Gyan Ganga: गीता में भगवान ने कहा है- मुझे याद करो लेकिन सांसारिक कर्म भी करते रहो

Bhagavad Gita
आरएन तिवारी । Mar 5 2021 6:03PM

भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! तुम हर समय मेरा स्मरण करते हुए अपने सांसारिक कर्मों को भी करते रहो और युद्ध भी करो। इस समय युद्ध करना तुम्हारा परम कर्तव्य है। अपने मन और बुद्धि को मुझमें लगाकर मेरे शरणागत हो जाओ। तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा।

प्रभासाक्षी के सहृदय पाठकों ! प्रेम की भावना मनुष्य को कभी हारने नहीं देती और नफरत की भावना कभी जीतने नहीं देती। हमें अपने जीवन में प्रेम को सर्वोपरि रखना चाहिए। 

आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं-

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि प्रेम तत्व को समझने वाला सच्चा साधक ही भगवान का सर्वश्रेष्ठ भक्त हो सकता है। अर्जुन ने प्रश्न किया था, हे परम पिता परमेश्वर! मनुष्य अपने जीवन के अंतिम क्षणों में आपको कैसे जान सकता है? उसके जवाब में भगवान कहते हैं-

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श्री भगवान उवाच 

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ 

हे कुंती नन्दन अर्जुन! जो मनुष्य जीवन के अंत समय में मेरा ही स्मरण करता हुआ शारीरिक बन्धन से मुक्त होता है, वह मेरे ही भाव को अर्थात् मुझको ही प्राप्त होता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। हम मनुष्यों को भगवान ने एक विशेष छूट दे रखी है, मरणासन्न व्यक्ति के कैसे भी आचरण क्यों न हों, उसने किसी भी तरह का जीवन क्यों न बिताया हो, पर अंत समय में वह भगवान को याद कर ले तो उसका कल्याण हो जाएगा। श्रीमद्भागवत में अजामिल की एक बहुत ही प्यारी कथा आती है। उसने जीवनभर पाप का आचरण किया था, किन्तु मृत्यु के समय नारायण नाम का उच्चारण करने से वह बैकुंठलोक को गया था। भगवान ने मनुष्य का उद्धार करने के लिए ही जीव को मानव शरीर दिया है और जीव ने भी मानव शरीर को स्वीकार किया है। इसलिए जीव का उद्धार हो जाए, तभी भगवान का यह शरीर देना और जीव का यह मानव तन  लेना सफल होगा। परंतु वह अपना उद्धार किए बिना ही आज इस दुनिया से विदा हो रहा है, इसके लिए भगवान कहते हैं— “कि भैया ! तेरी और मेरी दोनों की इज्जत रह जाए, इसलिए अब जाते-जाते तू मुझको याद करता जाए। इसीलिए आज भी हमारे सनातन धर्म में मरणासन्न व्यक्ति को तुलसी और गंगा-जल दिया जाता है तथा राम नाम कहलवाया जाता है।

    

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ 

हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है। अंत समय में हुए, चिन्तन के अनुसार ही अगले जन्म की प्राप्ति होती है। जिसका जैसा स्वभाव होता है, अंतकाल में वह वैसा ही चिन्तन करता है। राजा भरत जो बाद में जड़ भरत के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने शरीर छोड़ते समय एक मृग शिशु का चिन्तन किया था इसीलिए उनको दूसरे जन्म में मृग बनना पड़ा था। अब अगले श्लोक में बताते हैं कि, अंत समय में भगवान का स्मरण होने के लिए हमें क्या करना चाहिए।   

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥ 

भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! तुम हर समय मेरा स्मरण करते हुए अपने सांसारिक कर्मों को भी करते रहो और युद्ध भी करो। इस समय युद्ध करना तुम्हारा परम कर्तव्य है। अपने मन और बुद्धि को मुझमें लगाकर मेरे शरणागत हो जाओ। तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा। गीता का यह शाश्वत संदेश, भगवान के स्मरण में हमें समय का विभाग नहीं करना चाहिए, भगवान का चिंतन और स्मरण तो सदा सर्वदा करते रहना चाहिए।

अब अपनी प्राप्ति का माहात्म्य बताते हुए भगवान कहते हैं--  

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌ ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ 

मुझे प्राप्त करके उस मनुष्य का इस दुख-रूपी क्षणभंगुर संसार में पुनर्जन्म कभी नही होता है, बल्कि वह महात्मा परम-सिद्धि को प्राप्त करके मेरे परम-धाम को प्राप्त होता है। पुनर्जन्म का अर्थ है- फिर से जन्म लेना। चाहे मनुष्य रूप में हो या पशु-पक्षी रूप में हो। पुनर्जन्म को दु:खालय अर्थात दु:खो का घर कहा गया है। जीव को नौ महीने तक मल-मूत्र से भरे हुए माँ के गर्भ में रहना पड़ता है। माँ के गर्भ से ही दु:ख का प्रारम्भ हो जाता है, जो मृत्यु पर्यन्त चलता रहता है। जन्म के बाद कोई भी कष्ट होने पर वह रोता रहता है। थोड़ा बड़ा होने पर खाने-पीने, खिलौने आदि की इच्छा पूरी न होने पर बड़ा दु:ख होता है। विद्यार्थी जीवन में कष्ट उठाकर पढ़ाई की चिंता बनी रहती है। परीक्षा में असफल होने पर कई विद्यार्थी आत्महत्या तक कर लेते हैं। जवान होने पर अपनी इच्छानुसार विवाह न होने पर दु:ख होता है। विवाह हो जाता है, तो मन मुताबिक पति अथवा पत्नी न मिलने से दु:ख होता है। बाल-बच्चे हो जाते हैं तो उनका पालन-पोषण करने में कष्ट होता है। लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं तो जल्दी विवाह न होने पर माँ-बाप की नींद उड़ जाती है। बुढ़ापे में अनेक प्रकार के रोग घेर लेते हैं। ठीक से उठने-बैठने, चलने-फिरने, और खाने-पीने में दु:ख होता है। रात में खाँसते–खाँसते हाल बेहाल हो जाता है। घर-परिवार के लोग भी मनाने लगते हैं, हे भगवान ! इनको जल्दी उठा लें। मरने के समय भी भयंकर कष्ट होते हैं। ऐसे दु:ख कहाँ तक गिनाएँ ? उनका कोई अंत नहीं, इसीलिए इस संसार को दु:खालय कहा गया है।

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आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥

हे अर्जुन! इस ब्रह्माण्ड में जितने भी छोटे-बड़े लोक हैं, चाहे ब्रह्म-लोक हो, इंद्रलोक हो या देवलोक हो वहाँ जाने पर लौटकर आना ही पड़ता है। इन लोकों में सभी जीव जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं, किन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझे प्राप्त करके मनुष्य का पुनर्जन्म कभी नहीं होता है। अर्थात भग्वत्प्राप्ति का सुख अनंत है, अपार है, अगाध है। यह सुख कभी नष्ट नहीं होता, सदा बना रहता है।

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌ ।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! जिसे वेदों और शास्त्रों में अव्यक्त अविनाशी के नाम से कहा गया है, उसी को परम-गति कहा जाता हैं जिसको प्राप्त करके मनुष्य कभी वापस नहीं आता है, वही मेरा परम-धाम है। इसलिए तो प्रभु ने स्पष्ट कहा— सर्वधर्मानपरित्यज्यमामेकम शरणमव्रज।

सच्चा साधक संसार के सभी प्रपंचों को छोड़कर भगवान के चरण कमलों में अपना चित्त लगाता है। मीराबाई ने क्या किया? सब कुछ छोड़कर नंदलाल को अपनी आँखों की पुतलियों में बसाकर गाने लगी और सदा के लिए अमर हो गईं...

बसों मेरे नैनन में नन्दलाल॥

मोहनी मुरती साँवली सूरती,

नैना बने विसाल,

अधर सुधारस मुरली राजत॥

उर वैजंति माल,

बसों मेरे नैनन में नन्दलाल..........   

भक्त और भगवान के इतिहास में इस तरह का उदाहरण बहुत कम मिलता है।  

श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...

जय श्री कृष्ण...

-आरएन तिवारी

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