कांग्रेस लगातार एक से बढ़ कर एक ऐतिहासिक भूल कर रही है!

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कांग्रेस का कदम उसकी उसी पारंपरिक राजनीति का विस्तार माना जा सकता है, जिसमें वह सांप्रदायिकता विरोध की राजनीति को धार देने का दावा करती रही है। जिसके जरिए वह अल्पसंख्यकवाद को ही पल्लवित और पुष्पित करती रही है।

कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में कोई समानता हो सकती है? सांप्रदायिकता और मोदी विरोध के नाम पर दोनों दल करीब दो दशक से साथ हैं। करीब ढाई दशक पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को केंद्र सरकार बनाने का मौका मिला, लेकिन पार्टी ने उसे नकार दिया। तो क्या कांग्रेस भी वैसी ही ऐतिहासिक भूल कर रही है? कांग्रेस को लेकर यह सवाल राजनीतिक हलकों में उसके हालिया कदम के बाद पूछा जा रहा है। रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास ने 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह के लिए कांग्रेस को बुलावा भेजा था। पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी, मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी को समारोह में शामिल होने का बुलावा मिला। इस समारोह में शामिल होने के लिए कांग्रेस कुछ दिनों तक उहापोह में रही। आखिर में उसने इस समारोह के आमंत्रण को ही एक तरह से ठुकरा दिया। करीब ढाई दशक से कथित सांप्रदायिकता के इर्द-गिर्द राजनीतिक विमर्श चल रहा है, उसकी वजह से एक सियासी हलके के एक वर्ग को कांग्रेस का यह कदम ऐतिहासिक और मजबूत लग रहा है। लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है, जिसे लगता है कि कांग्रेस ने इस आमंत्रण को ठुकरा कर ऐतिहासिक गलती की है। 

इतिहास का प्रमाणित तथ्य है कि अयोध्या के विवादित ढांचे का ताला कांग्रेस ने ही खुलवाया। शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के जरिए पलटने के बाद मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए सवालों के घेरे में आई तत्कालीन राजीव सरकार ने ताला खुलवाकर एक तरह से सियासी पासा फेका था। उसे ऐसा लगा कि कुछ महीनों बाद होने वाले आम चुनावों में इस दांव से नाराज पड़े हिंदू मतदाताओं को साधा जा सकेगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। चुनाव नतीजों में कांग्रेस सबसे बड़ा दल भले ही बनी, लेकिन बहुमत की संख्या से काफी पीछे चली गई। तब शिलान्यास और ताला खुलवाने को कांग्रेस के अंदर की कट्टर सेकुलरवादी सोच ने गलत बताना शुरू किया। राममंदिर तब से कांग्रेस की नजर में सांप्रदायिकता का प्रतीक बनता चला गया। 

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लेकिन सवाल यह है कि क्या इसका कांग्रेस को फायदा मिला? लोकतांत्रिक समाज में राजनीतिक फैसलों का आकलन आखिरकार मतदान में मिले समर्थन से ही आंका जाता है। कांग्रेस में ही एक तबका ऐसा है, जिसे लगता है कि बाबरी ध्वंस हुए तीन दशक से ज्यादा हो गए। तब से लेकर अब तक सरयू में काफी पानी बह चुका है। इसलिए इस मुद्दे पर पार्टी को अलग रवैया अख्तियार करना चाहिए। हालांकि उस वर्ग की पार्टी में कम सुनी जाती रही। इसका ही नतीजा रहा कि सर्वोच्च न्यायालय में राममंदिर को लेकर जारी मुकदमे में विरोध में उतरे नेताओं ने राम को काल्पनिक पात्र बताने में हिचक नहीं दिखाई। मीर बाकी ने मंदिर ध्वस्त करके मस्जिद बनवायी थी, उस तथ्य को भी कांग्रेस का प्रभावी तबका नकारता रहा। कांग्रेस के इस कदम को उत्तर भारत के मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने चिढ़ाने के अंदाज में लिया। निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी को इसका भी फायदा मिला। विगत दस सालों से केंद्र की सत्ता पर वह काबिज जिन वजहों से है, उसमें एक वजह यह भी है। लेकिन कांग्रेस के बौद्धिक सलाहकारों का प्रभावी तबका इस तथ्य को या तो समझ नहीं रहा है या फिर समझते हुए भी जानबूझकर नकार रहा है। 

22 जनवरी के आयोजन को लेकर देशभर में भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के कार्यकर्ता संपर्क कर रहे हैं। प्राण प्रतिष्ठा समारोह के आमंत्रण को लेकर जमीनी स्तर पर जिस तरह आम लोगों का समर्थन मिल रहा है, वह सिर्फ सनातन आस्था का उभार का प्रतीक ही नहीं है। बल्कि यह उत्साह एक तरह से भावी चुनावों की बानगी भी पेश कर रहा है। कांग्रेस ने जिस तरह आमंत्रण को ठुकराया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह जमीन पर जारी इस उत्साह को समझ नहीं पा रही है। 

कांग्रेस का कदम उसकी उसी पारंपरिक राजनीति का विस्तार माना जा सकता है, जिसमें वह सांप्रदायिकता विरोध की राजनीति को धार देने का दावा करती रही है। जिसके जरिए वह अल्पसंख्यकवाद को ही पल्लवित और पुष्पित करती रही है। ध्यान देने की बात है कि ऐसा करने के बावजूद राममंदिर आंदोलन के उभार के बाद राजनीतिक संख्या बल के लिहाज से ताकतवर उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस का समर्थक आधार लगातार कमजोर होता चला गया है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में तो भाजपा विरोध का उसकी बजाय समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे दलों को फायदा मिला है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल अल्पसंख्यक वोटरों की पहली पसंद हैं। इन दोनों राज्यों में लोकसभा की 120 सीटें आती हैं। लेकिन कांग्रेस के पास महज दो सीटें ही हैं।

अतीत में उत्तर भारत में कांग्रेस ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक वोटरों के समीकरण से तैयार राजनीतिक रसायन से सत्ता का मुरब्बा तैयार करती रही है। लेकिन राममंदिर आंदोलन के बाद उसका ब्राह्मण वोट बैंक छिटक गया, जिन अल्पसंख्यकों के लिए समर्थन के लिए वह राममंदिर आंदोलन को सांप्रदायिकता की आंच में पकाती रही, वे अल्पसंख्यक भी उसके साथ नहीं रहे। मौजूदा दौर में राम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह में शामिल न हो पाने का सियासी नफा-नुकसान क्या हो सकता है, यह उत्तर की बजाय कांग्रेस के दक्षिण के क्षत्रप ज्यादा समझ रहे हैं। शायद यही वजह है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने प्रतिष्ठा समारोह के आमंत्रण को लेकर अप्रत्यक्ष तौर पर उम्मीद दिखाने से परहेज नहीं किया।

बीते पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सिर्फ तेलंगाना में जीत मिली। इसके बाद कांग्रेस ने नया नैरेटिव पेश किया। कांग्रेस का कहना था कि विंध्य के दक्षिण के मतदाताओं पर सांप्रदायिकता का असर नहीं होता। वे जमीनी मुद्दों पर मतदान करते हैं, जबकि उत्तर के मतदाता सांप्रदायिकता, धर्म और जाति पर मतदान करते हैं। हालांकि यह भी अधूरा सच ही है। चूंकि भारतीय जनता पार्टी के लिए दक्षिण के राज्य अब भी प्रश्न प्रदेश बने हुए हैं, इसलिए कांग्रेस ऐसी सोच रखती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या दक्षिण के राज्यों के ही सहारे वह केंद्रीय राजनीति की धुरी बन सकती है? निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। कांग्रेस को शायद यह लग रहा है कि अगर वह सांप्रदायिकता विरोध की जमीन पर खड़ी रहेगी तो सवर्ण मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग अब भी ऐसा है, जो उसकी ओर खिंचा चला आ सकता है और अल्पसंख्यक वोटरों का समर्थन उसे थोक में मिल सकता है। हालांकि विगत दो-ढाई दशकों का चुनाव नतीजों के आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। 

कांग्रेस के एक वर्ग का मानना है कि पार्टी आलाकमान को राममंदिर के प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होना चाहिए था। उसे बताना चाहिए था कि राम सबके हैं। संयोग से भाजपा ने राम को लेकर यही नारा भी दिया है। प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होकर पार्टी राममंदिर पर भाजपा के स्टैंड में किंचित सेंध लगा सकती थी। कांग्रेस के ही एक धड़े का यह भी मानना है कि प्रतिष्ठा समारोह की बजाय पार्टी आलाकमान को अगले दिन राममंदिर के परिसर में अपने समर्थकों के साथ दर्शन का कार्यक्रम बनाना चाहिए था। कांग्रेस आलाकमान तब यह भी बयान दे सकता था कि राम उसके लिए राजनीति के माध्यम नहीं हैं, बल्कि उसके भी पूज्य हैं। पार्टी में ऐसी समझ रखने वाला तबका आलाकमान के फैसले से निराश है। उसे लगने लगा है कि जमीनी स्तर पर मंदिर को लेकर जारी उत्साह के चलते पार्टी का यह कदम उसे भारी पड़ सकता है। 

आखिर में एक बार सीपीएम से कांग्रेस की तुलना की बात..1996 में सत्ता को नकारने वाली सीपीएम ने बाद के दिनों में अपने उस कदम को ऐतिहासिक भूल करार दिया था। कांग्रेस ने जिस तरह राममंदिर के प्रतिष्ठा समारोह में शामिल न होने का फैसला किया है, उससे उसकी चुनावी संभावनाओं पर असर पड़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो क्या वह सीपीएम की तरह मानेगी कि उसने ऐतिहासिक भूल किया था। वैसे उसके कार्यकर्ताओं का एक वर्ग तो अभी से ही ऐसा मानने लगा है। चौपाल-चौराहों की चर्चाओं में यह सोच प्रतिध्वनित होने भी लगी है।

-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

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