दोस्ती निभाने के इम्तिहान में फेल हो गये अखिलेश यादव

Akhilesh Yadav failed in the test of friendship
आशीष वशिष्ठ । Mar 24 2018 1:20PM

उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के लिए हुए चुनाव में बीजेपी ने बसपा और सपा की नयी नवेली दोस्ती को जोर से झटका देने का काम किया है। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में हार के झटके के बाद बीजेपी के लिए राज्यसभा चुनाव के नतीजे राहत का सबब माने जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के लिए हुए चुनाव में बीजेपी ने बसपा और सपा की नयी नवेली दोस्ती को जोर से झटका देने का काम किया है। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में हार के झटके के बाद बीजेपी के लिए राज्यसभा चुनाव के नतीजे राहत का सबब माने जा रहे हैं। बसपा ने सपा, कांग्रेस और रालोद विधायकों के भरोसे अपना प्रत्याशी मैदान में उतारा था। बीजेपी को आठ सीटें मिलना तो पहले से तय था। वहीं सपा की भी एक सीट पक्की थी। 10वीं सीट के लिए ही पूरा महाभारत हुआ था। यहां बीजेपी के अनिल अग्रवाल और बसपा के भीमराव अंबेडकर में खिताबी मुकाबला था। क्रॉस वोटिंग और विधायकों के पाला बदलने की वजह से बसपा के उम्मीदवार भीमराव आंबेडकर सीधे निर्वाचन के लिए जरूरी 37 वोट नहीं जुटा पाए। इस हार के बाद सपा बसपा की दोस्ती फिर एक बार चौराहे पर खड़ी दिख रही है। जहां दोनों दल हार व कमी-बेशी भुलाकर दोस्ती कायम भी रख सकते हैं, और चाहे तो नया रास्ता भी चुन सकते हैं। 

पिछले कई दिनों से सूबे के राजनीति गलियारों में यह सवाल चर्चा में था कि, बसपा ने सपा के पक्ष में वोटों का ट्रांसफर कराकर उसको गोरखपुर व फूलपुर में जिता दिया लेकिन बदले में सपा क्या बसपा के एक प्रत्याशी को राज्यसभा पहुंचाने में कामयाब हो पाएगी? बसपा प्रत्याशी की हार के बाद यह सवाल अहम हो जाता है कि क्या सपा-बसपा के संभावित गठबंधन पर विराम लग जाएगा? सवाल यह भी है कि सपा बसपा को रिटर्न गिफ्ट देने में नाकाम क्यों रही? क्या बसपा इस हार के बाद नये दोस्तों को तलाशेगी? क्या बसपा समर्थन या गठबंधन की बजाय अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरेगी? क्या निकट समय में कैराना लोकसभा उपचुनाव में गोरखपुर और फूलपुर वाली दोस्ती नजर आएगी? चुनाव में जीत हार लगी रहती है। लेकिन राज्यसभा चुनाव में एक सीट का नहीं बसपा और सपा की दोस्ती का इम्तिहान था, जिसमें साफ तौर पर सपा दोस्ती निभाने में नाकामयाब रही। 

असल में गोरखपुर और फूलपुर में सपा-बसपा तालमेल की बदौलत बीजेपी की हार के बाद इन दोनों पार्टियों के बीच आगामी आम चुनावों में गठबंधन के कयास लगाए जा रहे थे। हालांकि बसपा सुप्रीमो मायावती ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उपचुनाव और राज्यसभा चुनावों तक ही फिलहाल यह तालमेल है। कहा जा रहा था कि अगर सपा बसपा के एक प्रत्याशी को राज्यसभा पहुंचाने में कामयाब हो जाती है तो आगे दोस्ती की बात परवान चढ़ेगी। लेकिन अब ऐसा नहीं ऐसा नहीं हो पाया है इसलिए सपा-बसपा की दोस्ती पर सवालिया उंगुलियां उठनी शुरू हो गई हैं। 

लोकसभा उपचुनाव में पटखनी खाने के बाद बीजेपी को इस बात का बखूबी इल्म है कि आगामी चुनावों में दोनों दल एक साथ आ गए तो यूपी में उसको बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। वह यह भी जानती है कि बसपा के लिए यह राज्यसभा सीट प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई है और इसमें जीत के बाद ही सपा-बसपा गठबंधन की राह आसान होगी। ऐसे में वह किसी भी सूरत में इस 10वीं सीट को आसानी से सपा-बसपा के हाथ में नहीं जाने देना चाहती थी। और बीजेपी अपने मंसूबों में कामयाब रही। राज्यसभा चुनाव में शानदार जीत के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रणनीति के तहत बयान दिया कि, समाजवादी पार्टी का अवसरवादी चेहरा एक बार फिर प्रदेश की जनता ने देखा है कि कैसे वह दूसरों से ले तो सकती है लेकिन दे नहीं सकती। बीजेपी चाहती है कि किसी भी सूरत में सपा और बसपा एक साथ कदमताल न करें। 

वैसे आम तौर पर राज्यसभा चुनाव को लेकर उतनी चर्चा नहीं होती क्योंकि नतीजे पहले से लगभग तय होते हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के लिए खासकर उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की नौंवी सीट जीतना साख का सवाल था। पिछले साल गुजरात की एक राज्यसभा सीट के लिए चुनावी दंगल तो याद ही होगा, इसी तर्ज पर उप्र में भी एक सीट के लिए जोड़-तोड़ और सारे हथकंडे बीजेपी ने अपनाये। गुजरात की तरह यूपी में भी हाई वोल्टेज ड्रामे की पूरी उम्मीद थी। गुजरात में कांग्रेस के अहमद पटेल ने जीत दर्ज की थी लेकिन उत्तर प्रदेश में मायावती ये कमाल नहीं कर पाईं और बीजेपी ने विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार को पटखनी देकर उपचुनाव की हार बदला लिया। साथ ही बीजेपी ने नौंवी सीट जीतकर सपा-बसपा की दोस्ती को फ्रैक्चर करने का काम किया। 

वास्तव में राज्यसभा चुनाव एक फ्रेंडली मैच की तरह होता है जिसमें जीत हार का पहले से अंदाजा होता है। लेकिन बीजेपी ने इसे भी रोमांचक बना दिया। एक-एक विधायक के लिए जोड़-तोड़ और गुणा-गणित लगा रहता है। दरअसल, अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा ने आक्रामक राजनीति का रुख अख्तियार किया है। अमित शाह की पूरी कोशिश विपक्ष का राजनीतिक बल कम करने के साथ-साथ मनोबल गिराने की भी होती है। वो हर छोटे-बड़े चुनाव में जीत के लिए अतिरिक्त प्रयास करते हैं। 

उपचुनाव में अपने वोटों को सपा के पक्ष में ट्रांसफर कराकर मायावती ने सपा उम्मीदवार को जिता दिया और भाजपा की 30 सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया, तो मायावती भी इसके बदले में सपा से राज्यसभा उम्मीदवार को संसद में देखना चाहती थीं। बसपा उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर इसी की आस लगाए बैठे थे। राज्यसभा चुनाव में मायावती के भाई बसपा उपाध्यक्ष का नाम राज्यसभा के लिए चल रहा था। मायावती का अनहोनी की आशंका शायद पहले से थी। इसलिए उन्होंने अपने भाई को मैदान में नहीं उतारा। भीमराव अंबेडकर चुनाव हार गये हैं। दोस्ती के इम्तिहान में सपा फेल साबित हुई है। ज्यादा संभावना इस बात की है कि गठबंधन यहीं पर समाप्त हो जाए।

उपचुनाव में करारी हार के बाद बीजेपी का यह प्रयास है कि सपा-बसपा का गठबंधन कायम न रहे। आम चुनावों में अगर यह गठबंधन बरकरार रहता है तो यह भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगा। राज्यसभा चुनाव में बसपा को पटखनी देकर बीजेपी ने सपा-बसपा दोनों की दोस्ती में दरार पैदा करने का काम किया है। भाजपा इस बात को अच्छी तरह से समझ रही थी कि बसपा के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बनी इस सीट पर जीत ही गठबंधन का भविष्य तय करेगी। इसलिए भाजपा ने साम-दाम-दण्ड-भेद के सहारे नौंवी सीट फतह की। 

वहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए भी यह चुनाव चिंता का बड़ा सबब था। चुनाव का पूरा दारोमदार योगी पर ही था। फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में विजय पताका लहराने वाले सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव को राज्यसभा की दसवीं सीट पर बसपा उम्मीदवार को जीत दिलाने का जबरदस्त दबाव था। अखिलेश यादव अपने विधायकों से संगठित होकर बसपा उम्मीदवार को जीत दिलाने के लिए कह चुके थे। अगर बसपा यह सीट जीतती तो इसके दूरगामी परिणाम होते। सपा बसपा के गठबंधन पर मोहर लगने की उम्मीदें बढ़ जातीं। दोनों दलों के रिश्ते और मधुर होते। मगर ऐसा हो न सका। दो लोकसभा सीट हारने के बाद भाजपा को थोड़ी राहत जरूर मिली होगी। वहीं बीजेपी को मनोवैज्ञानित बढ़त मिलना भी तय है। 

बसपा की हार में सीधे तौर पर सपा को खलनायक की भूमिका में नहीं रखा जा सकता, लेकिन हार तो हार है। इस हार ने भविष्य में गठबंधन की राजनीति पर गहरे सवाल खड़े किये हैं। ये हार बसपा को सोचने के लिये मजबूर करेगी कि उसे भविष्य में किस रास्ते पर चलना है। क्योंकि लगतार हार से पार्टी की साख के साथ ही साथ कार्यकर्ताओं व समर्थकों का मनोबल भी गिरता है। उपचुनाव में सपा को दो सीटें जिताकर बसपा को भविष्य की सुन्दर तस्वीर बनती दिख रही थी। लेकिन ये खुशी ज्यादा दिन कायम नहीं रह सकी। बसपा ने चुनाव में हार के बाद बीजेपी पर धांधली व गड़बड़ी के गंभीर आरोप लगाये हैं। चर्चा इस बात की भी है कि यूपी की कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव में बसपा उम्मीदवार उतारेगी। हो सकता है बसपा उपुचनाव में सपा से अपनी दोस्ती को परखे। राज्यसभा चुनाव में हार के बाद बसपा सपा से अपनी दोस्ती को बाय-बाय भी कह सकती है। वहीं, अगर बसपा ने हार भुलाकर दोस्ती कायम रखी तो बीजेपी की खुशी काफूर होने में वक्त नहीं लगेगा।

-आशीष वशिष्ठ

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