Gyan Ganga: सुग्रीव को डाँटने की बजाय प्यार से इस तरह मना लिया था श्रीलक्ष्मणजी ने

Lakshmanji
सुखी भारती । Jul 27 2021 5:53PM

शेष के अवतार, साक्षात महाकाल ने ही जिसे गले से लगा लिया हो, भला उसे जगत में अब किससे भय। श्रीलक्ष्मण जी ने सुग्रीव को हृदय से क्या लगाया, सुग्रीव ने यूँ फूल-सा हलका महसूस किया, मानों किसी ने उसके हृदय पर रखी भारी चट्टान हटा दी हो।

सुग्रीव की मनःस्थिति अत्यन्त दयनीय-सी प्रतीत हो रही थी। इसका कारण था कि पूरी किष्किंधा नगरी में मात्र सुग्रीव ही एक ऐसा पात्र था, जो स्वयं को अकेला व अलग-थलग महसूस कर रहा था। क्योंकि सुग्रीव इस विषय से तो भलिभाँति अवगत था कि श्रीलक्ष्मण जी को केवल उसी की ही खोज है। और वह है कि उनके भय से मारा-मारा फिर रहा है। आज प्रथम बार तो श्रीलक्ष्मण जी का किष्किंधा नगरी में शुभ-आगमन हुआ है। और मेरे विषय-विकारों की मुझ पर ऐसी मार पड़ी, कि जिन महापुरूष को मुझे अत्यन्त सम्मान व चाव के साथ महलों में लाना चाहिए था, मैं उन्हीं के आगमन के प्रति भयभीत व अरुचि से भरा हुआ हूं। श्रीलक्ष्मण जी के पावन चरण कहीं पड़ जायें, वह स्थान तो वैसे ही तीर्थ का रूप धारण कर जाता है। और एक मैं हूं कि उनका दास बनने की अपेक्षा, अपने मन का अनुचर बन उनसे छुपता फिर रहा हूं। खैर सुग्रीव के पास अब कोई चारा भी तो नहीं था। सिवा इसके कि वह श्रीलक्ष्मण जी के समक्ष उपस्थित हो। अंततः भय से भीगा हुआ सुग्रीव उस कक्ष में कदम रखता है, जहाँ श्रीलक्ष्मण जी उपस्थित थे। सुग्रीव ने कुछ न सोचा और जाकर श्रीलक्ष्मण जी के श्रीचरणों को पकड़ लिया-

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‘तब कपीस चरनन्हि सिरू नावा।

 

जैसे ही श्रीलक्ष्मण जी ने यह देखा कि सुग्रीव ने तो मेरे चरण ही पकड़ लिए। अब जो चरणों में ही गिर जाये, तो उसे भला और कहाँ तक गिराया जाना चाहिए। सबसे बड़ी बात कि सुग्रीव मात्र देह से ही श्रीलक्ष्मण जी को नत्मस्तक नहीं हुआ था, अपितु मन से भी ढेरी हो चुका था। श्रीलक्ष्मण जी को भला और क्या चाहिए था। उन्हें सुग्रीव को कोई मारने की धुन थोड़ी न थी। हाँ, मारने की धुन अगर थी भी, तो वह सुग्रीव को मारने की नहीं थी, अपितु सुग्रीव के अज्ञान को मारने की थी। सुग्रीव का ज्ञान हरा जाना व प्रभु के प्रति उन्मुख हो जाना ही तो प्रभु का उद्देश्य था। और प्रभु के उद्देश्य को पूर्ण करना ही श्रीलक्ष्मण जी का भी उद्देश्य था। बात यह नहीं कि सुग्रीव उस समय की कोई बहुत बड़ी हस्ती था, कि उसके बिना प्रभु की कोई हानि होने वाली थी। बस एक धुन थी प्रभु को, कि मैं अपने भक्त के कल्याण के लिए, धैर्य के अंतिम छोर तक भी इन्तजार करूंगा। हालांकि यह अवश्य ही अनोखा-सा प्रतीत हो सकता है, कि भक्त के पास अक्सरा मैं तब जाता हूं, जब भक्त या तो मुझे स्वयं बुलाता है, अथवा मुझे अपने भक्त से प्रेम वश मिलने की इच्छा होती है। लेकिन सुग्रीव तो हमारा ऐसा भक्त है, कि वह तो हमें याद ही नहीं कर रहा। याद तो छोड़ो, हम याद आ भी जायें तो उसका तो यही प्रयास रहता है कि वह हमको भूले कैसे? उसके इसी प्रयास को विफल करने के लिए ही, तो हमें श्रीलक्ष्मण जी को भेजने का कदम उठाना पड़ रहा है। कैसे भी था, हमारा (श्रीराम जी) पावन उद्देश्य पूर्ण हो रहा था। सुग्रीव ने क्योंकि अपना सिर श्रीलक्ष्मण जी के श्रीचरणों में रख दिया था, तो यह देख श्रीलक्ष्मण जी का सारा क्रोध जाता रहा। देखा कि चलो सुग्रीव कम से कम, प्रभु के प्रभाव के आगे नतमस्तक तो हुआ। यह देख श्रीलक्ष्मण जी सुग्रीव के प्रेम भाव से भर गए, और सुग्रीव को उसके कंधों से उठा कर गले से लगा लिआ-

‘गहि भुज लछिमन कंठ लगावा।’

अब आप ही सोचिए कि शेष के अवतार, साक्षात महाकाल ने ही जिसे गले से लगा लिया हो, भला उसे जगत में अब किससे भय। श्रीलक्ष्मण जी ने सुग्रीव को हृदय से क्या लगाया, सुग्रीव ने यूँ फूल-सा हलका महसूस किया, मानों किसी ने उसके हृदय पर रखी भारी चट्टान हटा दी हो। बीता हुआ कल उसे स्वप्न सा प्रतीत हो रहा था। सुग्रीव को स्वयं पर क्रोध व ग्लानि दोनों ही हो रहे थे, कि मैं कितना मूर्ख था, जो मान सरोवर का हंस होकर भी किसी कीचड़ के स्रोत व मलिन पोखर पर अभक्ष भोजन का सेवन कर रहा था। निश्चित ही मैं क्षमा योग्य कहाँ? लेकिन प्रभु की दया व स्नेह तो देखिए, कि मुझ तुच्छ जीव को सद्मार्ग पर लाने हेतु कितने दृढ़ संकल्पित हैं, कि पीठ की भाँति पीछे ही लगे हैं। सुग्रीव श्रीलक्ष्मण जी से रूंधे से कंठ से अपनी व्यथा कहता है, कि हे नाथ! सच मानिएगा, मैं मन में रत्ती भर भी यह चाह नहीं रहा था, कि मैं प्रभु से विमुख होऊँ। लेकिन क्या करूँ नाथ, प्रभु की माया ही ऐसी है, कि जीव का विषयों के वशीभूत हो, वश ही नहीं चलता। मैं क्या चीज हूं, बड़े-बड़े ऋर्षि-मुनि भी इस माया से मोहित हो जाते हैं। भला विषयों से बढ़कर भी कोई मद हुआ है-

‘नाथ विषय सम मद कछु नाहीं।

मुनि मन मोह करइ छन माहीं।

सुनत बिनीत बचन सुख पावा।

लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा।।’

यद्यपि श्रीलक्ष्मण जी यहाँ सुग्रीव को डाँट भी सकते थे, कि अपनी गलतियों व पापों का घड़ा, अपने सिर न लेकर, विषयों के सिर मत फोड़ो। तुम यह स्पष्ट तौर पर स्वीकार क्यों नहीं करते, कि तुम स्वभाव से ही विषयी हो। श्रीलक्ष्मण जी के पास कहने को और भी बहुत कुछ था। जिससे वे सुग्रीव को ग्लानि के सागर में डुबो सकते थे। लेकिन श्रीलक्ष्मण जी जानते थे, कि सुग्रीव सचमुच से धोखा नहीं करना चाहता। बेचारा पूर्व जन्मों के कर्म संस्कारों से लड़ ही नहीं पा रहा, तो यह भी क्या करे। चलो अपनी गलती मानने का साहस तो कर ही रहा है। इतना भी कौन करता है। हमारे प्रभु का आगमन भी, तो ऐसे ही माया के पाश में जकड़े जीवों के लिए तो है। प्रभु कोई सुधरे अथवा सुथरे जीवों के जिए थोड़ी न आते हैं। क्या वैद्य अपनी औषधि स्वस्थ प्राणियों को देता है। वैद्य का वास्तविक लाभ तो बीमार जीवों के उपचार में ही है न। तो श्रीराम जी ने भी तो विषय विकारों से ग्रसित प्राणियों के लिए ही तो अवतार धारण किया है। और उनका अवतार अपने अंशियों के प्रति क्रोध की ओढ़नी ओढ़कर थोड़ी न हुआ है। अपितु प्रभु तो प्रतिक्षण ममता, स्नेह व प्रेम से तरबतर होते हैं। लेकिन तब भी एक साधक को चौकन्ना तो रहना ही चाहिए ही होता है। केवल यह कहकर भी तो पीछा नहीं छुडाया जा सकता कि सारा दोष तो प्रभु की माया का है-

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‘लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा।’

केवल एक उदाहरण नहीं, अपितु अनेकों उदाहरणों से श्रीलक्ष्मण जी सुग्रीव को सप्रेम समझाते हैं। और तद्पश्चात सभी श्रीराम जी की तरफ गमन करते हैं। 

आगे श्रीराम जी के पावन सान्निध्य में आगे की कौन सी लीलायें घटती हैं, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम!

-सुखी भारती

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