वट अमावस्या पर वट पूजन के साथ-साथ वट वृक्ष भी लगाइए
हिंदू संस्कृति में वृक्ष पूजन का बहुत महत्व है। स्नान के बाद तुलसी की प्राय घरों में पूजा होती है। पीपल, केला आदि घर में नहीं लगाए जाते तो इन्हे मंदिर में जाकर पूजते हैं। आमला अमावस्या पर आमले का पूजन होता है।
आज वट अमावस्या है। महिलाओं के वट पूजन का दिन। वट पर ज्यादती करने का नही। उसे नुकसान पहुंचाने का नहीं। आज पूजन के नाम पर आज बुरी तरह से वट वृक्ष को नुकसान पहुंचाया जाता। पूजन के नाम पर सबेरे से ही उसका दौहन शुरू हो जाता है। जरूरत है कि वह के पूजन के साथ हम उसका संरक्षण करें। नए पौधे लगाएं।
वट मावस के दिन सुहागिन वट का पूजन करती हैं। वे अपने पति–सास और ससुर की लंबी उम्र की कामना करती हैं। ये पर्व उत्तर भारत का ही महत्वपूर्ण पर्व नहीं है। उडीसा में भी वट सावित्री वृत ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता है।
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हिंदू संस्कृति में वृक्ष पूजन का बहुत महत्व है। स्नान के बाद तुलसी की प्राय घरों में पूजा होती है। पीपल, केला आदि घर में नहीं लगाए जाते तो इन्हे मंदिर में जाकर पूजते हैं। आमला अमावस्या पर आमले का पूजन होता है। पूजन कार्य के लिए घर सजाने के लिए आम के पत्ते और कलश के साथ पूजन के लिए आम की टहनी के प्रयोग की परंपरा है। हिंदू संस्कृति में ही वट का महत्व नही हैं। बौद्ध भी वट वृक्ष को बहुत मानते हैं। क्योंकि भगवान बुद्ध को वट वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
हिंदू संस्कृति में शुरू से ही वृक्षों की महत्ता बताई गई है। वृक्षों को मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। वट मावस वट वृक्ष के पूजन का पर्व है। पर अब इसमें कुरीति आ गई। महिलाओं ने वट वृक्ष पर जाकर पूजने बंद कर दिया। घर पर ही पूजन प्रारंभ कर दिया। परिवार के पुरूष या नौकर वट वृक्ष की टहनी तोड़कर घर ले आते हैं। महिलांए इन टहनियों को पूजती और उसके बाद उन्हें फेंक दिया जाता। वट को पूजने, उसे सम्मान देने की जगह उत्तर भारत में आज वट वृक्ष पर सबसे ज्यादा जुल्म होता। उसका एक तरह से छटान हो जाता। होना ये चाहिए कि महिलांए वट वृक्ष पर जांए। वहीं उसकी पूजा करें। सार्वजनिक स्थान पर वट के पौधे लगाये जांए।
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शहरों में तो कुछ लोग इस पर्व पर को अपनी आय का साधन बना लिया। अपनी आए के लिए वे वट की टहनी तोड़कर लाकर गली−मुहल्लों में बेचने लगे।
इसका कारण यह है कि वट अब घर के पास नहीं मिलते। दूर जाकर पूजा करने से बचने के लिए ऐसा होने लगा। गलत परंपरा शुरू हो गई। भौतिकता में हमने वृक्षों की महत्ता भुला दी। कोरोना महामारी आई तो हमें आक्सीजन की जरूरत पड़ी। आक्सीजन देने वाले वृक्षों की याद आई। पीपल, पिलखन, वट जामुन, नीम याद आया। गांव में तो अब भी लोगों के घरों के आंगन में नीम, शहतूत, आम आदि वृक्ष लगाने की परम्परा है। गर्मी में बच्चे इनके नीचे खेलते हैं। गांव मे तो परिवार के पुरूष−बुजुर्ग इनके नीचे आराम करते हैं। कोरोना काल में आक्सीजन की जरूरत पड़ने पर गांव में कई जगह बीमार को पीपल और वट वृक्ष के नीचे लिटाया गया।
आज समय की मांग है कि हम आक्सीजन देने वाले वृक्षों का महत्व समझें। गली−मुहल्लों के मंदिर और खाली जगह में पीपल, पिलखन, वट, आम, आंवला आदि के पौधे लगाएं। संकल्प लें कि अपने आसपास के खाली स्थान पर हम ये पौधे लगांएगे। ऐसा प्रयास करें कि अगली बार हमें वट वृक्ष के पूजन के लिए उसकी टहनी तोड़कर न लानी पड़े। बट पूजन के लिए आसपास के सार्वजनिक स्थान पर उपलब्ध हों।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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