नीतीश केंद्रित चुनाव पर सबकी निगाह

Nitish Kumar
ANI

बिहार के चुनाव नतीजों पर केंद्र सरकार ही नहीं, मोदी की अगुआई को समर्थन दे रही तेलुगू देशम पार्टी की अगुआई वाली आंध्र प्रदेश की सरकार का भी भविष्य टिका है। अगर बिहार में एनडीए की भारी जीत होती है तो साफ है कि केंद्र में मोदी सरकार और मजबूत होगी। इसके साथ ही सरकार की उम्र पर कोई सवाल नहीं उठेगा।

बिहार इन दिनों राजनीति की दुनिया के लिए हॉट केक बना हुआ है। जिस समय ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं, राज्य के विधानसभा चुनाव के पहले दौर का मतदान खत्म हो चुका है। इस दौर में 121 सीटों के प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला ईवीएम मशीनों ने कैद हो चुका है। जिस तरह पहले दौर में ढाई दशक बाद बंपर मतदान हुआ है। राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी के मुताबिक पहले दौर में 64.64 प्रतिशत मतदाताओं ने लोकतंत्र के अपने सबसे बड़े हथियार का इस्तेमाल किया है। इसे देखते हुए माना जा रहा है कि दूसरे और अंतिम दौर में भी बिहार के वोटरों में ऐसा ही उत्साह नजर आएगा।

भारी मतदान को लेकर मान्यता रही है कि अक्सर यह सत्ता विरोधी लहर का प्रतीक होती है। इस लिहाज से तेजस्वी यादव की अगुआई वाला विरोधी महागठबंधन और उसके समर्थक बौद्धिकों की बांछें खिल उठी हैं। उनकी उम्मीदें बढ़ गई हैं कि मोदी के हरावल दस्ते को बिहार ठीक दस साल पहले की तरह इस बार भी बांध लेगा। लेकिन बंपर मतदान की प्रचलित अवधारणा के अपवाद 2010 और 2016 के पश्चिम बंगाल चुनाव हैं। जिनमें सत्ताधारी नीतीश और ममता और बड़े बहुमत से सत्ता में वापस लौटे थे। बिहार में इसकी ही संभावना ज्यादा है। अगर ऐसा ही होता है तो तय मानिए कि बिहार भी गुजरात और मध्य प्रदेश की तरह बीजेपी और एनडीए के लिए मजबूत गढ़ के रूप में उभर कर सामने आएगा।

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बिहार के चुनाव नतीजों पर केंद्र सरकार ही नहीं, मोदी की अगुआई को समर्थन दे रही तेलुगू देशम पार्टी की अगुआई वाली आंध्र प्रदेश की सरकार का भी भविष्य टिका है। अगर बिहार में एनडीए की भारी जीत होती है तो साफ है कि केंद्र में मोदी सरकार और मजबूत होगी। इसके साथ ही सरकार की उम्र पर कोई सवाल नहीं उठेगा। केंद्र की बीजेपी की अगुआई वाली सरकार को एक तरफ से नीतीश के नेतृत्व वाला जनता दल यू थामे है तो दूसरी तरफ से एन चंद्रबाबू नायडू का तेलुगू देशम। तेलुगू देशम और एन चंद्रबाबू की राजनीति स्पष्ट है। उनकी सारी कामयाबियां और कार्य व्यापार केंद्रीय सत्ता के सहयोग से चलता है। समर्थन देने की कीमत वे वसूलना अच्छी तरह जानते हैं। अतीत में उन्होंने पहले संयुक्त मोर्चा की सरकार से कीमत वसूली, फिर वाजपेयी सरकार से भी कुछ वैसा ही नाता रखा। इस मामले में वे अनुभवी हैं। इसी अनुभव और कीमत वसूली अभियान के चलते वे राज्य को केंद्र से भरपूर आर्थिक और दूसरी मदद वसूलते रहे। उनकी साइबराबाद की कल्पना हो या फिर राज्य में विकास  की बयार बहाने का माद्दा। उन्होंने उन्हें केंद्र के सहयोग से ही पूरा किया है।

बिहार में एनडीए की जीत पर एनडीए और जनता दल यू का भविष्य भी टिका है। अगर बिहार में जीत मिलती है तो तय है कि नीतीश और बड़े कद के साथ उभरेंगे। अगर हार होती है तो फिलहाल मोदी सरकार से अलग होने का सवाल नहीं उठेगा। लेकिन देर-सवेर जनता दल यू मोदी सरकार से दूर होने के बहाने तलाशने लगेगा। उस हालत में जनता दल में ही मानने वालों की कमी नहीं रहेगी कि उसकी हार बीजेपी के ही चलते हुई है। इसकी वजह से नीतीश पर एनडीए से हटने का अंदरूनी दबाव बढ़ सकता है। लेकिन उसमें देर होगी। लेकिन खटपट की आशंका बढ़ती जाएगी।

बिहार में विधानसभा चुनाव के आंकड़ों का निष्कर्ष तो बाद में आएगा। लेकिन पहले दौर के जिस तरह के नजारे दिखे हैं, उसमें लगा कि महिलाओं ने बढ़-चढ़कर वोटिंग में हिस्सेदारी की है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी महिलाओं ने पुरूषों की तुलना में ज्यादा वोटिंग की थी। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, 2020 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 59.6 रहा, जो पुरुषों के 54.7 से करीब 5 प्रतिशत ज्यादा था। इस बार भी जिस तरह मतदान केंद्र पर महिलाओं की लाइनें लगी थीं, उससे लगता है कि बिहार का चुनावी परिदृश्य यह इतिहास फिर से दोहराने जा रहा है। इसकी वजह माना जा रहा है, नीतीश सरकार द्वारा ऐन चुनावों से ठीक पहले महिलाओं को दस-दस हजार रूपए की आर्थिक सहायता देना। वैसे बिहार में विधवाओं को 11 सौ रूपए का मासिक पेंशन भी मिलती है। बिहार जैसे लोक अभावग्रस्त राज्य में यह रकम बड़ी सहारा बनती है। इसलिए महिलाएं इस बार खुलेआम नीतीश सरकार के पक्ष में दिखीं।

बिहार वैसे तो जातिवादी राजनीति के लिए बदनाम रहा है। लेकिन उसे बदनाम करने वाले राज्य भी जातीय गोलबंदी की राजनीति से अछूते नहीं हैं। हर राज्य में अपने-अपने जातीय समूह हैं और उनकी अपनी गोलबंदी है। हर राजनीतिक दल इन जातीय समूहों का टिकट वितरण में ध्यान रखता रहा है। बहरहाल इस बार जातीय गोलबंदी और मुद्दों से इतर बिहार के चुनाव को ले जाने की कोशिश चुनाव रणनीतिकार और सलाहकार से राजनेता बने प्रशांत किशोर ने की। उनकी सक्रियता से लगा कि एकबारगी चुनाव इसी पैटर्न पर जाएगा। पढ़े-लिखे लोगों में इसका असर भी दिखा। लेकिन आखिरकार बिहार का चुनाव अपने पारंपरिक जातीय गोलबंदी और धार्मिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित होता चला गया। प्रशांत ने परिवारवाद का भी मुद्दा उछाला। उसे ठीकठाक जन समर्थन भी मिला। वैसे परिवारवाद के केंद्र में लालू परिवार सबसे ज्यादा है। हालांकि लालू परिवार के बड़े चिराग तेज प्रताप को अलग कर दिया गया है। तेजप्रताप जनशक्ति जनता दल के नाम से अलग दल बनाकर लड़ रहे हैं। वैशाली जिले की महुआ विधानसभा सीट से वे खुद उम्मीदवार हैं। ऐसा माना जा रहा है कि वे जीत सकते हैं। वैसे तेजप्रताप के जो इंटरव्यू सामने आए हैं, उससे उनकी छवि परिपक्व नेता की बनकर उभरी है। 

इस चुनाव में भी बिहार के सीमांचल के जिलों में असदुद्दीन ओबैसी की पार्टी जोरशोर से जुटी हुई है। मुस्लिम बहुल सीमांचल में ओबैसी की सभाओं में भीड़ खूब जुट भी रही है। इस बार भी लगता है कि सीमांचल में उनकी पार्टी अपनी ताकत दिखाने में सफल रहेगी। इस बार के चुनाव में चिराग पासवान एनडीए के साथ हैं। पिछली बार वे नीतीश के विरोध में हर जगह मैदान में थे। उनके प्रत्याशियों को करीब 23 लाख वोट मिले थे। जिसकी वजह से माना गया कि नीतीश की स्थिति कमजोर हुई और उनकी पार्टी को 43 सीटों पर सिमटना पड़ा। चिराग इस बार नीतीश की अगुआई का जाप कर रहे हैं। वैसे तो चुनाव परिणाम बताएंगे कि वे कमजोर रहते हैं या फिर ठीकठाक प्रदर्शन कर पाते हैं। वैसे उनके 29 प्रत्याशी मैदान में हैं।

बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों को लग रहा था कि महागठबंधन इस बार सत्ता नीतीश से छीन सकता है। अगस्त में चली प्रदेश व्यापी वोटर अधिकार यात्रा में उमड़ी भीड़ के बाद इस धारणा को मजबूती मिली थी। राहुल गांधी को पहली बार किसी गैर कांग्रेसी नेता ने इसी यात्रा में अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया था। वे नेता तेजस्वी रहे। लेकिन आखिर में जिस तरह सीट बंटवारे को लेकर कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और मुकेश सहनी की विकासशील इन्सान पार्टी के बीच जिस तरह खींचतान हुई, जिस तरह दरभंगा की गौराबौड़ाम सीट से मुकेश सहनी को अपने भाई संतोष साहनी की उम्मीदवारी राजद उम्मीदवार के पक्ष में वापस लेना पड़ा, उससे महागठबंधन की फजीहत ही हुई है। 

महागठबंधन में करीब एक दर्जन सीटों पर जारी दोस्ताना लड़ाई से आखिरकार उसे ही नुकसान होता दिख रहा है। इस चुनाव में बाहुबलियों की उपस्थिति को लेकर भी खूब राजनीति हुई। इस चुनाव ने साबित किया है कि बाहुबली और बिहार का चुनाव एक-दूसरे के पूरक हैं। 

बिहार में अगर सत्ता बदलती है तो तय है कि उसकी सूत्रधार महिलाएं होंगी और अगर सत्ता बचती है तो उसका भी दारोमदार महिलाओं पर ही होगा। तब माना जाएगा कि महिलाओं को आर्थिक सहायता, शराबबंदी और महिला सुरक्षा का मुद्दा कामयाब रहा। वैसे भारतीय मतदाता भावुक भी है। उसे पता है कि नीतीश की यह तकरीबन आखिरी चुनावी पारी है। इस वजह से भी मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का उन्हें समर्थन मिल सकता है। हमारी संस्कृति में उदारता पूर्वक शानदार विदाई देने की परंपरा है। अगर नीतीश की अगुआई में एनडीए जीतता है तो उसकी एक बड़ी वजह यह भी मानी जाएगी। इस चुनाव की एक और खासियत है कि नीतीश ही इसके केंद्र में हैं। विपक्ष  भी उनकी ही बात कर रहा है और बीजेपी भी। जनता दल यू को तो करना ही है। विपक्ष बार-बार यह कहता है कि नतीजों के बाद बीजेपी नीतीश से सत्ता छीन लेगी। जबकि बीजेपी ही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी भी बार-बार नीतीश की अगुआई में बिहार के चुनाव की बात करते रहे हैं। बिहार चुनाव की समीक्षा तब और कहीं ज्यादा कारगर ढंग से होगी, जब नतीजे सामने आएंगे। 

- उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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