वोट में तब्दील होने वाले मुद्दों की तलाश बड़ी चुनौती

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ANI

एक बात और चुनाव घोषणा पत्रों में मुफ्त की सुविधाओं की भरमार भी अब लोगों को अधिक लुभाने वाली नहीं लगती। कारण साफ है इससे एक और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कर देने वाला अपने को ठगा समझने लगा है, वहीं लाभार्थी इसे राजनीतिक दलों की कमजोरी समझने लगा है।

18 वीं लोकसभा के चुनावों का बिगुल बज चुका हैं वहीं पहले चरण की 102 सीटों के लिए नामांकन का कार्य पूरा होने के साथ ही एनडीए ने 31 मार्च को मेरठ और इंडी गठबंधन ने नई दिल्ली से चुनावी केंपेन का आगाज कर दिया है। लोकसभा के सातों चरणों के मतदान तक राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव रैलियों, रोड़ शो सहित विभिन्न मंचों से एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी रहेगा। सौ टके का सवाल यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनावों में चुनाव अभियान के दौरान आखिर मुख्य मुद्दे क्या बनेंगे ? हाल ही पांच विधान सभा चुनावों के दौरान गांरटियों की खूब चर्चाएं रही। एक तरफ गांरटियां थी तो दूसरी और बीजेपी ने मोदी को ही गारंटी बताकर प्रचारित किया। दरअसल देखा जाएं तो पिछले कुछ चुनावों से चाहे वे लोकसभा के हो या विधानसभाओं के चुनाव हो, सीधे जनता से जुड़े मुद्दें तो कहीं नेपथ्य में ही रह जाते हैं। तस्वीर का एक पक्ष यह भी है कि जनता से जुड़े मुद्दों को आमजनता भी अब मुद्दे या चुनावी एजेंडा नहीं मानने लगी है। इसका कारण भी कुछ और ही होता जा रहा है। किसी जमाने में गरीबी हटाओं या भ्रष्टाचार मिटाओं या महंगाई या बेरोजगारी तो सकारात्मक प्रचार अभियान में विकास की बात आदि मुद्दे महत्वपूर्ण होते थे पर अब देखा जाए तो यह मुद्दे वोट में तब्दील नहीं हो पा रहे हैं। पिछले चुनावों के अनुभव हमारे सामने हैं। दर असल अब नकारात्मक प्रचार राजनीतिक दलों पर उलटा पड़ने लगा है। पिछले दो लोकसभा के चुनावों में चौकीदार, सेना के साक्ष्य, चाय वाला आदि ऐसे वक्तव्य रहे जिसका जितना अधिक उपयोग हुआ वह भाजपा और नरेन्द्र मोदी के पक्ष में ही गया। दरअसल अब वोट विश्वसनीयता यानी की भरोसे और वोल्डनेस पर पड़ने लगे हैं। एक बात यह भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि आजादी के 75 साल बाद भी किसी दल का वोट प्रतिषत 50 प्रतिशत का आंकड़ा छू नहीं पाया है। दूसरी और चुनाव आयोग द्वारा लाख प्रयासों के बाद भी 100 में से 33 प्रतिशत मतदाताओं को मतदान केन्द्र पर मतदान के लिए ले जाने में हम सफल नहीं हो पा रहे हैं। खैर यह अलग विचारणीय मुद्दे हैं।

विपक्ष के प्रयास है कि सत्तारुढ़ द्वारा संबैधानिक संस्थाओं यथा ईडी, आईटी आदि जांच एजेंसियों का हथियार के रुप में उपयोग, चुनावी बॉण्ड, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि को प्रभावी तरीके से चुनावी मुद्दा बनाया जाये पर अभी तक जो दिखाई दे रहा है उसमें साफ है कि यह मतदाताओं को प्रभावित करने वाले मुद्दे बन नहीं पा रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण तो विपक्षी खासतौर से इंडी के दलों का जुड़ना बिखरना जारी है। एक तरफ ममता पं.बगांल में कांग्रेस द्वारा वामपंथी दलों के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ने को खुले आम भाजपा को लाभ बताने वाला निर्णय बता रही हैं वहीं बिहार, महाराष्ट्र, दिल्ली में कांग्रेस का छोटे पार्टनर के रुप में सामने आने, पंजाब में आप से सीटों के बंटवारें को लेकर समझौता ही नहीं होने, बसपा का अलग रुख, अजित जनता दल का बीजेपी के साथ आना, ओडीसा में बीजद सहित विरोधाभास सामने आ रहे हैं। वहीं दिल्ली की रैली से साफ हो जाता है कि विपक्ष का जो पैनापन होना चाहिए था वह लगभग असरदार नहीं दिखा। चुनावी बॉण्ड का मुद्दा जिस तरह से उछला वह अपनी धार नहीं दिखा पाया क्योंकि चुनावी चंदा सभी ने लिया चाहे वो कम हो या ज्यादा। दूसरी बात आमजन का यह सोच माना जा सकता है कि सभी राजनीतिक दल चुनावी चंदा लेते हैं और साफ है कि इसका फायदा सत्तारुढ़ दल को अधिक ही मिलता है। चंदा देने वाला अपने निहितार्थ देखता है और यही कारण है कि वह सत्तारुढ़ दल को अधिक चंदा देता है। इसलिए जिस तरह से यह बड़ा मुद्दा बनने की संभावना देखी जा रही थी वह कहीं पीछे ही रह गई। इसी तरह से केजरीवाल सहित आप नेताओं पर ईडी छापों और जेल का मुद्दा भी अधिक असर दिखाता नहीं लग रहा। इसका कारण भी साफ है कि केजरीवाल जो भ्रष्टाचार के खिलाफ ही सत्ता में आये थे पहलीबात तो उनके नेताओं पर शराब ठेकों में भ्रष्टाचार के आरोप लगे, दूसरी और बार बार सम्मन आने पर भी रेस्पांस नहीं करने और गिरफ्तारी के बाद भी पद पर बने रहने का आमजन में अभी तो नकारात्मक असर ही दिखाई दे रहा है। इस मामलें में लोग लालू की बड़ाई करने लगे हैं कि लालू ने गिरफ्तार होते ही अपना पद त्याग दिया और भले ही राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया पर पद की गरिमा को तो बनाये रखा। केजरीवाल द्वारा बार बार सम्मन की अवहेलना करने और त्यागपत्र नहीं देने से लोगों में केजरीवाल के पदलोलुपता का संदेश गया अन्यथा निश्चित रुप से केजरीवाल के प्रति सहानुभूति होती और इसका लाभ समस्त विपक्ष को मिलता पर लगता है एक अच्छा अवसर खो दिया गया है। अब सवाल महंगाई को लेकर आता है तो महंगाई किसी जमाने में अपना असर दिखाती थी और प्याज के भाव बढ़ने के कारण सरकार को जाते हुए हमनें देखा है पर लगता है अब यह मुद्दा भी कुंद पड़ता जा रहा है। इसका कारण है बेरोजगारी और मंहगाई को जिस तरह से विप़क्ष को चुनावी इशु बनाना चाहिए था उसमें वह सफल नहीं हो पा रही हैं।इस चुनाव में किसानों का मुद्दा तो अभी तक दिखाई ही नहीं दे रहा।

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एक बात और चुनाव घोषणा पत्रों में मुफ्त की सुविधाओं की भरमार भी अब लोगों को अधिक लुभाने वाली नहीं लगती। कारण साफ है इससे एक और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कर देने वाला अपने को ठगा समझने लगा है, वहीं लाभार्थी इसे राजनीतिक दलों की कमजोरी समझने लगा है। चुनावी बॉण्ड भी इसलिए अधिक बड़ा मुद्दा नहीं बन पा रहा कि कमोबेस सभी दलों को चंदा मिला है। किसी ने भी इस तरह से चंदा लेने से ना नहीं किया। दूसरी और जहां तक आमआदमी का प्रश्न है वह जानता है कि चुनावी चंदा देने वाले पैसे वाले प्रभावशील लोग हैं। आमआदमी तो इतना चंदा देने से रहा। यह भी जानते हैं कि चुनावों के लिए चंदा लिया ही जाता है। दूसरी और मजे की बात यह है कि चंदा पैसों वालों से लेने के बावजूद आममतदाताओं को साधनें में सत्तारुढ़ दल सफल रहा है। साफ है कि चंदा देने वालों के वोट गिनती के ही होते हैं। 

साफ है कि 18 वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार अभियान में संवैधानिक संस्थाओं के उपयोग, चुनाव बॉण्ड, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि मुद्दें अधिक चलने वाले नहीं हैं। राम मंदिर, धारा 370 या इसी तरह के अन्य मुद्दों को विपक्ष उठाता भी है तो इसका लाभ भारतीय जनता पार्टीं को ही मिलेगा। ऐसे में विपक्ष को चुनावी वैतरणी पार करने के लिए कोई ठोस मुद्दें खोजने होंगे। हवा हवाई या चलताउ भाषणों, आरोप प्रत्यारोप से पार पाना मुश्किल रहेगा। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि इस बार के चुनाव दस नेताओं के इर्द गिर्द रहेंगे इनमें नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, राहुल गांधी, खड़गे, शरद पंवार, ममता बनर्जी, नीतिश कुमार, तेजस्वी यादव, स्टालीन, असदुद्दिन ओवैसी आदि दशा और दिशा तय कर पायेंगे। पर मेरा मानना है कि 18 वीं लोकसभा के चुनाव नरेन्द्र मोदी के इर्द गिर्द ही रहने वाला है। विपक्ष का निशाना नरेन्द्र मोदी ही रहेंगे और इसका उजला या स्याह पक्ष यह है कि विपक्ष जितना अधिक नरेन्द्र मोदी के नाम का उच्चारण करेगा उसका उतना ही अधिक लाभ नरेन्द्र मोदी और भाजपा को मिलेगा। पिछले दो लोकसभा के चुनाव परिणाम तो यही बताते हैं। ऐसे में विपक्ष को अलग ही तरह की रणनीति बनानी होगी। 

विपक्ष को सकारात्मक रणनीति बनानी होगी अन्यथा नकारात्मकता को तो नरेन्द्र मोदी को अपने पक्ष में करने की महारत हैं। लोक सभा के पिछले दो चुनाव और गत दस सालों के विधानसभाओं के चुनावों के परिणाम  सबके सामने हैं ऐसे में विपक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती भाजपा को घेरने की है और इसके लिए उसे पूर्व अनुभवों को ध्यान में रखते हुए प्रभावी रणनीति बनानी होगी। रैलियों, सभाओं में प्रमुख नेताओं को भाषणों-वक्तव्यों के दौरान सावधानी बरतनी होगी तभी मोदी जी से पार पाया जा सकता है। यह साफ साफ समझ लेना होगा। इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है कि मोदी जी विपक्षी नेताओं द्वारा कही गई बात को तत्काल अपने पक्ष में भुनाने में सिद्धहस्त है, ऐसे में विपक्ष के सामने प्रमुख चुनौती चुनाव अभियान के दौरान अपनों के बीच समन्वय व समझ बनाये रखनी है तो जनमानस को प्रभावित करने की रहेगी तो मोल तोल के बोल पर भी अधिक ध्यान देना होगा। 

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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