लगाएँ और आरती करें। इस दिन सूर्य भगवान और शनि जी का पूजन जरूर करें। संभव हो तो घर पर ही छोटा-सा हवन भी कर लें। हवन में गायत्री मंत्रों के साथ ही सूर्य और शनि जी के स्मरण मंत्र का भी उच्चारण करें। इसके बाद घर पर ही पंडित या पुरोहित को बुलाकर उसे भोजन करा कर यथाशक्ति दान दें या फिर मंदिर जाकर पंडित को दान देने के बाद जरूरतमंदों की भी यथाशक्ति मदद करें। याद रखें इस दिन आप जब पहला आहार ग्रहण करें तो वह तिल का ही हो।
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मकर संक्रांति पर्व की धूम
मकर संक्रांति पर्व का आदि काल से लोगों को इसलिए भी इंतजार रहता था क्योंकि इस समय एक तो सर्दी का समापन हो रहा होता है तो साथ ही फसलों की कटाई का कार्य भी शुरू हो रहा होता है। दिन-रात जिस फसल को कड़ी मेहनत कर उगाया उसे काट कर अब आमदनी का वक्त होता है इसलिए कृषकों के हर्ष की इस समय कोई सीमा ही नहीं होती। जहाँ तक इस पर्व पर लगने वाले मेलों की बात है तो कड़ाके की ठंड के बावजूद लोग तड़के से पवित्र नदियों में स्नान शुरू कर देते हैं हालांकि इस बार कोरोना काल में बहुत जगह प्रशासन ने तमाम तरह की पाबंदियां लगाई हैं। आम दिनों में इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम, वाराणसी में गंगाघाट, हरियाणा में कुरुक्षेत्र, राजस्थान में पुष्कर और महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी में श्रद्धालु इस अवसर पर लाखों की संख्या में एकत्रित होते हैं। मकर संक्रांति पर इलाहाबाद में लगने वाला माघ मेला और कोलकाता में गंगासागर के तट पर लगने वाला मेला काफी प्रसिद्ध है। तीर्थराज प्रयाग और गंगासागर में मकर संक्रांति पर स्नान को महास्नान की उपाधि दी गई है।
स्नान-दान से मिलता है पुण्य लाभ
मकर संक्रांति के दिन पवित्र स्नान करने के बाद आप पंडित पुरोहित को तो यथाशक्ति दान दें ही साथ ही गरीबों अथवा जरूरतमंदों की मदद भी अवश्य करें। यदि इस दिन खिचड़ी का दान करते हैं तो यह विशेष फलदायी है। खिचड़ी बना कर नहीं दे सकते तो खिचड़ी बनाने में लगने वाली सामग्री का ही दान करना चाहिए। मकर संक्रांति के दिन से ही सभी शुभ कार्य भी शुरू हो जाते हैं। अंग्रेजी माह की दृष्टि से देखें तो दिसंबर मध्य से ही शुभ कार्यों पर जो प्रतिबंध लगे होते हैं वह मकर संक्रांति के दिन से खत्म हो जाते हैं।
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विभिन्न प्रदेशों की परम्पराएँ
मकर संक्रांति के पर्व पर दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात और उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में खिचड़ी सेवन और दान की परम्परा है तो वहीं महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएं अपनी पहली संक्रांति पर कपास, तेल, नमक आदि वस्तुएं अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। इसी प्रकार से राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएं अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाया जाता है।
-शुभा दुबे
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- डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
- जनवरी 13, 2021 20:01
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हमारे पर्वों में सूर्य-चंद्र की संक्रांतियों और कुम्भ का अधिक महत्व है। सूर्य संक्रांति में मकर सक्रांति का महत्व ही अधिक माना गया है। मकर संक्रांति में 'मकर' शब्द का अर्थ मकर राशि का प्रतीक है जबकि 'संक्रांति' का अर्थ संक्रमण अर्थात प्रवेश करना है।
भारतीय संस्कृति में माघ माह की कृष्ण पंचमी को अर्वाचीन समय से मकर संक्रांति का पर्व न केवल भारत में वरन विदेशों में भी पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ विविध परम्पराओं के साथ मनाया जाता है। पवित्र नदियों एवं जलाशयों में स्नान व पूजा कर दान करना सौभाग्य वृद्धि का प्रतीक माना जाता है। तिल, गुड़, इनसे बने पकवान, खिचड़ी, वस्त्रों का विशेष रूप से दान दिया जाता है। यह एक पौराणिक पर्व है जिस के बारे में अनेक कथाएं और परंपराएं प्रचलित हैं। इसी दिन मलमास भी समाप्त होने तथा शुभ माह प्रारंभ होने के कारण लोग दान-पुण्य से अच्छी शुरुआत करते हैं। इस दिन को सुख और समृद्धि का माना जाता है। सूर्य पूजा इस पर्व पर करने की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है।
हमारे पर्वों में सूर्य-चंद्र की संक्रांतियों और कुम्भ का अधिक महत्व है। सूर्य संक्रांति में मकर सक्रांति का महत्व ही अधिक माना गया है। मकर संक्रांति में 'मकर' शब्द का अर्थ मकर राशि का प्रतीक है जबकि 'संक्रांति' का अर्थ संक्रमण अर्थात प्रवेश करना है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। एक राशि को छोड़कर दूसरे में प्रवेश करने की इस संक्रमण क्रिया को संक्रांति कहा जाता है। सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है इसलिए इस समय को 'मकर संक्रांति' कहा जाता है। हिन्दू महीने के अनुसार पौष शुक्ल पक्ष में मकर संक्रांति पर्व मनाया जाता है। इस दिन सूर्य उत्तरायण में आता है। सूर्य के आधार पर वर्ष के दो भाग हैं। एक उत्तरायन और दूसरा दक्षिणायन। इस दिन से सूर्य उत्तरायन हो जाता है। उत्तरायन अर्थात उस समय से धरती का उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है, तो उत्तर ही से सूर्य निकलने लगता है। सूर्य 6 माह सूर्य उत्तरायन रहता है और 6 माह दक्षिणायन। अत: यह पर्व 'उत्तरायन' के नाम से भी जाना जाता है। मकर संक्रांति से लेकर कर्क संक्रांति के बीच के 6 मास के समयांतराल को उत्तरायन कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायन का महत्व बताते हुए गीता में कहा है कि उत्तरायन के 6 मास के शुभ काल में जब सूर्यदेव उत्तरायन होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है, तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यही कारण था कि भीष्म पितामह ने शरीर तब तक नहीं त्यागा था, जब तक कि सूर्य उत्तरायन नहीं हो गया।
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महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं। महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था इसलिए मकर संक्रांति पर गंगासागर में मेला लगता है।
इस दिन से वसंत ऋतु की भी शुरुआत होती है और यह पर्व संपूर्ण अखंड भारत में फसलों के आगमन की खुशी के रूप में मनाया जाता है। खरीफ की फसलें कट चुकी होती हैं और खेतों में रबी की फसलें लहलहा रही होती हैं। खेत में सरसों के फूल मनमोहक लगते हैं।
भारत वर्ष एवं विदेशों में मकर संक्रांति को विविध रूप में मनाये जाने की परंपराएं है। दक्षिण भारत में पोंगल के रूप में तथा उत्तर भारत में इसे लोहड़ी, खिचड़ी पर्व, पतंगोत्सव आदि कहा जाता है। मध्यभारत में इसे संक्रांति कहा जाता है। मकर संक्रांति को उत्तरायन, माघी, खिचड़ी आदि नाम से भी जाना जाता है।
हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व ही मनाया जाता है। इस दिन अँधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की बनी हुई गजक और रेवड़ियाँ आपस में बाँटकर खुशियाँ मनाते हैं। बेटियाँ घर-घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी माँगती हैं। नई बहू और नवजात बच्चे (बेटे) के लिये लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारम्परिक मक्के की रोटी और सरसों के साग का आनन्द भी उठाया जाता है
उत्तर प्रदेश में यह दान का पर्व है। इलाहाबाद में पवित्र नदियों के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है। 14 जनवरी से ही इलाहाबाद में हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है। माघ मेले का पहला स्नान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि के आख़िरी स्नान तक चलता है। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा खिचड़ी खाने एवं खिचड़ी दान देने का अत्यधिक महत्व होता है। बिहार में मकर संक्रान्ति को खिचड़ी नाम से जाना जाता है। इस दिन उड़द, चावल, तिल, चिवड़ा, गौ, स्वर्ण, ऊनी वस्त्र, कम्बल आदि दान करने का अपना महत्त्व है।
महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बाँटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं -"तिळ गूळ घ्या आणि गोड़ गोड़ बोला" अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो। इस दिन महिलाएँ आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बाँटती हैं।
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बंगाल में इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। गंगासागर पर मकर संक्रांति के दिन लाखों हिंदू तीर्थयात्री सहित विदेशों से भी विदेशी यहां पर डुबकी लगाने के लिए इकट्ठा होते हैं और कपिल मुनि मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं। पुराणों में गंगा सागर की उत्पत्ति के बारे में बताया जाता है कि कपिल मुनि के श्राप के कारण ही राजा सगर के 60 हजार पुत्रों की इसी स्थान पर तत्काल मृत्यु हो गई थी। उनके मोक्ष के लिए राजा सगर के वंश के राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाए और गंगा यहीं सागर से मिली थीं। मान्यता है कि, गंगासागर की पवित्र तीर्थयात्रा सैकड़ों तीर्थ यात्राओं के समान है। शायद इसलिए ही कहा जाता है कि “हर तीर्थ बार–बार, गंगासागर एक बार।”
राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएँ अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएँ किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं। इस प्रकार मकर संक्रान्ति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखती है। मकर संक्रांति पर पर्यटन विभाग द्वारा जयपुर में आयोजित पतंग फेस्टिवल राजस्थान का एक अद्वितीय उत्सव है, जिसमें राज्यभर में आसमान में रंग-बिरंगी पतंगे छाई रहती हैं। लोग विभिन्न आकारों व आकृतियों की पतंगें उड़ाने का लुत्फ उठाते हैं। शाम को यह फेस्टिवल अपने चरम पर होता है, जब आसमान में लाइट युक्त पतंगे उड़ाने के साथ-साथ आतिशबाजी भी की जाती हैं लगता है जैसे सैकड़ो जुगनू चमक रहे हैं। संपूर्ण राज्य में मनाया जाने वाले इस त्यौहार की गतिविधियां जयपुर में सर्वाधिक होती हैं। तमिलनाडु में पोंगल, गुजरात एवं उत्तराखंड में उत्तरायण, पंजाब, हिमाचल और हरियाणा में माघी, असम में भोगली बिहू, कश्मीर घाटी में शिशुर सेंकरान्त, पश्चिमी बंगाल में पौष संक्रांति एवं कर्नाटक में मकर संक्रमण के नाम से मनाया जाता है। भारत के बाहर बांग्ला देश, नेपाल, थाईलैंड, लाओस, म्यामार, कम्बोडिया एवं श्रीलंका में भी मकर संक्रांति का पर्व विविध परम्पराओं के साथ मनाया जाता है।
- डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
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