Gyan Ganga: श्रीकृष्ण ने कहा है- आसुरी स्वभाव वाले व्यक्ति ही अपने आप को भगवान मानने लगते हैं

Shri Krishna
आरएन तिवारी । Jun 18 2021 3:07PM

कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना के बाजे बजे और शंख ध्वनि हुई तो पांडवों पर कोई असर नहीं हुआ, पर जब पांडवों की सात अक्षौहिणी सेना के बाजे बजे, तो कौरव सेना के दिल धडक गए। अन्याय, अत्याचार करने वालों के हृदय कमजोर हो जाते हैं इसलिए वे भयभीत होते हैं।

हम सबके लिए श्रीमद भगवत गीता का शाश्वत संदेश:- खुद को कभी अकेला महसूस न करें क्योंकि भगवान हमेशा आपके साथ है। 

पिछले अंक में भगवान ने बताया कि जीव परमात्मा का अंश है, इसलिए इसका एक मात्र संबंध परमात्मा से है, लेकिन भूल से यह जीव अपना सारा संबंध संसार से जोड़ लेता है और सांसरिक नाता खत्म होते ही अपने आप को अकेला समझने लगता है।   

आइए ! अब गीता के आगे के प्रसंग में चलते हैं---

अब अर्जुन का कोई प्रश्न न रहने से भगवान इस सोलहवें अध्याय में दैवी और आसुरी सम्पदा का वर्णन करते हैं।

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दैवीय स्वभाव वालों के लक्षण

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌ ॥ 

श्री भगवान कहते हैं- हे भरतवंशी अर्जुन! जो मुझे पुरुषोत्तम जान लेता है वह मेरा अनन्य भक्त हो जाता है और उसमें दैवी सम्पदा अपने आप प्रकट होने लगती है। वह मुझ परमात्मा में पूर्ण विश्वास कर निर्भय हो जाता है, उसका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, परमात्मा की प्राप्ति के लिए दृढ़ निश्चय कर लेता है। उसमें समर्पण का भाव, इन्द्रियों को संयमित रखने का भाव, नियत-कर्म करने का भाव, स्वयं को जानने का भाव और सत्य को न छिपाने का भाव प्रकट होने लगता है। जब मनुष्य के आचरण ठीक नहीं होते तब उसको भय लगता है। जैसे, रावण से देवता, मनुष्य, यक्ष, राक्षस सब डरते थे, पर वही रावण जब सीताहरण करने के लिए जाता है, तब वह डर जाता है। कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना के बाजे बजे और शंख ध्वनि हुई तो पांडवों पर कोई असर नहीं हुआ, पर जब पांडवों की सात अक्षौहिणी सेना के बाजे बजे, तो कौरव सेना के दिल धडक गए। कहने का तात्पर्य है कि अन्याय, अत्याचार करने वालों के हृदय कमजोर हो जाते हैं इसलिए वे भयभीत होते हैं। जब मनुष्य अन्याय, अत्याचार को छोड़कर अपने आचरणों और भावों को शुद्ध बनाता है, तब उसका भय मिट जाता है। 

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌ ।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌ ॥ 

किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने का भाव (अहिंसा), मन और वाणी से एक होने का भाव (सत्यता), गुस्सा रोकने का भाव (क्रोधविहीनता), कर्तापन का अभाव (त्याग), मन की चंचलता को रोकने का भाव (शान्ति), किसी की भी निन्दा न करने का भाव (छिद्रान्वेषण), समस्त प्राणियों के प्रति करुणा का भाव (दया), लोभ से मुक्त रहने का भाव (लोभविहीनता), इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्त न होने का भाव (अनासक्ति), मद का अभाव (कोमलता), गलत कार्य हो जाने पर लज्जा का भाव और असफलता पर विचलित न होने का भाव (दृढ़-संकल्प)। 

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥ 

भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! ईश्वरीय तेज का होना, अपराधों के लिये माफ कर देने का भाव (क्षमा), किसी भी परिस्थिति में विचलित न होने का भाव (धैर्य), मन और शरीर से शुद्ध रहने का भाव (पवित्रता), किसी से भी ईर्ष्या न करने का भाव और सम्मान न पाने का भाव ये सभी दैवीय स्वभाव वाले मनुष्य के लक्षण हैं। 

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥ 

दैवीय गुण मुक्ति का कारण बनते हैं और आसुरी गुण बन्धन का कारण माने जाते हैं। हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवीय गुणों से युक्त होकर उत्पन्न हुआ है। अब आगे के श्लोकों में भगवान आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य के लक्षण बताते हैं। 

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्‌ ॥ 

हे पृथापुत्र ! पाखण्ड, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता ये सभी आसुरी स्वभाव को लेकर उत्पन्न हुए मनुष्य के लक्षण हैं। 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य यह नहीं जानते हैं कि क्या करना चाहिये और क्या नही करना चाहिये, वे न तो बाहर से और न अन्दर से ही पवित्र होते हैं, वे न तो कभी उचित आचरण करते हैं और न ही उनमें सत्य ही पाया जाता है। 

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्‌ ।

अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्‌ ॥ 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत्‌ झूठा है इसका न तो कोई आधार है और न ही कोई ईश्वर है, यह संसार बिना किसी कारण के केवल स्त्री-पुरुष के संसर्ग से उत्पन्न हुआ है, कामेच्छा के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं है।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।

मोहाद्‍गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कभी न तृप्त होने वाली काम-वासनाओं के अधीन, झूठी मान-प्रतिष्ठा के अहंकार से युक्त, मोहग्रस्त होकर ज़ड़ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये अपवित्र संकल्प धारण किये रहते हैं।

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥ 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य जीवन के अन्तिम समय तक असंख्य चिन्ताओं के आधीन रहते हैं उनके जीवन का परम-लक्ष्य केवल इन्द्रियतृप्ति के लिये ही निश्चित रहता है।

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन अन्य शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, मैं ही भगवान हूँ, मैं ही समस्त ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, मैं ही सबसे शक्तिशाली हूँ, और मैं ही सबसे सुखी हूँ। 

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि मैं सबसे धनी हूँ, मेरा सम्बन्ध बड़े कुलीन परिवार से है, मेरे समान अन्य कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस प्रकार मैं जीवन का मजा लूँगा, इस प्रकार आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य अज्ञानवश मोहग्रस्त रहते हैं।

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अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ 

अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर मोह रूपी जाल से बँधे हुए इन्द्रिय-विषयभोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य महान्‌ अपवित्र नरक में गिर जाते हैं।

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌ ।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ 

आसुरी स्वभाव वाले क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऐसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूँ। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं— हे अर्जुन ! समझदार व्यक्ति वह है जो अपना उद्धार करने के लिए दैवी संपत्ति का आश्रय और आसुरी संपत्ति का त्याग कर देता है। 

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌ ॥ 

हे अर्जुन! जीवात्मा का विनाश करने वाले "काम, क्रोध और लोभ" ये तीन प्रकार के द्वार मनुष्य को नरक में ले जाने वाले हैं, इसलिये इन तीनों को त्याग देना चाहिए। 

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌ ॥ 

हे कुन्तीपुत्र! जो मनुष्य इन तीनों अज्ञान रूपी नरक के द्वारों से मुक्त हो जाता है, वह मनुष्य अपनी आत्मा के लिये कल्याणकारी कर्म का आचरण करता हुआ परम-गति को प्राप्त हो जाता है।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ॥ 

जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता रहता है, वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है। 

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ 

हे अर्जुन! मनुष्य को क्या कर्म करना चाहिये और क्या कर्म नहीं करना चाहिये इसके लिये शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण होता है, इसलिये तुझे इस संसार में शास्त्र की विधि को जानकर ही कर्म करना चाहिये। 

श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु--------

जय श्री कृष्ण----------

-आरएन तिवारी

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