बंजर भूमि पर हो प्राकृतिक खेती का विकास

Indian Farmers
ANI

भारत की अधिकांश बंजर और अत्यधिक क्षरित भूमि पर सीमांत किसान और आदिवासी आबादी निवास करती है, उनकी आजीविका भी इसी पर टिकी हुई है। इसलिए भी जरूरी है कि बंजर भूमि का विकास हो, उसे उपजाऊ बनाया जाए और उन पर प्राकृतिक खेती की जाए।

देश में खेती की जमीन घट रही है या बढ़ रही है, इसे लेकर दो तरह की बातें की जा रही है। एक वर्ग का मानना है कि देश में खेती की जमीन बढ़ रही है। हालांकि जिस तरह शहरीकरण बढ़ रहा है, खासकर उपजाऊ जमीनों पर शहरों का निर्माण हो रहा है, उससे लगता तो नहीं कि खेती की जमीन बढ़ रही है। हालांकि कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा लोकसभा में पेश एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2018-19  में जहां 180624 हजार हेक्टेयर जमीन पर खेती होती थी, वह साल 2021-22 में बढ़कर 219158 हजार हेक्टेयर हो गई है। इससे तो हमें खुश होना चाहिए। क्योंकि चीन जैसे देश अपने यहां खेती योग्य जमीन की कमी को लेकर चिंतित हैं। 

लेकिन एक और रिपोर्ट आई है, लैंड यूज स्टैटिस्टिक्स एट ए ग्लैंस 2012-13 टू 2021-22। इस रिपोर्ट का कहना है कि कहती है, 2018-19 से 2021-22 तक खेती योग्य जमीन का दायरा घटकर 180.62 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 180.11 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। यह रिपोर्ट राज्यों को सुझाती है कि औद्योगिक और निर्माण गतिविधियों आदि के लिए वे बंजर भूमि का उपयोग करें। संविधान के मुताबिक, भारत में भूमि राज्य सूची का विषय है। इसलिए राज्यों पर इसके लिए दबाव नहीं बनाया जा सकता। लेकिन दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि के विकास को देखने से पता चलता है कि भारी मात्रा में खेती योग्य और बेहद उपजाऊ जमीन अब कंक्रीट के जंगल में बदल चुकी है। शायद यही वजह है कि अब बंजर भूमि को खेती योग्य बनाने को लेकर मांग उठने लगी है। 

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भारत में कुल 14 करोड़ हेक्टेयर पर नियमित खेती होती है। आज खेती की जो हालत है, जिस तरह उसमें कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल बढ़ा है, उसकी वजह से खेती की मिट्टी भी खराब हो चुकी है। अब कैंसर, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों के लिए विशेषज्ञ रासायनिक खाद और कीटनाशक युक्त खेती को भी जिम्मेदार बता रहे हैं। पंजाब के बठिंडा से राजस्थान के जोधपुर के लिए चलने वाली विशेष ट्रेन को कैंसर ट्रेन इसीलिए कहा जाने लगा है, क्योंकि इसमें ज्यादातर यात्री जोधपुर के कैंसर अस्पताल में अपना इलाज कराने जाते हैं। जाने वाले खेती की उपज के लिए मशहूर पंजाब राज्य के लोग होते हैं। इसी लिए अब प्राकृतिक, जैविक या नो बजट खेती की मांग बढ़ रही है। इस खेती के जरिए होने वाली उपज को स्वास्थ्य वर्धक माना जाने लगा है। लेकिन खेती की मौजूदा जमीन को सुधारना एक दिन का काम नहीं है और उसे सुधारने में बहुत वक्त लगेगा। इसलिए अब मांग होने लगी है कि भारत में जो वर्जिन लैंड यानी बंजर जमीन है, उसे तैयार करके उस पर प्राकृतिक और जैविक खेती करने के लिए अनुमति मिलनी चाहिए। वैसे देश  की करीब 40 फीसद आबादी अपनी आजीविका के लिए बंजर भूमि पर निर्भर है। ज्यादातर यह आबादी मुख्यतः ग्रामीण है, अशिक्षित भी है या फिर इसमें हाशिए के लोग शामिल हैं। इस सिलसिले में दिल्ली में पांच अगस्त को पूरे दिनभर का सेमिनार भी हुआ, जिसमें राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता और कृषि उत्पादक और कारोबारी भी शामिल हुए। हर वर्ग का मानना था कि ऐसा किया जाना भारत के स्वास्थ्य, हाशिए पर पड़े लोगों की हैसियत सुधारने और स्वास्थ्यवर्धक खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी है। 

ग्रामीण विकास मंत्रालय के 'बंजर भूमि एटलस' (2019) के अनुसार, देश में लगभग 55.76 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 16.96 प्रतिशत है।अगर उचित उपचार किया जाए तो लगभग 50% बंजर भूमि उपजाऊ बन सकती है। इस एटलस के अनुसार राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मिजोरम, मध्य प्रदेश, जम्मू और कश्मीर और पश्चिम बंगाल की बंजर भूमि में सकारात्मक बदलाव आया है और उनमें से अधिकांश को कृषि भूमि, वृक्षारोपण और औद्योगिक क्षेत्रों आदि बनाने के लिए बदला जा रहा है। 

यहां जान लेना चाहिए कि जो भूमि खाली पड़ी है, अनुत्पादक है, या जिसका पूरी क्षमता से उपयोग नहीं हो रहा हो, जिसकी उत्पादकता कम है, आमतौर पर उसे बंजर माना जाता है। उदाहरण के अनुसार, बंजर भूमि में क्षरित वन, जलभराव वाली दलदली भूमि, पहाड़ी ढलान, अपरदन वाली घाटी, अतिचारित चारागाह और सूखाग्रस्त चारागाह शामिल हैं।

1985 में स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड यानी एनडब्ल्यूडीबी, के अनुसार बंजर भूमि को क्षरण की सीमा के आधार पर निम्नलिखित समूहों में बांटा गया है। इसमें पहली श्रेणी में सांस्कृतिक बंजर भूमि आती है, जिसका कई वजहों से फिलहाल उपयोग नहीं हो रहा, लेकिन यह भूमि उचित उपचार के बाद उपजाऊ हो सकती है। जैसे झूम खेती वाली भूमि, क्षरित चरागाह और चरागाह भूमि, क्षरित वन भूमि, क्षरित गैर-वनीय वृक्षारोपण भूमि, पट्टीदार भूमि, रेतीले क्षेत्र, खनन और औद्योगिक बंजर भूमि, नाले और बीहड़ भूमि, जलभराव और दलदली भूमि, और लवण प्रभावित भूमि इस दायरे में आती है। दूसरी श्रेणी कृषि-अयोग्य बंजर भूमि कही जाती है। इसमें वह जमीन आती है, जिसका अभी उपयोग नहीं हो रहा है, और किसी भी हालत में उपजाऊ नहीं हो सकती या यहां पेड़-पौधे नहीं उग सकते। इस श्रेणी में पथरीली, तीव्र ढलान वाली और बर्फ से ढकी जमीन आती है। कृषक समुदायों के लिए खतरा: अनुमान है कि भारतीय जनसंख्या का 61.5% ग्रामीण है और कृषि पर निर्भर है, और देश में 57.8% ग्रामीण परिवार कृषि परिवार हैं। इसलिए, भूमि क्षरण कृषक समुदायों की स्थायी आजीविका सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा है। क्षरित और बंजर भूमि को पुनः प्राप्त करने के लिए आवश्यक उपाय आवश्यक हैं ताकि सामाजिक और आर्थिक कारणों से अनुपयोगी होते जा रहे क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करके और उत्पादन क्षमता के और नुकसान को रोककर पुनः प्राप्त किया जा सके। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि भूमि संसाधन सीमित हैं। 

यह कार्यक्रम 1989-90 से क्रियान्वित है। इसे 1995 से जलग्रहण विकास के लिए जारी नए दिशानिर्देशों के आधार पर क्रियान्वित किया जा रहा है, जिसमें एक आधार-से-ऊपर दृष्टिकोण, अर्थात् सामुदायिक भागीदारी दृष्टिकोण की परिकल्पना की गई है। इसकी ताकत स्थानीय पंचायती राज संस्थाओं, गैर-सरकारी संगठनों, सरकारी विभागों और स्थानीय समुदायों को शामिल करके निर्णय लेने की प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण में निहित है। नए दिशानिर्देश जलग्रहण विकास निधि की स्थापना करके और समता संबंधी मुद्दों और उपभोक्ता अधिकार तंत्रों के निर्णय में लोगों को शामिल करके स्थायी परियोजनाओं को सुनिश्चित करने का भी प्रयास करते हैं।

वैसे बंजर भूमि को उपजाऊ और विकसित बनाने के लिए सरकारी स्तर पर कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना ऐसी ही योजना है। इसके तहत मृदा अपरदन को रोकने, प्राकृतिक वनस्पति को पुनर्जीवित करने, वर्षा जल का संचयन करने और भूजल स्तर को रिचार्ज करने के लिए मिट्टी, वनस्पति आवरण और पानी जैसे खराब प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, संरक्षण और विकास के जरिए पारिस्थितिकीय संतुलन बहाल करने की तैयारी की जा रही है। 

इसके साथ ही पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अंतर्गत 1992 में स्थापित राष्ट्रीय वनरोपण एवं पारिस्थितिकी विकास बोर्ड यानी एनएईबी भी बंजर भूमि के विकास के लिए योजनाएं चला रहा है। इसके तहत वनरोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है। ये वनरोपण स्थानीय पारिस्थितिकीय हालात पर केंद्रित होते हैं।  इसके साथ ही एकीकृत वनरोपण और पारिस्थितिकी विकास परियोजना योजना, क्षेत्रोन्मुख ईंधन लकड़ी और चारा परियोजना योजना, औषधीय पौधों सहित गैर-लकड़ी वनों का संरक्षण एवं विकास योजना, वृक्ष एवं चारागाह बीज विकास योजना आदि भी चलाई जा रही हैं। 

भारत की अधिकांश बंजर और अत्यधिक क्षरित भूमि पर सीमांत किसान और आदिवासी आबादी निवास करती है, उनकी आजीविका भी इसी पर टिकी हुई है। इसलिए भी जरूरी है कि बंजर भूमि का विकास हो, उसे उपजाऊ बनाया जाए और उन पर प्राकृतिक खेती की जाए। जिसकी वजह से अपने यहां ना सिर्फ शुद्ध और प्राकृतिक खाद्यान्न का उत्पादन होगा, कृषि वानिकी और वानिकी का भी विकास होगा। तब हम प्रकृति के और ज्यादा नजदीक जा सकेंगे और हमारी दुनिया में बदलाव आए, जो सकारात्मक होगा, प्राकृतिक होगा और स्वास्थ्य वर्धक भी। जिसमें रासायनिक खाद नहीं होंगे, कीटनाशक भी नहीं होंगे, जिसकी उपज का स्वाद स्वाभाविक रूप से मीठा होगा। 

-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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