2014 से 2020 तक के चुनावों में भाजपा ने क्या खोया और क्या पाया

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आज सबसे बड़ा सवाल है कि क्या भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम का ही सहारा रह गया है? आखिर क्यों भाजपा के पास राज्यों में विश्वसनीय नामों की कमी हो गयी है कि चुनावों में मोदी के नाम और मोदी के काम का ही सहारा लेना पड़ रहा है।

विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा जितनी तेजी से भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर छाई थी उतनी तेजी से सिमटती भी जा रही है। 2014 में केंद्र की सत्ता में आने से पहले भाजपा मात्र 7 राज्यों में सत्ता में थी लेकिन देश में मोदी सरकार बनने के बाद से भाजपा का विजय रथ इतनी तेजी से दौड़ा कि मार्च 2018 तक देश के 21 राज्यों में भाजपा की सरकारें बन गयीं और देश की 70 प्रतिशत आबादी पर भाजपा का शासन था लेकिन जल्द ही भाजपा के हाथ से राज्यों की सत्ता फिसलने लगी और 2019 समाप्त होते होते भाजपा शासित राज्यों की संख्या मात्र 11 रह गयी इसके अलावा पार्टी बिहार, नगालैंड, मेघालय, मिजोरम और सिक्किम की गठबंधन सरकारों में छोटे भाई की भूमिका में है। तमिलनाडु में भाजपा का कोई विधायक नहीं है लेकिन वहां की सत्तारुढ़ पार्टी अन्नाद्रमुक भाजपा की सहयोगी पार्टी है। आज की तारीख में देखा जाये तो मात्र 35 प्रतिशत आबादी पर भाजपा का शासन है और एनडीए राज्यों की बात करें तो देश की कुल 43 प्रतिशत आबादी पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन राज कर रहा है।

चूक आखिर हो कहाँ रही है ?

देखा जाये तो केंद्र में भले नरेंद्र मोदी का जलवा कायम हो लेकिन राज्यों में भाजपा तेजी से सत्ता से बाहर होती चली जा रही है। एक समय भाजपा ने राज्यों में जो क्षत्रप खड़े किये थे उनका जलवा भी फीका पड़ता जा रहा है। शिवराज सिंह चौहान, डॉ. रमन सिंह, रघुबर दास, देवेंद्र फडणवीस, वसुंधरा राजे जैसे नाम पूर्व मुख्यमंत्रियों की सूची में शामिल हो चुके हैं। हैरत की बात है कि 2019 का लोकसभा चुनाव पहले से ज्यादा सीटों से जीतने के बावजूद भाजपा ने मात्र 7 महीनों में महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों की सत्ता खो दी है तो हरियाणा में उसे गठबंधन सरकार बनाने पर मजबूर होना पड़ा और दिल्ली में उसका वनवास 20 वर्षों से जारी है। 

केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में तीन या चार मंत्रियों को छोड़ दें तो बाकी मंत्री अपने काम के जरिये कोई प्रभाव छोड़ पाने में विफल रहे हैं। हाँ, कई मंत्रियों ने अपने बड़बोले बयानों के चलते जरूर सुर्खियां हासिल की हैं। आज सबसे बड़ा सवाल है कि क्या भाजपा को सिर्फ मोदी नाम का सहारा रह गया है? आखिर क्यों भाजपा के पास राज्यों में विश्वसनीय नामों की कमी हो गयी है कि चुनावों में मोदी के नाम और मोदी के काम का ही सहारा लेना पड़ रहा है। आइए चलते हैं थोड़ा फ्लैश बैक में।

2009 से भाजपा की सेहत का हाल

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में जब देश की जनता ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व को खारिज कर दिया था तो भाजपा एकदम बिखर-सी गयी थी। आरएसएस के दखल के बाद महाराष्ट्र के वरिष्ठ पार्टी नेता नितिन गडकरी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना तो दिया गया था लेकिन उन्हें दिल्ली में वर्षों से जमे भाजपा नेताओं का सहयोग नहीं मिल रहा था। गडकरी ने अपने हिसाब और संघ के आशीर्वाद से स्वतंत्र निर्णय लेने शुरू किये और पार्टी को आगे बढ़ाने का प्रयास करते रहे लेकिन अपनी पार्टी के नेताओं का समर्थन उन्हें वैसा नहीं मिल रहा था जैसा चाहिए था इसके अलावा गडकरी की दूसरी मुश्किल यह थी कि उस समय के सत्ताधारी दल भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेते थे। जैसे-जैसे 2014 का लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहा था वैसे-वैसे गडकरी पर दबाव बढ़ रहा था कि पार्टी को मुश्किलों से निकालें और भाजपा को एक सशक्त विपक्ष की भूमिका में लेकर आयें लेकिन बात बन नहीं रही थी। इसके अलावा गडकरी की उस समय गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से बनती नहीं थी और यह बात आरएसएस के लिए भी बड़ी मुश्किल बनी हुई थी। साल 2013 की शुरुआत में नितिन गडकरी एक विवाद में फँसे और भाजपा अध्यक्ष पद से उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया और पार्टी की कमान राजनाथ सिंह के हाथों में वापस आ गयी। 

2013 में नेतृत्व और पार्टी ने पकड़ी रफ्तार

2013 में जब गडकरी ने पार्टी की कमान राजनाथ सिंह को सौंपी उस समय भाजपा की मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गोवा और गुजरात में सरकार थी। 2013 में मई में जब कर्नाटक विधानसभा के चुनाव हुए तो बागी येदियुरप्पा की वजह से भाजपा को ऐसा नुकसान हुआ कि वह राज्य की सत्ता से बाहर हो गयी। यही नहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 2013 में ही एनडीए से बाहर चले गये और बिहार की सत्ता में भाजपा की भागीदारी खत्म हो गयी। साल 2013 के अंत में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें वापस सत्ता में लौट आयीं और राजस्थान में भाजपा की दो तिहाई बहुमत वाली सरकार बन गयी। दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन पार्टी बहुमत से मात्र 3 सीटें पीछे रह गयी चूँकि 2014 में लोकसभा चुनाव होने थे और भाजपा नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी थी इसलिए जोड़तोड़ कर किसी विवाद में नहीं फँसना चाहती थी। लिहाजा भाजपा ने दिल्ली में सरकार नहीं बनाने का निर्णय किया और 2014 के लोकसभा चुनावों की तैयारी शुरू कर दी और मुख्य मुद्दा बनाया मनमोहन सरकार के दौरान नीतिगत शिथिलता और संप्रग सरकार के कथित भ्रष्टाचार को।

भाजपा के विजय रथ की दौड़ शुरू

नरेंद्र मोदी ने देश को 'अच्छे दिनों' के सपने दिखाये और उनके गुजरात के विकास मॉडल को देख चुकी जनता ने पूरा भरोसा करते हुए भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में बहुमत के लिए आवश्यक 272 से 10 सीटें ज्यादा यानि 282 सीटें सौंप दीं। तीन दशकों बाद किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला तो भारत में इसे नया सवेरा माना गया। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर भाजपा का विजय रथ जो 2014 में शुरू हुआ वह सरपट ऐसा दौड़ा कि भारत के अधिकतर भूभाग में भगवा राज दिखने लगा। 2014 में लोकसभा चुनावों में भाजपा ने उत्तर और पश्चिम भारत की अधिकतर लोकसभा सीटों पर कब्जा किया था और लोकसभा के साथ ही आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम विधानसभा के भी चुनाव कराये गये थे। इन राज्यों में सिर्फ भाजपा को आंध्र में सत्ता का स्वाद चखने को मिला क्योंकि आंध्र में उस समय भाजपा तेलुगु देशम पार्टी के साथ चुनाव लड़ रही थी और यह गठबंधन सरकार बनाने में सफल रहा था। वर्ष 2014 से शुरू हुई मोदी लहर ने भाजपा को पहले केंद्र की सत्ता दिलाई उसके बाद 2014 में ही हरियाणा और महाराष्ट्र में भी भाजपा का प्रदर्शन जोरदार रहा और वह सरकार बनाने में सफल रही। हरियाणा में तो भाजपा ने चमत्कार कर दिया क्योंकि पिछली विधानसभा में जहां उसकी संख्या सिंगल डिजिट में थी वहीं 2014 के लोकसभा चुनावों में उसे 47 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। महाराष्ट्र में अपने दम पर लड़ी भाजपा 122 सीटें जीतकर सत्ता के शिखर तक पहुँची और शिवसेना को राज्य में छोटे भाई की भूमिका स्वीकार करनी पड़ी। यही नहीं इसी 2014 में भाजपा का विजय रथ आगे बढ़ते-बढ़ते झारखंड और फिर भारत माता का मस्तक कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर भी पहुँचा। झारखंड में मुख्यमंत्री भाजपा का बना लेकिन जम्मू-कश्मीर में भाजपा को पीडीपी के साथ गठबंधन कर उपमुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा। लेकिन भाजपा के राजनीतिक इतिहास में यह दुर्लभ क्षण था जब अपनी विरोधी विचारधारा वाली पार्टी पीडीपी के साथ उसने गठबंधन किया था। हालांकि सत्ता में भागीदारी के साथ ही पार्टी ने जम्मू-कश्मीर में सरकार में आने का संकल्प पूरा कर लिया।

उम्मीदों को नहीं मिला आसमाँ

2015 में भाजपा के पास खोने के लिए तो कुछ नहीं था लेकिन पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव और बिहार विधानसभा चुनाव जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया और भाजपा के मात्र तीन विधायक चुने गये। यही नहीं भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी खुद अपना चुनाव हार गयीं। बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के एक साथ आकर महागठबंधन बनाने से भाजपा को इतनी तगड़ी चुनौती मिली कि सत्ता उसके लिए दूर की कौड़ी बन कर रह गयी। बिहार में महागठबंधन की सरकार बनी और राज्य की जनता ने नीतीश कुमार के चेहरे पर वोट दिया। तो इस तरह साल 2015 में भी राज्यवार भाजपा की सत्ता साल 2014 जैसी ही रही।

पूर्वोत्तर में खिला कमल

साल 2016 में तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, पुड्डुचेरी और असम विधानसभा के चुनाव हुए। भाजपा ने पश्चिम बंगाल, केरल और असम पर ज्यादा जोर लगाया। भाजपा अध्यक्ष के तौर पर अमित शाह ने पश्चिम बंगाल और केरल में जोरदार प्रचार किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम को संभाला। असम में तो भाजपा जीत के प्रति इतनी आश्वस्त थी कि केंद्रीय राज्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया। केरल में राजनीतिक हिंसा में जिस तरह भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ताओं को पीटा जा रहा था, मारा जा रहा था उसको पार्टी ने बड़ा मुद्दा बनाया लेकिन मात्र एक सीट जीत पायी। पश्चिम बंगाल में भाजपा के सभी बड़े दावे विफल हो गये और पार्टी को मात्र 6 सीटों पर सफलता मिली लेकिन पार्टी का वोट प्रतिशत काफी बढ़ा। पुड्डुचेरी और तमिलनाडु में भाजपा के खाता खोलने के प्रयास रंग नहीं लाये लेकिन असम में भाजपा ने इतिहास रचते हुए कांग्रेस के लंबे शासन को समाप्त करते हुए अपनी सरकार बनायी। असम में भाजपा की सरकार स्थापित होते ही अमित शाह ने पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में पार्टी को मजबूत करने और सरकार बनाने पर अपनी दृष्टि लगा दी। इस तरह भाजपा ने साल 2016 में अपने खाते में एक नया राज्य जोड़ लिया।

भाजपा के लिए स्वर्णिम वर्ष

साल 2017 भाजपा के लिए विशेष रूप से फायदेमंद रहा और इस वर्ष पार्टी ने अपना जनाधार भी बढ़ाया और पार्टी शासित राज्यों की संख्या भी बढ़ी। साल 2017 की शुरुआत नोटबंदी के माहौल में हुई थी और विपक्ष भाजपा पर बेहद आक्रामक था लेकिन उसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने नया इतिहास रचते हुए रिकॉर्ड सीटों के साथ उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड की सत्ता क्रमशः समाजवादी पार्टी और कांग्रेस से छीन ली और योगी आदित्यनाथ तथा त्रिवेंद्र सिंह रावत के रूप में भाजपा के दो नये मुख्यमंत्री बने। उत्तर प्रदेश में तो पार्टी ने सामाजिक और जातिगत समीकरणों को साधते हुए मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री भी बनाये। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के साथ हुए पंजाब विधानसभा चुनावों में जरूर एनडीए को झटका लगा और यह राज्य कांग्रेस के पास चला गया। इन राज्यों के साथ ही मणिपुर में भी विधानसभा चुनाव हुए थे जिसमें भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और जोड़तोड़ कर सरकार बनाने में सफल रही। साल 2017 में ही गोवा, हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें भाजपा ने हिमाचल प्रदेश को कांग्रेस से छीन कर अपनी सत्ता बनाई तो गुजरात में एक बार फिर भाजपा सरकार बनी हालांकि पार्टी की सीटों की संख्या पिछली बार के मुकाबले कम हो गयी। गोवा में तो भाजपा की सीटें पहले से कम हुई हीं साथ ही वह सबसे बड़ा दल भी नहीं रही लेकिन कुछ छोटे दलों ने तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को मुख्यमंत्री बनाये जाने पर भाजपा को समर्थन देने की बात कही जिसके बाद पर्रिकर को वापस गोवा भेज दिया गया। यह देखिये 2017 में भारत का राजनीतिक मानचित्र जो दर्शाता है कि यह भाजपा के लिए स्वर्णिम वर्ष था।

हिन्दी भूभाग से भाजपा हुई अदृश्य

साल 2018 की शुरुआत गर्माते राजनीतिक माहौल से हुई क्योंकि ठीक एक साल बाद लोकसभा के चुनाव होने थे और कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पूरी तरह सक्रिय हो चुका था और भाजपा को कभी राफेल विमान सौदे तथा कभी अन्य मुद्दों पर घेरा जा रहा था। यही वह वर्ष भी था जब राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने की कवायदें शुरू हो चुकी थीं लेकिन नेतृत्व कौन करेगा के सवाल पर बात बन नहीं रही थी। चंद्रबाबू नायडू जो केंद्र और राज्य में भाजपा के साथ सरकार में थे वह आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की माँग को लेकर एनडीए से बाहर आ गये और इस तरह वर्ष 2018 में एनडीए शासित राज्यों में से एक संख्या कम हो गयी। साल 2018 की शुरुआत में हुए त्रिपुरा और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन शानदार रहा लेकिन कर्नाटक में वह बहुमत से थोड़ा पीछे रह गयी और कांग्रेस ने जरा भी समय नहीं गँवाते हुए जनता दल सेक्युलर को अपना समर्थन देते हुए एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। इस तरह एक प्रकार से भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा के हाथ से सत्ता आकर चली गयी। त्रिपुरा में तो भाजपा ने दशकों पुराना वामपंथी शासन उखाड़ फेंका जिससे लेफ्ट देश में मात्र एक राज्य तक ही सीमित हो कर रह गया। त्रिपुरा में भाजपा को मिला बहुमत वामपंथी विचारधारा की भी हार मानी गयी। देखा जाये तो साल 2018 भाजपा के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि माना जा रहा था कि यदि इस साल भाजपा का विजय रथ रूका तो 2019 के लोकसभा चुनावों में उसके लिए मुश्किल हो सकती है। साल 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा दाँव भाजपा का ही लगा हुआ था क्योंकि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में वह सत्ता में थी और इन सरकारों के खिलाफ नाराजगी साफ देखी जा सकती थी। कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में किसानों की कर्जमाफी का वादा कर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सत्ता से भाजपा को बाहर कर दिया और एक तरह से हिन्दी भूभाग पर कांग्रेस का कब्जा हो गया। इसके अलावा भाजपा ने हिन्दी भूभाग पर ही कुछ लोकसभा उपचुनाव भी हारे जिससे पार्टी को चिंता हो गयी क्योंकि यह कोई मामूली सीटें नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की गोरखपुर, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की फूलपुर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक महत्वपूर्ण सीट कैराना थी। मेघालय में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन भाजपा के प्रयासों के चलते नेशनल पीपुल्स पार्टी के नेता कोनराड संगमा मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। भाजपा भी मेघायल सरकार में शामिल है। मिजोरम और नगालैंड विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षानुरूप नहीं रहा लेकिन पार्टी वहां की गठबंधन सरकारों में शामिल है। साल का अंत आते-आते तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने विधानसभा को समयपूर्व भंग कर दिया और नये चुनावों में भी उनकी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति बहुमत पाने में कामयाब रही। तेलंगाना विधानसभा चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण रहे कि पहली बार कांग्रेस और टीडीपी ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था लेकिन इस गठबंधन की बुरी दशा हुई जबकि भाजपा का प्रदर्शन भी बहुत अच्छा तो नहीं रहा लेकिन पार्टी के वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी हुई। साल 2018 में कुल मिलाकर भाजपा ने हिन्दी भूभाग में जो झटका खाया उससे देश के राजनीतिक मानचित्र में यह बदलाव आया। 

भाजपा के लिए मिला-जुला साल

साल 2019 भाजपा के लिए कठिन वर्ष माना जा रहा था क्योंकि नवंबर-दिसंबर 2018 में भाजपा को तीन बड़े झटके- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सत्ता गँवा कर लगे थे। लोकसभा चुनाव सिर पर थे और एकजुट होते विपक्ष की ओर से पैदा की जा रहीं चुनौतियां भी मुश्किलें बढ़ा रही थीं लेकिन भाजपा ने केंद्र में पांच सालों के कामकाज, राष्ट्रवाद और प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी संप्रग के नेता तो माने जा रहे थे लेकिन वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं बनाये गये थे जिससे जनता के समक्ष स्थिति स्पष्ट नहीं थी। इसके अलावा महागठबंधन के रूप में नेताओं का जो जमघट लगा था उसे भी जनता स्वीकार करने को राजी नहीं दिख रही थी क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता को यह समझाने में सफल रहे थे कि स्पष्ट बहुमत की सरकार क्या-क्या कर सकती है। साफ था कि देश अब राजनीतिक अनिश्चितताओं या अस्थिरता के दौर में वापस नहीं लौटना चाहता था। देश की जनता ने नरेंद्र मोदी पर विश्वास जताते हुए भारतीय जनता पार्टी को पिछली बार की 282 से ज्यादा 303 सीटें सौंप दीं और गठबंधन के तौर पर एनडीए की शक्ति भी बढ़ा दी। कई राज्य ऐसे रहे जहाँ भाजपा को 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल हुए। कांग्रेस एक बार फिर बुरी तरह पराजित हुई, खुद उसके अध्यक्ष अपने पारिवारिक गढ़ अमेठी से चुनाव हार गये और पार्टी लगातार दूसरी बार विपक्ष का दर्जा पाने लायक सीटें भी हासिल नहीं कर पाई। लोकसभा के साथ ही आंध्र प्रदेश, सिक्किम, ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी हुए जिनमें ओडिशा की सत्ता में आने के भाजपा के प्रयास तो विफल रहे, आंध्र प्रदेश में भी उसका हाथ-पैर मारना कोई काम नहीं आया, सिक्किम में जरूर उसने अपना खाता खोला और अरुणाचल प्रदेश में तो पहली बार भाजपा ने अपने बहुमत वाली सरकार बनाई। भाजपा के इस विजय रथ की रफ्तार को रोक पाना नामुमकिन लग रहा था लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव आते ही स्थिति बदल गयी। भाजपा ने महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन कर सत्ता में वापसी तो की लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर खींचतान ऐसी बढ़ी कि शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी के साथ चली गयी और अब मुख्यमंत्री के रूप में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र पर राज कर रहे हैं। इस तरह से एक बड़ा और अहम राज्य भाजपा के हाथ से चला गया। हरियाणा में भाजपा ने सत्ता में वापसी तो की लेकिन उसे सीटों की संख्या कम होने के चलते दुष्यंत चौटाला की पार्टी से गठबंधन करके उपमुख्यमंत्री पद देना पड़ा। साल 2019 का अंत झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार से हुआ और इस राज्य में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बन गयी। 

2020 कैसा गुजरेगा ?

साल 2020 की शुरुआत भी भाजपा के लिए ज्यादा अच्छी नहीं रही क्योंकि फरवरी माह में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में पार्टी ने पूरा जोर लगा दिया और बेहद आक्रामक प्रचार करके चुनाव लड़ा लेकिन पिछली बार तीन सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार आठ सीटें ही जीत पायी और आम आदमी पार्टी एक बार फिर प्रचण्ड बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता में लौट आयी। भाजपा नेताओं का यह बयान चौंका देने वाला है कि पार्टी कांग्रेस के बुरे प्रदर्शन के कारण हारी है। क्या भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत अभियान का यह हश्र है ? क्या मोदी है तो मुमकिन है, नारा काम का नहीं रहा ? खैर... इस वर्ष के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं जहां पर एनडीए का शासन है। देखना होगा कि वहां पर क्या नतीजे रहते हैं क्योंकि मुकाबला दो बड़े गठबंधनों के बीच होगा।

अब क्या करें ?

बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' के नारे से की थी उसको देखते हुए भाजपा के कर्णधारों को चाहिए कि वह नीतियां बनाते समय इतनी सावधानी बरतें कि कोई इससे असहज नहीं हो या किसी के मन में कोई शंकाएं हों तो उनका आगे बढ़कर समाधान किया जाये। प्रधानमंत्री मोदी ने 70 सालों से जकड़ी जिन समस्याओं से भारत को मुक्ति दिलाने की ठानी है वह सराहनीय है। भाजपा को चाहिए कि वह सरकार के कदमों के बारे में जनता को जागरूक करने का अभियान भी चलाये क्योंकि भारत विरोधी तत्व जिस प्रकार दुष्प्रचार अभियान चलाकर भारत और सरकार को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं, उसका जवाब दिया जाना चाहिए। भाजपा को अब नये राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा मिल गये हैं उन्हें भी पार्टी संगठन को और दुरुस्त करने के साथ ही राज्यों और जिलों में नया नेतृत्व उभारने पर भी ध्यान देना चाहिए। इसके अलावा भाजपा को राज्य विधानसभा चुनावों को क्षेत्रीय मुद्दों पर ही लड़ना चाहिए क्योंकि 370, तीन तलाक, राम मंदिर, नागरिकता कानून में संशोधन जैसे निर्णयों का महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली में कोई लाभ नहीं हुआ और जनता ने क्षेत्रीय मुद्दों पर ही गौर करते हुए मतदान किया।

-नीरज कुमार दुबे

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