Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-9

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । Apr 19 2024 4:19PM

जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता, व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरुषों के साथ मेल जोल नहीं रखता, और सद्गुणी व्यक्ति को आगे करके अपना काम करता है, उसको श्रेष्ठ विद्वान की श्रेणी में रखना चाहिए। ऐसी नीति कहती है।

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें।

प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –

विदुर जी कहते हैं --- हे राजन् ! 

दमं शौचं दैवतं मङ्गलानि प्रायश्चित्तं विविधाँल्लोकवादान् ।

एतानि यः कुरुते नैत्यकानि तस्योत्थानं देवता राधयन्ति ॥ 

जो व्यक्ति नियमित रूप से दान, होम, देवपूजन, माङ्गलिक कर्म तथा अशुभ की निवृत्ति के लिए प्रायश्चित करता रहता है और लोक के अनुसार आचरण करता है , देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि के लिए सदा तत्पर रहते ते हैं । 

समैर्विवाहं कुरुते न हीनैः समैः सख्यं व्यवहारं कथाश्च ।

गुणैर्विशिष्टांश्च पुरो दधाति विपश्चितस्तस्य नयाः सुनीताः ॥ 

जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता, व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरुषों के साथ मेल जोल नहीं रखता, और सद्गुणी व्यक्ति को आगे करके अपना काम करता है, उसको श्रेष्ठ विद्वान की श्रेणी में रखना चाहिए। ऐसी नीति कहती है। 

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मितं भुङ्क्ते संविभज्याश्रितेभ्यो मितं स्वपित्यमितं कर्मकृत्वा ।

ददात्यमित्रेष्वपि याचितः सं- स्तमात्मवन्तं प्रजहात्यनर्थाः ॥ 

जो अपने आश्रितजनों में मिल-बाँटकर खाता है और थोड़े भोजन में संतुष्ट हो जाता है , बहुत अधिक परिश्रम करके भी थोड़ा सोता है तथा माँगने पर जो मित्र नहीं है, उसे भी धन देता है, उस मनस्वी पुरुष का कभी कोई अनर्थ नहीं कर सकता ॥ 

यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः सत्यो मृदुर्दानकृच्छुद्ध भावः ।

अतीव सञ्ज्ञायते ज्ञातिमध्ये महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः ॥ 

जो मनुष्य सम्पूर्ण भूतों को शान्ति प्रदान करने में तत्पर, सत्यवादी, कोमल, दूसरों को आदर देने वाला तथा पवित्र विचार वाला होता है, वह अच्छी: खान से निकले और चमकते हुए श्रेष्ठ रल्न की भाँति अपनी जाति वालो में अधिक प्रसिद्धि पाता है।। 

य आत्मनापत्रपते भृशं नरः स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत ।

अनन्त तेजाः सुमनाः समाहितः स्वतेजसा सूर्य इवावभासते ॥ 

जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है, वह अपने अनन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रता से युक्त होनेके कारण कान्ति में सूर्य के समान शोभा पाता है और 

वह सब लोगों में श्रेष्ठ समझा जाता है ॥

वने जाताः शापदग्धस्य राज्ञः पाण्डोः पुत्राः पञ्च पञ्चेन्द्र कल्पाः ।

त्वयैव बाला वर्धिताः शिक्षिताश्च तवादेशं पालयन्त्याम्बिकेय ॥ १२७ ॥

हे अम्बिकानन्दन ! शाप से दग्ध राजा पाण्डुके जो पाँच पुत्र वन में उत्पन्न हुए, वे पांचों इन्द्रो के समान शक्तिशाली हैं, उनका पालन-पोषण भी आपने ही किया है, शिक्षा-दीक्षा भी दी है, वे भी सदा आपकी आज्ञा का पालन करते रहते हैं। फिर आप उनके साथ अन्याय पूर्ण व्यवहार क्यों कर रहे हैं। 

प्रदायैषामुचितं तात राज्यं सुखी पुत्रैः सहितो मोदमानः ।

न देवानां नापि च मानुषाणां भविष्यसि त्वं तर्कणीयो नरेन्द्र ॥ 

हे तात ! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रो के साथ आनन्द भोगिये। नरेन्द्र ! ऐसा करने पर आप दोष के भागी नहीं होंगे और देवता या मनुष्यों की टीका-टिप्पणी के विषय भी नहीं रह जाएंगे ।। 

प्रभासाक्षी के पाठको ! महात्मा विदुरजी की नीतिपूर्ण बातें सुनकर महाराज धृतराष्ट्र का हृदय चिंताग्नि में और जल उठा। उन्होने स्वयं को संभालते हुए आर्त स्वर में कहा--- 

धृतराष्ट्र उवाच ।

जाग्रतो दह्यमानस्य यत्कार्यमनुपश्यसि ।

तद्ब्रूहि त्वं हि नस्तात धर्मार्थकुशलः शुचिः ॥

धृतराष्ट्र बोले- हे तात ! मैं अभी भी चिन्ता में जल रहा हूँ। सयन करना चाहता हूँ किन्तु सयन कर नहीं पा रहा हूँ । मेरा चित्त अत्यंत उद्विग्न है  अभी तक जाग रहा हूँ, तुम मेरे करने योग्य जो कार्य समझो, उसे बताओ; क्योंकि हम सभी लोगों में तुम्हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में पूरी तरह से निपुण हो ॥ 

त्वं मां यथावद्विदुर प्रशाधि प्रज्ञा पूर्वं सर्वमजातशत्रोः ।

यन्मन्यसे पथ्यमदीनसत्त्व श्रेयः करं ब्रूहि तद्वै कुरूणाम् ॥ 

उदारचित्त विदुर ! तुम अपनी बुद्धि से विचारकर मुझे ठीक-ठीक उपदेश करो। जो बात युधिष्ठिर के लिये हितकर और कौरवों के लिये कल्याणकारी समझो, वह सब अवश्य बताओ ॥ 

पापाशङ्गी पापमेव नौपश्यन् पृच्छामि त्वां व्याकुलेनात्मनाहम् ।

कवे तन्मे ब्रूहि सर्वं यथावन् मनीषितं सर्वमजातशत्रोः ॥ 

विद्वन् ! मेरे मनमें अनिष्ट की आशङ्का बनी रहती है, इसलिये मैं सर्वत्र अनिष्ट ही देखता हूँ, अतः व्याकुल हृदय से मैं तुमसे पूछ रहा हूँ अजातशत्रु युधिष्ठिर क्या चाहते हैं ? वो सब ठीक-ठीक बताओ ।। 

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 

- आरएन तिवारी

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