Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-10

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । Apr 26 2024 4:31PM

किसी भी कार्य को करने से पहले उसके प्रयोजन को समझ लेना चाहिये। खूब सोच-विचारकर काम करना चाहिये, जल्दबाजी से किसी काम का आरम्भ नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार अच्छे उपायों का उपयोग करके सावधानी के साथ किया गया कोई कर्म यदि सफल न हो तो भी बुद्धिमान् पुरुष को उसके लिये मन में ग्लानि नहीं करनी चाहिये।

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें। 

प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –

शुभं वा यदि वा पापं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियम् ।

अपृष्टस्तस्य तद्ब्रूयाद्यस्य नेच्छेत्पराभवम् ॥ 

विदुरजी, महाराज धृतराष्ट्र से कहते हैं—  हे राजन ! हम जिस व्यक्ति का कल्याण चाहते हैं, उसको समय-समय पर उसके कल्याण और अनिष्ट करने वाली बातों से अवगत कराते रहना चाहिए।

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तस्माद्वक्ष्यामि ते राजन्भवमिच्छन्कुरून्प्रति ।

वचः श्रेयः करं धर्म्यं ब्रुवतस्तन्निबोध मे ॥ 

इसलिये हे राजन् ! जिस बात से समस्त कौरवों का हित हो, वही बात आपसे कहूँगा। मैं जो कल्याणकारी एवं धर्मयुक्त वचन कह रहा हूँ, उन्हें आप ध्यान देकर सुनें- ॥ 

मिथ्योपेतानि कर्माणि सिध्येयुर्यानि भारत ।

अनुपाय प्रयुक्तानि मा स्म तेषु मनः कृथाः ॥ ६ ॥

असत् और कपटपूर्ण उपायों (जूआ आदि) का प्रयोग करके कार्य सिद्ध करने का विचार अपने मन में मत लाइए ॥।

तथैव योगविहितं न सिध्येत्कर्म यन्नृप ।

उपाययुक्तं मेधावी न तत्र ग्लपयेन्मनः ॥ 

इसी प्रकार अच्छे उपायों का उपयोग करके सावधानी के साथ किया गया कोई कर्म यदि सफल न हो तो भी बुद्धिमान् पुरुष को उसके लिये मन में ग्लानि नहीं करनी चाहिये।। 

अनुबन्धानवेक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु ।

सम्प्रधार्य च कुर्वीत न वेगेन समाचरेत् ॥

किसी भी कार्य को करने से पहले उसके प्रयोजन को समझ लेना चाहिये। खूब सोच-विचारकर काम करना चाहिये, जल्दबाजी से किसी काम का आरम्भ नहीं करना चाहिये ॥ 

अनुबन्धं च सम्प्रेक्ष्य विपाकांश्चैव कर्मणाम् ।

उत्थानमात्मनश्चैव धीरः कुर्वीत वा न वा ॥ 

धीर मनुष्य को उचित है कि पहले कर्मों के प्रयोजन, परिणाम तथा अपनी उन्नति का विचार करके फिर काम आरम्भ करे या न करे ॥ 

यः प्रमाणं न जानाति स्थाने वृद्धौ तथा क्षये ।

कोशे जनपदे दण्डे न स राज्यावतिष्ठते ॥ 

जो राजा स्थिति, लाभ, हानि, खजाना, देश तथा दण्ड आदि की मात्रा को नहीं जानता, वह राज्य पद पर स्थित नहीं रह सकता॥ 

यस्त्वेतानि प्रमाणानि यथोक्तान्यनुपश्यति ।

युक्तो धर्मार्थयोर्ज्ञाने स राज्यमधिगच्छति ॥ 

जो इनके प्रमाणों को ठीक-ठीक जानता है तथा धर्म और अर्थके ज्ञान में दत्तचित्त रहता है, वह राज्य को प्राप्त करता है ॥ 

न राज्यं प्राप्तमित्येव वर्तितव्यमसाम्प्रतम् ।

श्रियं ह्यविनयो हन्ति जरा रूपमिवोत्तमम् ॥ १२ ॥

अब तो राज्य प्राप्त हो ही गया'- ऐसा समझकर अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिये। उद्दंडता धन सम्पत्ति को उसी प्रकार नष्ट कर देती है, जैसे सुन्दर रूप को बुढ़ापा ॥ 

भक्ष्योत्तम प्रतिच्छन्नं मत्स्यो बडिशमायसम् ।

रूपाभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते ॥ 

मछली बढ़िया चारे से ढकी हुई लोहे की काँटी को लोभ में पड़कर निगल जाती है, उससे होने वाले परिणाम पर विचार नहीं करती॥ 

यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत् ।

हितं च परिणामे यत्तदद्यं भूतिमिच्छता ॥ 

अतः अपनी उन्नति चाहने वाले पुरुष को वही वस्तु खानी (या ग्रहण करनी) चाहिये, जो खाने योग्य हो तथा खायी जा सके, खाने (या ग्रहण करने) पर पच सके और पच जाने पर हितकारी हो । 

वनस्पतेरपक्वानि फलानि प्रचिनोति यः ।

स नाप्नोति रसं तेभ्यो बीजं चास्य विनश्यति ॥ 

जो पेड़ से कच्चे फलों को तोड़ता है, वह उन फलो से रस तो पाता नहीं; उलटे उस वृक्ष के बीज का नाश होता है।। 

यस्तु पक्वमुपादत्ते काले परिणतं फलम् ।

फलाद्रसं स लभते बीजाच्चैव फलं पुनः ॥ 

परन्तु जो समय पर पके हुए फल को ग्रहण करता है, वह फलसे रस पाता है और उस बीज से पुनः फल प्राप्त करता है । 

यथा मधु समादत्ते रक्षन्पुष्पाणि षट्पदः ।

तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया ॥ 

जैसे भौरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके मधु का आस्वादन करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजा जनों को कष्ट दिये बिना ही उनसे धन ले ।।

पुष्पं पुष्पं विचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत् ।

मालाकार इवारामे न यथाङ्गारकारकः ॥ 

जैसे माली बगीचे में एक-एक फूल तोड़ता है, उसकी जड़ नहीं काटता, उसी प्रकार राजा प्रजा की रक्षा-पूर्वक उनसे कर ले । कोयला बनाने वाले की तरह जड़ नहीं काटनी चाहिये॥ 

किं नु मे स्यादिदं कृत्वा किं नु मे स्यादकुर्वतः ।

इति कर्माणि सञ्चिन्त्य कुर्याद्वा पुरुषो न वा ॥ 

इसे करनेसे मेरा क्या लाभ होगा और न करने से क्या हानि होगी- इस प्रकार कर्म के विषयमें भली-भाँति विचार करके फिर मनुष्य करे या न करे ।। 

अनारभ्या भवन्त्यर्थाः के चिन्नित्यं तथागताः ।

कृतः पुरुषकारोऽपि भवेद्येषु निरर्थकः ॥ 

कुछ ऐसे व्यर्थ कार्य हैं, जो आप्राप्त होने के कारण आरम्भ करने योग्य नहीं होते। उनके लिये किया हुआ पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जाता है। 

प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः । 

न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव स्त्रियः ॥ 

जिसकी प्रसन्नता और क्रोध का कोई प्रभाव न पड़े, उसको प्रजा स्वामी बनाना नहीं चाहती-जैसे कोई भी स्त्री नपुंसक को अपना पति नहीं बनाना चाहती है ॥ 

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।

- आरएन तिवारी

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