Gyan Ganga: भगवान भोलेनाथ और देवी पार्वती का पाणिग्रहण

समस्या यह है कि संसांरिक व्यक्ति माया व अज्ञानता के प्रभाव में आकर, यह ही निर्णय नहीं ले पाते, कि उनके मानव जीवन को पाने का वास्तविक लक्ष्य माया जगत नहीं, अपितु ईश्वरीय परम् धाम है। ठीक है, मार्ग में परीक्षाएं होंगी, अपने ही दुश्मनों की भांति आपका मार्ग अवरुद्ध करेंगे।
पिछले कितने ही सोपानों में हम भगवान् शिव-पार्वती विवाह के दिव्य आनंद सरोवर में गोते लगा रहे हैं। जीवन का सार-रस हमने अध्यात्म की कितनी गुत्थियों को सुलझाते हुए ही पाया है। मानव जीवन की कहानी है ही शिव विवाह से प्रेरित। क्योंकि देवी पार्वती जैसे अनेकों तप करती है, परीक्षाएं देती हैं, अपने तन पर कठिन से कठिन कष्ट सहती हैं। ठीक इसी प्रकार हमारी आत्मा भी चौरासी लाख योनियों के चक्रव्यूह में भ्रमण करते हुए अनेकों कष्टों को सहती है। जिस प्रकार देवी पार्वती के जीवन का एकमात्र लक्ष्य केवलमात्र भगवान शिव को प्राप्त करना था। ठीक इसी प्रकार हमारी आत्मा का भी एकमात्र लक्ष्य परमात्मा में विलय होना है।
लेकिन समस्या यह है कि संसांरिक व्यक्ति माया व अज्ञानता के प्रभाव में आकर, यह ही निर्णय नहीं ले पाते, कि उनके मानव जीवन को पाने का वास्तविक लक्ष्य माया जगत नहीं, अपितु ईश्वरीय परम् धाम है। ठीक है, मार्ग में परीक्षाएं होंगी, अपने ही दुश्मनों की भांति आपका मार्ग अवरुद्ध करेंगे। किन्तु तब भी भले ही एक पत्ता खाकर भी दिन काटना पड़े और अर्पणा बनने पड़े फिर भी अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहना है। तभी भगवान् शंकर स्वयं हमें वर्ण करने के लिए, हमारे अंर्तघट की चौखट पर आएंगे।
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और आज भगवान भोलेनाथ सचमुच देवी पार्वती को वर्ण करने हेतु उनकी चौखट पर आ चुके हैं। मुनि जन वेद् मंत्रें की पवित्र ध्वनियों से वातावरण को बैकुण्ठ से भी पवित्र रूप दे रहे हैं। अब बारी आई कि विवाहक जोड़ी के अराध्य देव का पूजन करेंगे तो सोचिए कि भगवान् शंकर व देवी पार्वती ने किसका पूजन किया होगा? जब सबसे बड़े देव,देवों के देव भी महादेव भी स्वयं भगवान् शंकर हैं तो भला किसका पूजन करेंगे? स्वयं भगवान् राम जब सागर पार करने से पूर्व शिवलिंग बनाकर, भोलेनाथ की पूजा करते हैं, तो समझ लीजिए कि उनका स्थान क्या है? किन्तु विवाह का संस्कार ही है, कि विवाहक जोड़ी को अपने इष्ट प्रमात्मा का पूजन करना होगा। तो सोचिए उन्होंने किसका पूजन किया होगा? गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥
भगवान् शंकर व देवी पार्वती ने गणेश जी का पूजन किया। क्या कहा? गणेश जी का पूजन---? किन्तु यह कैसे संभव है? क्योंकि गणेश जी तो भगवान् शंकर के सुपुत्र हैं जो कि उनके विवाह के पश्चात् जन्म लेते हैं। और हम सुन रहें हैं कि देवी पार्वती और शंकर जी ने गणेश जी का पूजन किया। तो ये वाले कौन से गणेश जी थे भईया? क्या यह कोई अन्य गणेश जी थे?
अगर हम हमारे शास्त्रें के अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि गणेश जी अर्थ यह नहीं, जो हम अपने मतानुसार समझ लेते हैं। गणेश शब्द में दो शब्दों का संयोग है गणेश गण भाव संसांरिक जीव एवं ईश का अर्थ हुआ स्वामी भाव जो संसार के समस्त जीवों के स्वामी हैं, भगवान् शंकर व देवी पार्वती ने उन्हीं का पूजन किया। जिसे शास्त्रें में एकनिष्ठ ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। जो चर-अचर जगत के स्वामी हैं, जो कण-कण में विद्यमान हैं। यह ही ब्रह्म हैं जो बाद में गणेश जी के रूप में भगवान् शंकर के पुत्र बनकर भी प्रकट हुए। भगवान् शंकर ने उनकी पूजा की।
अततः भगवान् शंकर ने देवी पार्वती का पाणिग्रहण किया। इस समय सभी देवतागण अत्यंत प्रसन्न हो उठे। उनका हृदय गदगद हो उठा। सभी श्रेष्ठ मुनिगण वेद मंत्रें का उच्चारण करने लगे और शिवजी की जय जयकार करने लगे। रामचरित मानस में इस दृष्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी लिखते हैं-
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
अर्थात अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह सम्पन्न हो गया। सारे ब्रह्माण्ड में आनंद छा गया। यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि राजा हिमवान ने दिल खोलकर दहेज दिया। दहेज में दास, दासी, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र-आभूषण, मणि-माणिक्य आदि अनेकों प्रकार की चीजें अन्न तथा सोने के बर्तन गाडि़यों में लदवाकर दहेज में दिए। जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। गोस्वामी जी बता रहे हैं-
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
बिदाई से पूर्व मैना अपनी पुत्री देवी पार्वती को अनेकों प्रकार से पति सेवा धर्म की सुंदर सीख देती हैं। हालांकि वे इस बात से भी दुखी हैं कि उन्हें स्त्री जाति में जन्म नहीं लेना चाहिए था। क्योंकि नारी का क्या है? माता-पिता के घर में है तो माता-पिता बड़े भाई की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है और विवाह के पश्चात् पति व ससुर कुल पक्ष वालों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है। किन्तु यह तो मैना का मोह व अज्ञानता है कि वह अभी भी यह सोच रही है कि मेरी पुत्री नारी है। तो वह किसी के अधीन होगी। क्योंकि जीवों में स्त्री हो भले पुरुष वर्ग, हैं तो सभी कर्म बंधनों में बंधे हुए। वास्तविक पराधीनता तो चौरासी लाख योनियों के चक्र में फंसे रहना है। काम,क्रोध,लोभ, मोह व अहंकार के दूषित रसों की चाह व पराधीनता है। और यह पराधीनता तभी समाप्त होती है जब जीव ईश्वर में विलय होता है। उसके श्री चरणों में स्वयं को अर्पित करता है। फिर वह कभी यह नहीं कहता-
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
नारी के संबंध में यह विचार मैना के व्यक्तिगत हैं। किन्तु भगवान् शंकर गोस्वामी तुलसीदास जी व अन्य मुनियों के नही। क्योंकि वे तो नारी को सदा से ही आदि शक्ति जगदम्बा के रूप में ही पूजते हैं। (---क्रमश)
- सुखी भारती
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