Gyan Ganga: आखिर ऐसा क्या हो गया था जो सुग्रीव प्रभु श्रीराम को ही उपदेश देने लगे थे?

lord rama
सुखी भारती । Feb 18 2021 6:08PM

श्रीराम जी की हँसी क्यों प्रस्फुटित हुई अब इस पर विषय पर विवेचना तो आवश्यक प्रतीत होती है। श्रीराम जी इसलिए हँस देते हैं कि सुग्रीव कितना नादान-सा है। कुछ ही समय पहले जिसे अपने जीवन के क्रिया−कलापों की समझ नहीं आ रही थी, कि उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं?

श्री हनुमान जी के पुनीत भावों के चलते सुग्रीव आज श्रीराम जी के पावन चरणों में है। सुग्रीव के भाव कड़वी तुमड़ी से मीठे शहद तक की यात्रा करते हैं। कहो तो उसे श्रीराम बाली के द्वारा उसे मारने वाले प्रतीत हो रहे थे। कहाँ आज प्रभु बालि को ही मारने वाले पात्रा में सुशोभित हो उठे। विगत अंक के भावों की लड़ी को जोड़ें तो हम पाते हैं कि श्रीराम का बल व सामर्थ्य जानने के पश्चात् सुग्रीव के भीतर वैराग्य की धूनी जग उठी। श्रद्धा सातवें आसमां पर जा बिराजी। और सुग्रीव श्रीराम को माया व जगत की नश्वरता पर बड़े−बड़े व्याख्यान सुनाने लगा। और इन्हीं प्रवचनों के प्रवाह में सुग्रीव एक विलक्षण व अपच-सी पैदा करने वाली बात कह देता है−

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अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। 

सब तजि भजनु करौं दिन राती।।

सुग्रीव जो अब तक इसे ही कृपा समझ रहा था कि संसार का मिलना बहुत बड़ी कृपा है। अचानक कह उठा कि प्रभु अब मुझ पर आप कुछ इस प्रकार से कृपा करें कि मैं सारी मोह माया त्याग कर केवल आज आपका भजन करूँ। निःसंदेह सुग्रीव यहाँ बात तो बड़ी ज्ञान व वैराग्य की कर रहा है। और श्रीराम को यहाँ सुंदर आध्यात्मिक अवस्था दिखनी भी चाहिए थी। लेकिन श्रीराम जी की तो उल्टा हँसी ही निकल गई−

सुनि बिराग संजुत कपि बानी। 

बोले बिहँसि रामु धनुपानी।।

श्रीराम जी की हँसी क्यों प्रस्फुटित हुई अब इस पर विषय पर विवेचना तो आवश्यक प्रतीत होती है। श्रीराम जी इसलिए हँस देते हैं कि सुग्रीव कितना नादान-सा है। कुछ ही समय पहले जिसे अपने जीवन के क्रिया−कलापों की समझ नहीं आ रही थी, कि उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं? वही सुग्रीव अब मुझे यह तक समझाने की समझ रख रहा है, कि कृपा बेशक मुझे करनी है। लेकिन कब और कैसे करनी है? इसका दिशा निर्देश भी अब मुझे सुग्रीव ही देगा− 'अब प्रभु कृपा करहु इहि भाँति' इसका यही तो अर्थ हुआ न कि तुम मुझे कृपा करने के तौर तरीके समझाने चले हो। यह देख मुझे हँसी नहीं आएगी तो और क्या होगा? क्योंकि किसी पर कृपा कब और क्यों करनी चाहिए, यह विषय और चिंतन जीव का थोड़ी होता है। यह तो बस प्रभु का मन है, वे चाहें तो किसी कौवे से गरूड़ को भी उपदेश दिलवा देते हैं। और प्रभु न चाहें तो गरूड़ भी एक शुद्र पतंगे की मामूली उड़ान से भी पराजित हो जाता है। गुरबाणी में भी गुरु साहिबान फरमान करते हैं−

किआ हँसु किआ बगुला जा कउ नदरि करेइ।।

जो तिसु भावै नानका कागहु हँसु करेइ।।

जीव को कब और क्या चाहिए यह उसको थोड़ी भान होता है। जीव जिसमें अपना कल्याण समझता है हो सकता है कि उसी में उसका अहित छुपा हो। संसार में कौन जीव दुखों की चाहना व प्राप्ति का प्रयास करता है। सांसारिक सभी अपने समस्त क्रियाकलाप मात्र सुख को केन्द्र बिंदु मानकर ही तो करते हैं। लेकिन फिर भी क्यों संसार में अधिकांश जीव दुःखी हैं। यद्यपि दुःख प्राप्ति का तो उन्होंने प्रयास ही नहीं किया−

यतन बहुत सुख के किए। दुःख का किया न कोय।

तुलसी यह असचरज है अधिक−अधिक दुःख होय।।

अर्जुन तो चाह रहा है कि कुरूक्षेत्र का युद्ध न हो। मेरे सभी सगे−संबंधी जीवित रहें, कहीं कोई रक्तपात न हो। लेकिन सुंदर से दिखने वाले अर्जुन के इन सुंदर भावों को क्या श्री कृष्ण जी ने माना? नहीं न! अपितु यही कहा कि अर्जुन तू अपनी मन−बुद्धि का त्याग कर दे। क्योंकि तू वास्तव में कुछ जानता ही नहीं। तुम संसार में स्वयं से जुड़ी जीवन की एक सीमित-सी काल परिधि के बारे में ही सोच रहे हो। यद्यपि तुम अनभिज्ञ हो कि आज से पहले तुम्हारे और मेरे एक नहीं अपितु असंख्य जन्म हो चुके हैं। तुम्हें उन सबका विस्मरण हो चुका है और मुझे सब कुछ याद है−

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बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।। (4/5)

तुम्हें लग रहा है कि अपनों के वध का तुम्हें पाप लगेगा। पाप पुण्य के इन्द्रजाल में तुम पूर्णतः उलझ चुके हो। तुम्हारा चिंतन तो केवल इसी जन्म के अनुभव पर आधरित है। यद्यपि मैं तो सब के असंख्य जन्मों के लेखे−जोखे को जानता हूँ। और उसी आधार पर मुझे निर्णय करना होता है कि किसे मृत्यु देनी है और किसे जीवनदान। इसलिए मुझे व्यर्थ में यह निर्देश मत करो कि मुझे कैसे और क्या करना है? अपितु तू वह कर जो मैं तुझे आदेश दे रहा हूँ। तू मेरे हाथों का यंत्र बन, सुख, दुःख, लाभ−हानि, जय−पराजय इन सबमें सम रहता हुआ युद्ध को तत्पर हो। निश्चित है कि पाप तुम्हें छूएगा भी नहीं−

सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।। (2/38)

श्री कृष्ण अर्जुन को अनेकों तर्कों व सिद्धांतों से समझा रहे हैं। और अर्जुन है कि प्रभु पर अपने ही सिद्धांत थोपने पर अड़ा हुआ है। जब तक अर्जुन यूं ही अड़ा रहा हम देखते हैं कि अर्जुन का मोह भंग नहीं हुआ। उल्टा मन में विचलता व असमंजस की स्थिति बढ़ती गई। लेकिन जैसे ही अर्जुन ने अपने आधारहीन विचार श्री कृष्ण को देने बंद किए। और उनके आदेश की पालना व अनुसरण धरण किया तो श्री कृष्ण उसे तत्काल परम योग विद्या प्रदान करते हैं। और अर्जुन का मोह भंग होता है। उसी क्षण अर्जुन अपना गांडीव उठा युद्ध को तत्पर हो महान यश व कीर्ति को प्राप्त होता है। 

ठीक इसी प्रकार श्रीराम जी भी सुग्रीव को यश व कीर्ति प्रदान करना चाहते हैं। बालि के वध व सुग्रीव को किष्किंधा नरेश बनाने का वचन भी दे चुके हैं। और सुग्रीव हैं कि अर्जुन की तरह अपने ही मनगढ़ंत सिद्धांत पर अड़ गए। और प्रभु को ही समझाने लगे हुए हैं कि प्रभु आप तो बस यही कृपा करो कि मैं सब छोड़ कर मात्र आपकी भक्ति करूँ।  

लेकिन क्या प्रभु सुग्रीव के कहने अनुसार चलते हैं अथवा नहीं जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम

-सुखी भारती

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